मानव से जुड़ी परोक्ष जगत की हलचलें

March 1984

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नेत्रों को दृश्य का विस्तार ही नजर आता है। उसे ही जानने तथा उपलब्धियों को हस्तगत करने का प्रयत्न किया जाता है। जबकि दृश्य जगत की परिस्थितियाँ बनाने में परोक्ष की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कितनी बार तो परोक्ष की भूमिका इतनी जबरदस्त होती है कि भू-मण्डल पर भारी उथल-पुथल मचते देखी गयी है, जिनका कुछ भी प्रत्यक्ष कारण समय में नहीं आता। आये दिन भयंकर तूफान आते हैं, ज्वालामुखी फटते हैं, भूकम्प भूस्खलन के विप्लव भयंकर कुहराम मचाते हैं पर इनकी पूर्व यथार्थ जानकारी नहीं मिल पाती। मौसम विज्ञान तथा खगोल विज्ञान के पूर्व कथन तीर-तुक्के जितने ही सही उतरते हैं। अन्तरिक्ष विज्ञान की जानकारियों से भी विशेष मदद नहीं मिल पाती। फलतः अन्तर्ग्रही परिवर्तनों तथा उनसे पड़ने वाले व्यापक प्रभावों की जानकारी न हो पाने से पूर्व सुरक्षा की समुचित व्यवस्था नहीं बन पाती। इन प्रतिकूलताओं का शिकार मानव जाति का बनना पड़ता है।

अन्तर्ग्रही सम्बन्धों तथा पृथ्वी एवं जीव जगत पर उनकी स्थिति से पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन की एक सर्वांगपूर्ण और समुचित विकसित विधा प्राचीनकाल में थी जिसे ज्योतिर्विज्ञान के नाम से जाना जाता था। उससे जीव, प्रकृति तथा ब्रह्माण्ड के पारस्परिक सम्बन्धों की विस्तृत जानकारी मिल जाती थी। उसने अनुरूप व्यवस्था बनाने तथा अंतर्ग्रहीय प्रतिकूलताओं को अनुकूल करने के उपचार भी चलते थे। वह विद्या कालान्तर में विलुप्त हो गयी। तो भी उसके ध्वंसावशेष किसी न किसी रूप में आज भी मौजूद हैं। अति उपयोगी उस विधा का पुनर्जीवन यदि सम्भव हो सके तो आज भी अन्तर्ग्रही सम्बन्धों को समझने, उनके पारस्परिक सम्बन्धों से लाभ उठाने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

विज्ञान ने भी अब यह स्वीकार कर लिया है कि जीवन तथा उसके लिए उपलब्ध परिस्थितियाँ मात्र पृथ्वी की देन हैं। उनमें दूसरे ग्रहों का भी योगदान है। जीवन की हर लय उनकी स्थिति से प्रभावित है। जीवों में प्रकृति के अनुरूप चलने वाले जैव चक्र को वैज्ञानिक भाषा में ‘बायोरिदम’ या बायोलाजिकल क्लाक कहा जाता है। इसके अन्तर्गत जीवों की दिशाबोध की क्षमता ऋतुचक्र का पेड़-पादपों तथा प्राणियों पर प्रभाव, उनके व्यवहार में सम्भाव्य परिवर्तन तथा मनुष्य की रासायनिक संरचना एवं मनोभावों के उतार-चढ़ाव का विस्तृत अध्ययन किया जाता है।

बायोलाजिकलरिद्म को प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी शक्ति सूर्य का प्रकाश है। मनुष्य तथा मनुष्येत्तर जीव समुदाय के शरीरों में विद्यमान जैव घड़ी का नियन्त्रण प्रकाश की ऊर्जा करती है। शरीर की हर कोशिका में भी वायोलाजिकल क्लास सक्रिय है। अनुसंधानों से पता चला है कि प्रत्येक कोशिका को रात-दिन, अन्धेर-उजाला, भूख-प्यास, सुख-दुःख तथा ब्रह्माण्ड की हर गतिविधि की पूरी-पूरी जानकारी रहती है। अरबों कोशिकाओं से बना शरीर तो उन अनुभूतियों को ग्रहण करने में और भी समक्ष है।

