आत्मबोध की चमत्कारी परिणतियाँ

March 1984

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सेठजी के एक ही छोटा बच्चा था। माता पिता दोनों ही उस छोटे बच्चे को छोड़कर मरने लगे तो सोचा विदित सम्पत्ति को अन्य लोग छीन लेंगे। इसलिए इसके गले में एक हीरों की लड़ी मैले-कुचैले धागे में लपेट कर बाँध दें। कभी समझदार होगा तो उसके सहारे बड़ा आदमी बन जायेगा।

जैसी आशंका थी छोड़ी, सम्पत्ति दूसरों ने हड़प ली। लड़का भीख माँगकर गुजारा करने लगा। धीरे-धीरे वह बड़ा और समझदार भी हो गया।

एक दिन जौहरी की दुकान के सामने खड़ा था। गले की लड़ी पर उसकी नजर पड़ी तो पास बुलाकर उतरवाया और ध्यानपूर्वक देखा। उसकी कीमत एक हजार देने लगा। लड़का होशियार था समझा कोई कीमती वस्तु है। बाद में आने की बात कहकर घर चला गया।

लड़ी के दाने उसने अलग-अलग कर लिए। एक-एक करके जौहरियों को दिखाता और बेचता रहा। लाखों कीमत में बिके। उस धन के सहारे वह बड़ा व्यवसायी हो गया। जानकारी न होने के कारण वह भिखारी रहा। वस्तुस्थिति का पता चलते ही वह अमीर हो गया।

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खरगोशों ने समूचे जंगल में अपने को सबसे छोटे आकार का पाया और आत्म-ग्लानि से पानी में डूब मरने का फैसला किया।

झुण्ड बनाकर वे तालाब पर पहुँचे तो किनारे पर छोटे-छोटे मेंढक उनके विशाल आकार को देखकर डरे और भाग खड़े हुए।

बुड्ढे खरगोश ने सभी साथियों को समझा लिया कि हमसे भी छोटे आकार के मेंढक मौजूद हैं। फिर इस प्रकार अपने को हेय क्यों माना जाय? योजना रद्द हो गई और घरों को वापस लौट गये।

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सिंह का बच्चा भेड़ों के झुण्ड में पला था। वह अपने को भेड़ ही समझता और वही तौर तरीके अपना कर रहता।

एक दिन एक सिंह उधर से निकला। उसने झुण्ड से अलग होने और अपना स्वरूप समझने को कहा, पर उसकी समझ में न आयी। तब उसे साथ लेकर नदी के पास पहुँचा, और अपनी और उसकी छाया एक जैसी होने का ज्ञान कराया। तब वह भेड़ों का झुण्ड छोड़कर सिंहों की बिरादरी में मिल गया।

आत्मबोध के अभाव में मनुष्य ऐसे ही कुसंग में भटकता और हेय स्तर के स्वभाव प्रचलन अपनाये रहता है।

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हनुमान जब तक अपने को सुग्रीव का सेवक मात्र समझते रहे तब तक दीन दयनीय स्थिति में थे जब जामवन्त ने उनके बल और स्वरूप का बोध कराया तो वे समुद्र छलाँगने, लंका जलाने और पर्वत उठाने में समर्थ हो गये।

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बुद्ध को आत्मबोध हुआ तो उनका दृष्टिकोण और क्रिया-कलापों तुरन्त बदल गया। तब वे राजकुमार से बदलकर भगवान हो गये।

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नारद द्वारा आत्म-बोध कराये जाने पर पार्वती, प्रह्लाद, ध्रुव वाल्मीकि आदि असंख्यों ने अपना स्वरूप बल वैभव एवं लक्ष्य समझा और वे अपनी गतिविधियों में हेर-फेर करके कुछ से कुछ बन गये।


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