यज्ञ में मन्त्र शक्ति के प्रखर प्रयोक्ता

March 1984

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महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए उपयुक्त साधन जुटाने और उपयुक्त व्यक्ति उस कृत्य में लगाने की आवश्यकता पड़ती है। यज्ञ असाधारण महत्व की प्रक्रिया है उसकी विद्युत उत्पादक संस्थान से तुलना की जा सकती है। उसके लिए सभी साधन सामग्री सही स्तर की होनी चाहिए। सही अर्थात् असली, स्वच्छ और संस्कारिता यह उपकरणों तथा यजन भविष्य के सम्बन्ध में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उनसे सम्बद्ध व्यक्तियों की श्रद्धा सद्भावना का- सतर्कता एवं तत्परता का समुचित समावेश हुआ हो। इसके अतिरिक्त उन व्यक्तियों की बारी आती है जो इस प्रयोजन में भागीदार बनकर रहे हैं उनको शरीर की दृष्टि से स्वच्छ स्वस्थ एवं मन की दृष्टि से सन्तुलित समर्थ होना चाहिए। चरित्र की वह सम्पदा है जिसके आधार पर व्यक्ति सच्चे अर्थों में अध्यात्मवादी कहा जा सकता है। वेष, वंश या क्रिया काण्डों के आधार पर कोई चरित्रहीन एवं निकृष्ट चिन्तन वाला व्यक्ति अपने को आत्मवादी माने और ऐसे लोगों को मिलने वाले श्रेय की अपेक्षा करे तो इसे उपहासास्पद ही माना जायेगा।

यज्ञ प्रयोजन में न केवल उस कृत्य को सही रीति से सम्पन्न करा सकने की प्रवीणता ही चाहिए वरन् सूत्र संचालकों को उस स्तर का भी होना चाहिए, जो पुरोहित वर्ग के लिए आवश्यक है। यज्ञ का सारा वातावरण संस्कार युक्त होना चाहिए। यज्ञ कर्त्ता एवं कराने वाले दोनों ही उपयुक्त स्तर के होने चाहिए।

व्यक्तिगत, पारिवारिक यज्ञों में घर कुटुम्ब के लोग ही मिल-जुलकर सारी व्यवस्था बना लेते हैं किन्तु यदि किन्हीं विशिष्ट प्रयोजनों के लिए बड़े यज्ञ आयोजन करने हों तो उनके लिए विभागाध्यक्ष नियुक्त करने होते हैं ताकि सारे क्रिया-कलाप विधिवत् चलते रहें। कार्य विभाजन के अनुरूप ही व्यवस्था ठीक तरह चल पाती है। यों एक व्यक्ति भी अनेक कार्यों को सम्भाल सकता है पर उसके लिए हर विभाग पर समुचित ध्यान दे सकना, बारीकी वे वस्तुस्थिति देखना और तद्नुरूप सुव्यवस्था बनाते चलना कठिन पड़ता है। अतएव महत्वपूर्ण काम में प्रयुक्त होने वाली कार्य विभाजन पद्धति का उपयोग बड़े यज्ञ आयोजनों में भी किया जाता है।

यज्ञ प्रक्रिया को चार भागों में विभक्त किया गया है। उनके विभागाध्यक्षों के नाम (1) ब्रह्मा (2) आध्वर्यु (3) उद्गाता (4) होता, होते हैं।

अत्यन्त विशालकाय आयोजन हो तो इन चारों को अपने एक से लेकर तीन तक सहायक नियुक्त करने का भी अधिकार है। इन अधिकारियों की भी अपनी-अपनी जिम्मेदारी होती है और उनकी पदवी घोषित की जाती है।

ब्रह्मा वर्ग में- (1) ब्राह्मणच्दसी (2) आग्नीघ्र (3) होता।

आध्वर्यु वर्ग में- (1) प्रति प्रस्थाता (2) नेष्टा (3) उन्नेता।

उद्गाता वर्ग में- (1) प्रस्तोता (2) प्रति हर्ता (3) सुब्रह्मण्य।

होता वर्ग में- (1) प्रशस्ता (2) अच्छा वाक् (3) ग्रावस्तोता।

(1) ब्रह्मा-

यज्ञ का प्रधान संरक्षक अध्यक्ष एवं अधिष्ठाता ब्रह्मा कहलाता है। यह सभी कार्यों का मुख्य निरीक्षक होता है। इसे पुरोहित भी कहा जाता था। कहीं-कहीं इसी को ‘अथर्वा’ भी कहा गया है। जब यह कृत्य कुल परम्परा के रूप में चल पड़ता था तब उस प्रयोजनों में पारंगतों की पीढ़ियाँ ‘अंगिरस’ कही जान लगती थी। वैदिक काल से अंगिरसों का विशेष मान था। वे न केवल यज्ञ कृत्य कराने में कुशल होते थे वरन् निजी जीवनचर्या में भी ब्रह्म कर्म का परिपूर्ण समावेश रखते थे।

