आत्मा शरीर से भिन्न है और स्वतंत्र भी

March 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वैज्ञानिक क्षेत्रों में कुछ समय पूर्व तक मनुष्य को एक चलता-फिरता पेड़ कहा जाता था और समझा जाता था कि उसका अस्तित्व शरीर के साथ ही समाप्त हो जाता है। शरीरगत रासायनिक पदार्थों के सम्मिश्रण से जो चेतना उत्पन्न होती है- वही आत्मा है। शरीर का मरण होते ही आत्मा की भी समाप्ति हो जाती है।

उन दिनों के वैज्ञानिक जीव कोशों की मध्यवर्ती नाभिकीय सत्ता को ही जन्मने बढ़ने, बुढ़ियाने और मरने के लिए उत्तरदायी मनाते थे, उसी के उभार और ढलान के साथ जीवन मरण की संगति जोड़ते थे। आधुनिक कायशास्त्र में ऐसी ही विवेचना भी मिलती है।

कहा जाता रहा है कि मानव शरीर जिन अगणित जीवकोशों से बना है। उनके भीतर एक लिबलिबा पदार्थ पाया जाता है। इसके भीतर जो सारतत्व है उसे विज्ञान की भाषा में प्रोटो प्लाज्मा कहा जाता है। इस द्रव्य में तैरने वाले नाभिकीय अंश को ‘न्यूक्लियस’ नाम से जाना जाता है। मरण के सम्बन्ध में शरीर विज्ञानियों का मत है कि जब प्रोटोप्लाज्मा का न्यूक्लियस निर्बल पड़ जाता है तो कोशिकाएँ सूखने लगती हैं, उनका वजन घट जाता है और कार्य समता भी कम हो जाती है। यही बुढ़ापे की पृष्ठभूमि है। स्थिति बिगड़ते-बिगड़ते यहाँ तक पहुँचती है कि शरीर तंत्र के संचालन में व्यवधान खड़े हो जाते हैं और मृत्यु की घड़ी आ पहुँचती है।

पर अब वैसी बात नहीं रही। नवीनतम मान्यताओं ने शरीर में समाई हुई किन्तु उससे सर्वथा भिन्न ऐसी एक स्वतंत्र सत्ता का प्रत्यक्ष दर्शन किया है जो मरने के उपरान्त भी अपना अस्तित्व बनाये रहती है और शरीर के बिना भी शरीर धारियों जैसे स्वभाव और कर्म का परिचय देती है।

पदार्थ विज्ञानी विलियम मैग्डूगल ने यह जानने का प्रयत्न किया कि मरने पर शरीर में क्या कमी हो जाती है। उनने कई मरणासन्न रोगियों को इसी प्रयोजन के लिए विशेष रूप से बनाई गई तराजू पर रखा। मरने के साथ-साथ उनमें से प्रत्येक का वजन तत्काल प्रायः एक डेढ़ ओंस घट गया। इस आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मरने के साथ-साथ कोई विशेष वस्तु निकल भी जाती है। मात्र क्रिया-कलापों का अन्त नहीं होता।

जीवित और मृत शरीर में क्या अन्तर होता है, इनकी जाँच पड़ताल का एक विशेष तरीका डा. गेट्स ने अपनाया। उनने इसी प्रयोजन के लिए कत्थई रंग की एक विशेष प्रकार की किरणें उत्पन्न करने वाला यन्त्र बनाया। यह किरणें हर निर्जीव पदार्थ को एक्सरेज लेसररेज की तरह पार कर जाती थी। वे जीवित पदार्थ को पार नहीं कर पाती थी।

उसने कुछ छोटे प्राणी इस प्रयोग के लिए लिये। जब तक वे जीवित रहे तब तक वे विशेष किरणें पार न हो सकीं। पर जैसे ही प्राणान्त किया गया किरणें तत्काल आर-पार जाने लग गई। इस आधार पर उनने पाया कि मृतक और जीवित शरीरों में रासायनिक पदार्थ ज्यों के त्यों रहने पर भी कोई विशेष तत्व निकल जाता है। इसे उन्होंने प्राण से मिलता-जुलता नाम दिया है।

फ्राँसीसी डाक्टर हेनरी बाराहुक के निजी परिवार में दो मृत्यु हुईं। एक बार उनका बच्चा मरा, दूसरी बार पत्नी। दोनों की मृत्यु के होने से पूर्वक उन्होंने परावर्तित किरणों की हलचल देखने वाले कैमरे फिट कराये। मृत्यु के समय उन यंत्रों ने बताया कि इन क्षेत्रों में साधारण तरंग प्रवाह में भारी उथल-पुथल उत्पन्न हुई।

डा. एफ.एम.स्ट्रा ने मरण के समय की स्थिति जाँचने के लिए विद्युत तरंगों का आँकलन करने वाले नव आविष्कृत उपकरणों का प्रयोग किया। उनने पाया कि मरते समय मनुष्य शरीर से बाहरी क्षेत्र में कुछ विशेष प्रकार की हलचल मचती है।