मौसम में परिवर्तन, पृथ्वी की चाल तथा सूर्य के कारण होते हैं। यों ये परिवर्तन समूचे जीव जगत की क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। मानव शरीर तथा मन पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। जीवों की जैव घड़ी को सूर्य का प्रकाश एवं ऊर्जा ही एक निश्चित लय एवं ताल से बँधे रहते हैं। प्रकाश सभी जीवों में फोटो कैमिकल प्रक्रियाओं के लिए भी जिम्मेदार है। वह सेकेण्डों में धरती पर पहुँचकर जीवधारियों को प्रकाश संश्लेषण क्रिया के लिए उत्प्रेरित करता है। प्रकाश रश्मियाँ मनुष्य शरीर में त्वचा के माध्यम से रक्त शिराओं में प्रविष्ट हो जैव रासायनिक हलचलें उत्पन्न करती हैं। आँख से होकर प्रकाश ऊर्जा मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस तक पहुँचती है जिससे अनेकानेक रक्त शिराएँ भी जुड़ी रहती हैं। इस प्रकार प्रकाश ऊर्जा हाइपोथैलेमस जा पहुँचती है। जातव्य है कि हाइपोथेलेमस “थर्मोंस्टेट” की भूमिका निभाता है। वातावरण के तापक्रम में होने वाले परिवर्तनों को वह तुरन्त अंकित करके शरीर की ताप स्थिति में तद्नुरूप हेर-फेर की प्रक्रिया शुरू कर देता है।

प्राकृतिक ऊर्जा का एकमात्र स्त्रोत सूर्य है। प्रत्येक जीव-जन्तु, पेड़-पादप जीवनोपयोगी ऊर्जा से प्राप्त करते हैं। धरती पर सर्वत्र तापक्रम एक जैसा नहीं है। विभिन्न गोलार्धों की बनावट में अन्तर होने से उसमें अन्तर पाया जाता है। तापक्रम तथा प्रकाश की अवधि एवं मात्रा में अन्तर के फलस्वरूप धरती के विभिन्न स्थानों पर प्राणियों एवं वृक्ष वनस्पतियों के विकास में भी अन्तर पड़ता है। प्रायः 10 से 40 डिग्री सेण्टीग्रेड तापक्रम जीव जगत के विकास में सहायक होता है। अधिक पर विकास की गति अत्यन्त तीव्र तथा कम पर न्यून हो जाती है। यह दोनों ही स्थितियाँ अनुकूल नहीं मानी गयी हैं।

ऋतु मौसम तथा अन्तर्ग्रही परिवर्तनों के जीवन पर प्रभाव का अध्ययन करने की एक नयी विधा विकसित हुई हैं- “बायोलॉजिकल क्लाइमेटोलॉजी।” इसमें वायुदाब, भू चुम्बकत्व अन्तर्ग्रही विविरणों तथा ब्रह्माण्डीय किरणों के जीव जगत तथा पृथ्वी के वायुमण्डल पर पड़ने वाले प्रभावों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है। इस शाखा की अभी बाल्यावस्था है पर अब तक जो निष्कर्ष आये हैं वे कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। सम्बद्ध विषय पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का मत है कि सूर्य तथा चन्द्रमा के गुरुत्वाकर्षण का पृथ्वी के चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण, विद्युत तथा प्राणियों की हलचलों पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