(2) आध्यवर्यु-

यज्ञों में देवताओं के स्तुति मन्त्रों को जो पुरोहित गाता था उसे ‘उद्गाता’ कहते थे। जो पुरोहित यज्ञ का प्रधान होता था वह ‘होता’ कहलाता था। उसके सहायतार्थ एक तीसरा पुरोहित होता था जो हाथ से यज्ञों की क्रियाएँ होता के निर्देशानुसार किया करता था। यह सदस्य ‘आध्वर्यु’ कहलाता था।

(3) उद्गाता-

सामगान करने वाला याजक ‘उद्गाता’ कहलाता है। हरिवंश में कथन है-

ब्रह्माणं परमं वक्त्रादुद्गातारञ्च सामगम्। होतारमथ चाध्वर्यु बाहुभ्यामसृजव्प्रभुः॥

अर्थात्- प्रजापति ने ब्रह्मा को तथा सामगान करने वाले उद्गाता अपने मुख से और होता तथा आध्वर्यु को बाहुओं से उत्पन्न किया।

वैदिक यज्ञों में विशेषकर सोम यज्ञ में सामवेद के मन्त्रों का गान होता था। गाने वाले पुरोहित को उद्गाता कहते थे। उद्गाता को दो प्रकार की शिक्षा लेनी पड़ती थी। पहली शिक्षा थी- शुद्ध एवं शीघ्र मन्त्रों का गायन, तथा उन सभी स्वरों की जानकारी जो विशेषकर सोम यज्ञों में प्रयुक्त होते थे। दूसरी शिक्षा में इस बात का स्मरण रखना होता था कि किस सोम यज्ञ में कौन-सा सूक्त या मन्त्र गान करना पड़ेगा।

(4) होता-

ऋग्वेद का पाठ करने वाला। अमरकोश (2.7.17) में इसका अर्थ ‘ऋग्वेद वेत्ता’ बताया गया है। ‘दायभाग’ टीका में श्रीकृष्णतर्कालंकार ने इसका अर्थ ‘होमकर्ता’ किया है। उनका कथन है ‘विशिष्ट देशावच्छिन्नप्रक्षेपोपहितहविस्त्यागस्य हेमत्वात् प्रक्षेपस्य तदमिधाननिमिलमित्यर्थः। तेन हुधात्वर्थतावच्छेदक प्रक्षेपानुकूल व्यापारयति ऋत्विजि होता इत्यादि व्यपदेशः॥” होमक्रिया में मुख्यतः ऋग्वेद मन्त्र पढ़कर आहुतियाँ दी जाती हैं। अतः होता ऋग्वेद वेत्ता ही होता है।

यजमान के निमित्त, उसी की ओर से, उसकी इच्छानुसार प्रतिनिधि की तरह यज्ञ कार्य करने वाला भी उन दिनों एक वर्ग था जिसे ऋत्विक् एवं ‘ऋत्विज’ कहा जाता था।

ऋत्विक् (ऋत्विज्) मनु इनके सन्दर्भ में (2.143) में उल्लेख है।

अग्न्याधेयं पाकय ज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान्। यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते॥

अर्थात्- अग्नि की स्थापना, पाकयज्ञ, अग्निष्टोम आदि यज्ञ जो यजमान के लिए करता है वह उसका ऋत्विक् कहा जाता है। ऋत्विक् के कुछ पर्यायवाची नाम भी हैं- (1) याचक, (2) भरत, (3) कुरु, (4) वाग्यत, (5) वृक्त वर्हिष, (6) यतश्रुच, (7) मरुत्, (8) सबाध और (9) देवयव।