अमेरिका के इन वैज्ञानिकों ने क्लाइड चेम्बर में एक प्रकार का रासायनिक कुहरा प्रविष्ट किया। उसके भीतर जीवित मेंढक रखे गये। तब कोई खास बात नहीं थी। पर जैसे ही मेंढक को बिजली का झटका देकर मारा गया वैसे ही उसकी आकृति चेम्बर कुहरे में तैरती हुई देखी गई। यह धीरे-धीरे धूमिल होती गई और कुछ देर में पूरी तरह समाप्त हो गई। इस छाया को उन्होंने फोटोग्राफीक प्लेट पर अंकित भी किया है।

लंदन के शरीर विज्ञानी डा.डब्ल्यू. जे. किल्नर ने अपनी पुस्तक “दि ह्यूमन एटमोस फियर” में अपने कितने ही मरण काल की स्थिति पर प्रकाश डालने वाले प्रयोगों का वर्णन किया है। सैन्ट जैम्स अस्पताल में उन्होंने मरण काल में रोगियों के शरीर में एक आभा मण्डल ऊपर उठता और उड़ता देखा, जो प्रायः एक फुट ऊँचा उठने के बाद विलीन हो गया।

सोवियत विज्ञानी ग्रिश्चेन्को ने एक विशेष जैव प्लाज्मा की खोज की है। यह ठोस, द्रव, गैस और सामान्य प्लाज्मा की चार स्थितियों से भिन्न है। यह पाँचवीं स्थिति है। इसे वे परमाणु संगठनों से भिन्न मानते हैं। उसके अन्तर्गत ऐसे स्वतन्त्र इलेक्ट्रान ओर प्रोटान पाये गये हैं, जो सामान्य पदार्थों की स्थिति से भिन्न प्रकार के होते हैं। इस आधार पर जीव सत्ता का एक स्वतंत्र अस्तित्व बनता है। इसे फिलहाल बायोप्लाज्मा नाम दिया गया है। प्रकारान्तर से यह जीव सत्ता के स्वतंत्र अस्तित्व जैसी मान्यता है।

परामनोविज्ञानी प्रो. मुलडोन ने अपने अन्वेषणों का सार संक्षेप “दि प्रोजेक्शन आफ एस्ट्रल बॉडी” में प्रकाशित किया है। उनका कथन है कि- “शरीर के कलेवर में एक स्वतंत्र चेतना का अस्तित्व है। वह इच्छानुसार इस परिधि से बाहर भी भ्रमण कर सकती है और जान सकती है कि दूरस्थ प्रदेशों में भी कहाँ क्या हो रहा है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर परस्पर एक दूसरे से गुँथे रहने पर भी पृथक-पृथक अपनी सत्ता बनाये रहते हैं। वे अपना काम मिल-जुलकर भी करते हैं और स्वतंत्र रूप में भी।” कई घटना प्रसंग भी आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी इन प्रतिपादनों की पुष्टि करते हैं।

बात सन् 1944 की है। प्रख्यात मनोविज्ञानी कार्ल जुंग को दिल का दौरा पड़ा। दौरा बहुत भयानक था। किसी प्रकार उन्हें आक्सीजन और कपूर के इन्जेक्शनों के सहारे जीवित रखा जा रहा था। इस बीच उन्हें अनुभूति हुई कि प्राण शरीर से निकलकर हजारों मील ऊपर चला गया है। बिना पंखों के ही वे इच्छा मात्र से किसी भी दिशा में उड़ सकते हैं। थोड़ी ही देर में उन्होंने यरुसलम तथा दूसरे नगरों के ऊपर से चक्कर काट लिये। इसके बाद वे शरीर में वापस आय गये। कुछ समय बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई।

जुंग ने इस अनुभूति का विवरण विस्तारपूर्वक अपनी पुस्तक में लिखा है और कहा है कि इस घटना के उपरान्त मेरे दृष्टिकोण एवं जीवनक्रम में परिवर्तन हुआ है। मृत्यु का भय तो एक प्रकार से पूरी तरह ही निकल गया।

गुह्य विद्या के विशेषज्ञ प्रो. कीरो अपने युवाकाल तक आध्यात्मिक रहस्यवाद का मजाक उड़ाते और उसे अन्ध-विश्वास बताते रहे। पर कुछ घटनाएँ उनके जीवन में ऐसी घटीं जिनके कारण उन्हें अपनी पूर्व मान्यताएँ बदलने के लिए विवश होना पड़ा।

मार्च 1796 में कीरो दक्षिण अमेरिका में थे। इंग्लैण्ड से उन्हें पिता की भयंकर बीमारी का तार मिला और वे तत्काल चल पड़े। 6000 मील की दूरी पार करने में वायुयान को भी समय तो लगा ही। पहुँचने पर उनने पिता को मरणासन्न पाया। सारा जोर लगाकर वे इतना ही कह पाये कि “कुछ आवश्यक आर्थिक कागजात एक सालीसीटर्स फर्म के पास रखे हैं। उन्हें सम्भाल लेना।” फर्म का नाम बहुत याद करते रहे पर स्मृति ने साथ नहीं दिया। बता न पाये और प्राण छूट गये।