आर्नल्ड एल.लीवर की पुस्तक “द लूनर ए फेक्ट” रोनाल्ड आफ फीव की पुस्तक “मूडस्विंग” तथा लाइएल वाढ़सन की पुस्तक ‘लाइफ टाइड’ (जीवन के ज्वार-भाटे) में इस विषय पर विस्तृत उल्लेख किया गया है। इन सभी का मत है कि जब भी पृथ्वी सूर्य तथा चन्द्रमा एक सीध में एक दूसरे के निकट स्थित होते हैं, ऐसी विक परिस्थितियाँ उपस्थित होती हैं। जो शरीरगत हलचलों एवं मन के क्रिया-कलापों को प्रभावित करती हैं। मियामी विश्वविद्यालय के मनोरोग चिकित्सक आर्नल्ड डा. लीवर ने चन्द्र कलाओं का सम्बन्ध मानवी व्यवहार एवं क्रिया-कलापों से जोड़ते हुए कहा है कि चन्द्रमा का गुरुत्वाकर्षण हमारे आन्तरिक बायोलाजिकल टाइड्स (ज्वार-भाटों) को भी उसी प्रकार प्रभावित करता है जिस प्रकार समुद्री ज्वार भाटों को। उनका मत है कि मनुष्य की आक्रामक प्रवृत्ति का चन्द्रमा की कलाओं के घटने-बढ़ने से गहरा सम्बन्ध है। विशेषकर शराबियों, नशीली दवा खाने के अभ्यस्तों, अपराधियों तथा मानसिक रूप से अस्थिर व्यक्तियों एवं अति भावुक लोगों के व्यवहार पर चन्द्र कलाओं का अधिक प्रभाव पड़ते देखा गया। है। प्रभावों का कारण स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि “पृथ्वी की सतह की तरह मनुष्य शरीर में भी लगभग 80 प्रतिशत जलीय तथा 20 प्रतिशत ठोस का अंश विद्यमान है। इसी कारण अमावस तथा पूर्णिमा के दिन मानव व्यवहार पर चन्द्रकलाओं का सर्वाधिक असर देखा गया है।

अपने एक अध्ययन में डा. लीवर ने पाया कि चन्द्रमा सूर्य तथा पृथ्वी के एक सीधी रेखा में आने पर मियामी क्षेत्र में हत्या एवं आत्महत्या जैसे अपराधों की बाढ़-सी आ गयी। सन् 1971 में ग्रहों का ऐसा योग पड़ा था जिसके आरम्भिक तीन सप्ताहों में जितनी हत्याएँ हुयीं उतनी पहले कभी नहीं हुयी थीं। उनका अनुपात वर्ष 1972 के जनवरी माह से दुगुना था। अध्ययन में यह भी मालूम हुआ कि पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिन इन अपराधों के अतिरिक्त अन्य अपराधों में भी बढ़ोतरी हो जाती है। पुलिस मैन, फायरमैन, एम्बुलेंस चालक इन अवसरों पर ड्यूटी पर सबसे अधिक व्यस्त देखे जा सकते हैं क्योंकि बड़े पैमाने पर आत्महत्या, यौन अपराध आगजनी, राहजनी, लूट-पाट इन्हीं दिनों होते हैं। ये घटनायें दिन की अपेक्षा रात को अधिक घटित होती हैं। रात्रि में तो हिंसक घटनाओं तथा सड़क दुर्घटनाओं का सैलाब आ जाता है।

‘द लूनर इफेक्ट’ में डा. लीवर के अध्ययन निष्कर्षों का सार इस प्रकार है- “ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव हमारे शरीर, हारमोन्स स्राव की जटिल प्रक्रिया द्रव पदार्थों तथा स्नायुतन्त्र को शक्ति देने वाले विद्युत कणों पर पड़ता है। त्वचा ऐसी अर्ध चुम्बकीय है जो दोनों दिशाओं में विद्युत चुम्बकीय शक्तियों को आवागमन का मार्ग प्रशस्त करती है, इससे सन्तुलन बना रहता है। स्नायु की प्रत्येक तरंग, शक्ति की सामान्य विद्युतधारा उत्पन्न करती है। छोटे सौरमण्डल की भाँति हर कोशिका का अपना एक छोटा तथा हल्का विद्युत क्षेत्र होता है। डा. लीवर का कहना है कि ग्रह नक्षत्रों से व्यापक परिणाम में निकलने वाली विद्युत चुम्बकीय शक्तियाँ शरीर तथा उसकी सूक्ष्म कोशिकाओं के सन्तुलन को प्रभावित करती हैं।

उल्लेखनीय बात यह भी है कि सूर्य तथा चन्द्रमा जब-जब शिखर बिन्दु पर होते हैं तब-तब मनुष्य सहित सभी प्राणियों की श्वास दर तेज हो जाती है। दमे वालों की तकलीफ बढ़ जाती है। शीत ऋतु में विशेषकर जनवरी, फरवरी में श्वास की दर बाकी महीनों की तुलना में घटी रहती है जबकि सितम्बर से लेकर नवम्बर तक सबसे अधिक बढ़ जाति है।