सामान्य मनुष्य वार्त्तालाप से शब्दोच्चार का प्रयोग करते हैं। जीभ ही उनकी अभिव्यक्तियों को प्रकट करती है। यज्ञ पुरोहित अपनी जिह्वा को आहार तथा सम्भाषण का संयम करके सरस्वती स्तर की बनाते हैं। उनके वचन ही मन्त्र होते हैं। मन्त्रों का चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न करने के लिए परिष्कृत स्तर की ऐसी जीभ चाहिए जिसके कथन उच्चारण को ‘वाक्’ कहा जा सके। वाक् को देवता की अभिव्यक्ति कहा गया है। मन्त्राराधन में उसी को माध्यम बनाने से काम चलता है। धनुष सही हो तो ही तीर दूर तक जाता है और निशाना सही साधता है। मन्त्र तीर है और परिष्कृत वाणी ‘वाक्’ को प्रत्यंचा की उपमा दी गई है। कोई संस्कृतज्ञ अथवा कर्मकाण्ड ज्ञाता मन्त्रों का सही उच्चारण भर कर सकता है। इससे उसकी शिक्षा को सही समझा जा सकेगा। मन्त्र का प्रभाव दिखाने में उच्चारण में प्रवीणता नहीं उसकी आत्मशक्ति काम करती है। परिष्कृत स्तर की वाणी ही यज्ञ जैसे अध्यात्म विज्ञान से सम्बन्धित कार्यों में उपयुक्त परिणाम प्रस्तुत कर सकती है। ‘वाक्’ की महिमा शास्त्रकारों ने विस्तारपूर्वक बताई है और उसी का प्रबन्ध हो जाने पर यज्ञ की सफलता का विश्वास दिलाया है। शास्त्र कहते हैं-

वागक्षकं प्रथमजाऋतस्य वेदानां माताऽमृतस्य नाभिः। -तैत्त.ब्रा. 2।8।8।5

अर्थात्- कल्याण का प्रथम सूत्र ‘वाक्’ है। वही वेदों की माता है। अमृत की धुरी उसी को कहा गया है।

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदु ब्राह्मणा ये मनीषिणः। गुहा त्रीणि निहिता ने गयन्ति तुरीयं वाचों मनुष्या बदन्ति॥ -ऋग्वेद 1।22।164।40

अर्थात्- यह ‘वाक्’ शक्ति चार चरण वाली है। उसे पूरी तरह केवल ब्रह्मवेत्ता ही जानते हैं। इनमें से तीन तो अन्तःगुफा में छिपे हैं। मात्र वैखरी को ही जिव्हा द्वारा मनुष्य बोलते हैं।

क्लयद्वाग्वदन्त्य विचेतनानि। राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा॥ चतस्रवलर्ज्जदुदुरे पयांसि। क्वल्विदस्याः परमं जगाम्॥ -सरस्वती रहस्योपनिषद्

अर्थात्- यह ‘वाक्’ विश्वव्यापी है। समस्त जड़-चेतन उसके प्रभाव क्षेत्र में आते हैं। देवताओं का सूत्र संचालन वही करता है। न जाने हम उसका मर्म कब जान सकेंगे।

स वै वाचमेव प्रथमामत्यवहत्। सा यदा मृत्युमत्य मुच्यत। सोऽग्निरभवत्। सोऽयमग्निः परेण मत्युमतिक्रान्तोदीप्यते। -वृह.उ. 1।3।12

अर्थात्- प्राण ने ‘वाक्’ के सहारे मृत्यु को पार किया। यह वाक् अग्नि बनकर अमर हो गई, वेद असीम शक्तियों से ओत-प्रोत होकर ज्योतिर्मयी बनी।

यज्ञ कराने वाले पुरोहितों की प्रवीणता, पवित्रता एवं प्रखरता ही वह प्रमुख शक्ति है जिनसे अध्यात्म विज्ञान के प्रत्यक्ष प्रयोग यज्ञ अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं। जिन्हें इस सन्दर्भ में रुचि हो उन्हें यज्ञ प्रयोजन के साधन जुटाने एवं उपयुक्त याजक तो तलाशने ही चाहिए। साथ ही यह भी प्रयत्न करना चाहिए कि इस सन्दर्भ में जो कुछ भी प्रयुक्त किया जाय वह आध्यात्मिक सुसंस्कारिता से भरा-पूरा हो। यह न बन पड़ने पर प्रयत्न प्रायः निष्फल ही चले जाते हैं। क्योंकि कहा गया है-

जिह्वा दग्ध परान्नेन करौदग्ध प्रतिग्रहात्। मनोदग्धम् परस्त्रीभिः मन्त्र सिद्धि कथं भवेत्॥ -तन्त्रसार

अर्थात्- पराया अन्न खाने से जिह्वा जल गई। दान लेने से हाथ जल गये। कामुकता से मन जल गया। फिर भला मन्त्र की सिद्धि कैसे हो।


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