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March 1984

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आक्रुश्यमानो नाक्रोशेन्मयुमेव तितिक्षतः। आक्रष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य निन्दति॥

अर्थात्- कटु वचन कहने वाले पुरुष से भी कभी स्वयं कटु वचन नहीं कहें और उस समय समुत्पन्न क्रोध को भी सहन कर लेना चाहिए। इससे विपक्षी नष्ट हो जायेगा और उसके पुण्य क्षीण हो जायेंगे।

कुछ लोग बोझिल मन से परेशान रहते हैं। ऐसे लोगों को प्रसन्न रहने की कला सीखनी चाहिए। यह अभ्यास करने के लिए आज और अभी से तैयार हुआ जा सकता है। दैनिक जीवन में जिससे भेंट हो उससे यदि मुस्कराते हुए मिला जाय तो बदले में सामने वाला भी मुस्कराहट भेंट करेगा। उसे हल्की-फुल्की बात करने में झिझक नहीं महसूस होगी और इस तरह अपने मन का भारीपन काफी दूर होगा।

अगर कोई चेहरे पर चौबीसों घण्टे गमगीनी लादी रहे तो धीरे-धीरे उसके सहयोगियों की संख्या घटती चली जाती है। यदि प्रति क्षण प्रसन्नता बाँटते रहने का न्यूनतम संकल्प शुरू किया जाय तो थोड़े दिनों के प्रयास से ही आशातीत परिणाम मिलने लगेंगे।


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