पृथ्वी के चारों ओर लिपटा रक्षा कवच का आवरण मैग्नेटोस्फीयर सौर हलचलों से प्रभावित होता है। चुम्बकीय आवरण की स्थिति से मनुष्य की सम्वेदना, नेत्र ज्योति, रक्त संचार, जैव रासायनिक गतिविधियाँ तथा मस्तिष्क कार्यकुशलता आदि पर भी प्रभाव पड़ता है। यदि चुम्बकीय शक्ति में वृद्धि होती है तो शरीर के रासायनिक तत्वों के अणु आवेश बदल जाते हैं। फलस्वरूप मस्तिष्कीय केन्द्रों से स्रवित होने वाले विभिन्न रसायनों का सन्तुलन बिगड़ जाता है। इसका सीधा प्रभाव मनुष्य के चिन्तन एवं व्यवहार पर पड़ता है। अनेकों अध्ययनों में यह पाया गया कि सौर गतिविधि के ग्यारह वर्षीय चक्र में आरम्भिक छः वर्षों में सूर्य धब्बे बढ़ जाते हैं तथा बाद के पाँच वर्षों में उनमें कमी आ जाती है। सौर धब्बों के बढ़ने से दिल के मरीजों की स्थिति गम्भीर होती देखी गयी है। कितने ही व्यक्तियों में दिमागी बीमारियाँ तथा तंत्रिका तन्त्र के विकार भी इसी दौरान तेजी से उभरने लगते हैं।

स्वीडन के तीन वैज्ञानिकों- जी. एग्रेन, ओ. विलैण्डर तथा इ. जोरेस ने 1931 में एक महत्वपूर्ण तथ्य की खोज की। उनका कहना था कि शारीरिक क्रियाओं के जैव रासायनिक चक्रों, जो कि अन्तर्ग्रही प्रभावों के कारण परिवर्तनशील हैं, के अनुसार ही बीमार शरीर की चिकित्सा की जानी चाहिए। उन्हीं ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि डायबिटीज के रोगी का इन्सुलिन से उपचार करते समय दवा से भी अधिक महत्व इस बात है कि उसे कब और किस समय दी जाए? चौबीस घण्टे के रात-दिन के चक्र में रक्त में शर्करा की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। रक्त में हीमोग्लोविन के अनुपात में भी उतार-चढ़ाव इसी प्रकार आता है। उन्होंने पाया कि 24 घण्टे के चक्र में रक्त में पोटेशियम, कैल्शियम सोडियम, मैग्नेशियम तथा फास्फोरस की मात्रा भी बदलती रहती है। चिकित्सकों के लिए शारीरिक रसायनों एवं तत्वों के दैनिक उतार-चढ़ाव की विस्तृत जानकारी का होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि निदान एवं उपचार सम्बन्धी ज्ञान का होना। बायोलॉजिकलरिद्म सौर मण्डल के घटकों की गति लय एवं स्थिति से प्रभावित होती तथा उनसे अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ी हुई है। उन सम्बन्धों तथा प्रभावों का ज्ञान होना भी चिकित्सकों के लिये आवश्यक है।

पिछली एक सदी में विज्ञान की विभिन्न शाखा प्रशाखाओं का चमत्कारी विकास हुआ है। मनुष्य की बौद्धिक क्षमता तथा तकनीकी ज्ञान में भी असाधारण वृद्धि हुई है। आवश्यकता इस बात की है कि इनके सहयोग से ज्योतिर्विज्ञान रूपी महान विधा की विलुप्त कड़ियों को ढूँढ़ने का प्रयत्न किया जाय। जिससे दृश्य तथा अदृश्य जगत के के पारस्परिक अंतर्ग्रहीय सम्बन्धों एवं प्रभावों को जानने और तद्नुरूप उससे प्रभाव उठाने की सफल रीति-नीति अपनाने में मदद मिल सकती है। अध्यात्म उपचारों की सहायता से इस कड़ी को कैसे और आगे बढ़ाया जा सकता है, इसे भी शोध का विषय बनाया जाए एवं तदनुसार प्रयास किये जायँ।


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