प्रायः तीन वर्ष बाद इंग्लैण्ड में एक मित्र से मिलते समय उनके घर में प्रेतात्माओं के आह्वान का आयोजन देखने को मिला। कीरो चुपचाप बैठे देखते रहे। उसी माहौल में उन्हें ऊपर उड़ती हुई एक धुँधली आकृति दिखी। क्रमशः तस्वीर अधिक साफ होती गई वह उनके पिता की थी। वह बोलने भी लगी। इतना ही कहा- मरते समय जिस फर्म का नाम नहीं बता पाया था वह “डेविड एण्ड सन्स” है। बात समाप्त हो गई। आकृति गायब थी। दूसरे दिन कीरो उस फर्म में पहुँचे। सभी कागजात उन्हें सुरक्षित मिल गये। उस दिन से उन्हें मृतात्माओं के अस्तित्व पर भरोसा हो गया।

कीरो ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘ट्रू घोस्ट स्टोरीज’ में ऐसे ही अपने ऊपर बीते और दूसरों के साथ घटित हुए विवरण लिखें हैं। और उनकी सच्चाई में सन्देह न होने की बात कही है।

एक बार वे एक भुतहे मकान में किरायेदार बने। प्रेतात्मा से उन्होंने एक मंजिल उसके लिए छोड़ देने का समझौता कर लिया और आये दिन के भयंकर उत्पातों से छुटकारा पा गये।

दिलचस्पी बढ़ने पर वे इस और विशेष ध्यान देने लगे। प्रेतात्माओं से सम्पर्क साधने के प्रयत्न करने लगे। इस प्रयास में उन्हें सफलता भी मिली। कितनी ही मृतात्माओं का उनके सम्बन्धियों से वार्त्तालाप कराने में वे माध्यम बने। इस आधार पर उनने कितने ही ऐसे विवरण बताये जो मृतकों के साथ लुप्त हो गये थे पर बाद में उन जानकारियों को प्राप्त कर सम्बन्धियों ने भारी लाभ उठाये।

सेन्ट ल्यूकस हास्पिटल के निर्देशक डा. शनमेकर डेवकर ने मरणासन्न रोगियों की मनःस्थिति का अनुसंधान करने में पूरे उन्नीस वर्ष लगाये। इस अवधि में उन्होंने 2300 रोगियों का पर्यवेक्षण किया। जिनमें 1400 ऐसे थे जिनकी मनःस्थिति जानी जा सके। शेष मूर्छित या अस्त-व्यस्त स्तर की ऐसी मनोदशा में थे जो कुछ सही बात बता सकने के योग्य न थे।

चिकित्सीय मृत्यु का आधार है- मस्तिष्क में प्राण वायु का न पहुँचना और उस क्षेत्र की हलचलों का समाप्त हो जाना। इसमें हृदय की धड़कन बन्द हो जाना भी सम्मिलित है। इस आधार पर मृतक घोषित किये गये व्यक्तियों में से कुछ ऐसे भी निकले जिनकी चेतना तीन घण्टे बीत जाने के बाद भी फिर लौट आई और वे मृत से जीवित हो गये। यह कैसे हुआ इसका कारण शरीर विज्ञान के आधार पर शोधकर्ताओं को ज्ञात न हो सका। फिर भी उन मृत्यु से वापसी वालों ने आने सुखद अनुभव सुनाये। इस मध्यान्तर काल में वे भयभीत उद्विग्न नहीं वरन् अपेक्षाकृत प्रसन्न रहे।

नटलाँटा के एमोरी विश्व विद्यालय के प्रो. माइकेल सेवम ने भी अपनी खोजों में ऐसे लोगों का उल्लेख किया है जो मरने के बाद जी उठे और उस बीच उन पर जो बीती उसका विवरण सुनाते रहे। इनमें से एक भी ऐसा नहीं था जिसने उस बीच किसी प्रकार का त्रास मिलने की बात की हो। सभी सूक्ष्म शरीर के सहारे वे पक्षी की तरह आकाश में उड़ते रहे और चित्र-विचित्र दृश्य देखते रहे। इस बीच उन्हें सुखद अनुभूतियाँ ही होती रहीं।

“इन्टर नेशनल एसोसियेशन फार नियर डेथ” संस्था के निर्देशन समाज शास्त्री जान आडिट का कहना है कि भौतिक विज्ञानियों की यह मान्यता सही नहीं है कि मरने के साथ ही मनुष्य की सत्ता समाप्त हो जाती है और काया के साथ ही मनुष्य मर जाता है। मरते समय लौट-लौट के जीवन मरण के झूले में झूलते रहने वालों ने जो अनुभूतियाँ व्यक्त की हैं उनसे प्रकट होता है कि शरीर रहित स्थिति में भी जीव किसी ऐसे अदृश्य लोक में विचरण करता है जो आँखों से न देखते हुए भी अपने संसार जैसा ही है। साथ ही अति निकट भी।

इन अन्वेषणों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसे अविश्वस्त कहा जा सके। ऐसे अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर अब वैज्ञानिक जगत भी आत्मा की स्वतंत्र सत्ता की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकारने के लिए बाधित हो रहा है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118