प्रगति और कर्मठता एक ही तथ्य के दो पक्ष

March 1984

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क्षेत्रफल जनसंख्या एवं प्रकृति सम्पदा के आधार पर कोई देश समर्थ एवं समृद्ध हो सकता है यह मान्यता आँशिक रूप से ही सही कही जा सकती है। जिसके पास पूर्वजों की छोड़ी विपुल सम्पदा हो उसे ठाट-बाठ से रहने में क्या अड़चन हो सकती है? विशिष्टता के तथ्य तब उभर कर आते हैं जब सामान्य अथवा हेय परिस्थितियों के बीच भी ऊँचा उठने- आगे बढ़ने का प्रयत्न सफल करके दिखाया जाता है। इसमें तत्परता और तन्मयता की ही प्रधान भूमिका रहती है। परिस्थिति ही सब कुछ नहीं होती। साधनों का बाहुल्य ही प्रगति का एकमात्र कारण नहीं है। देखा यह भी जाता है कि कर्मठता और सूझ-बूझ के सहारे विपन्नता के बीच भी सम्पन्नता उत्पन्न करने के सुयोग बनते हैं।

कितने ही राष्ट्र इस बात के प्रमाण हैं कि उनने प्रतिकूलताओं के बीच भी पराक्रम के बल पर अनुकूलता उत्पन्न की है और आश्चर्यचकित करने वाली सफलता उपलब्ध की है।

द्वितीय महायुद्ध में हारने के उपरान्त जर्मनी, इटली, जापान आदि की स्थिति दयनीय हो गई थी, पर वहाँ के नागरिकों ने कठोर श्रम और प्रचण्ड संकल्प के आधार पर कुछ ही वर्षों में पुरानी समर्थ स्थिति पुनः प्राप्त कर ली। जीतने वाले देशों में भी रूस ब्रिटेन जैसे देशों में बुरा हाल था। मनोबल गँवा दिया होता तो शताब्दियों तक उन्हें दयनीय स्थिति में पड़ा रहना पड़ता। कठोर, श्रम और भावभरा उत्साह ही है जिसके सहारे वे न केवल उठ खड़े हुए वरन् पहले से भी अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त कर सके।

योरोप के कुछ बहुत छोटे देशों की स्थिति और प्रगति के बीच तालमेल बिठाने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। स्वल्प साधनों और प्रतिकूलताओं के बीच रहते हुए उनकी प्रगति और समृद्धि इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करती है कि साधनों की तुलना में संकल्पों की परिणति कहीं अधिक चमत्कारी होती है।

नीदरलैण्ड का क्षेत्रफल बारह हजार पाँच सौ अट्ठाइस वर्गमील है। उसकी वर्तमान जनसंख्या 1 करोड़, 38 लाख 98 हजार है। अर्थात् प्रति वर्गमील में औसतन नौ सौ व्यक्ति निवास करते हैं। इसका 40 प्रतिशत भू-भाग समुद्र सतह से नीचे है। आये दिन इन्हें समुद्र का प्रकोप झेलना ही पड़ता है, पर मेहनत, मनोबल, साहस के धनी डचों ने, नीची सतह युक्त भूमि को चारों ओर से मजबूत बाँधों से घेर दिया है। जनसंख्या वृद्धि दर प्रति वर्ष 1-3 प्रतिशत है। यहाँ की औसत आय प्रति व्यक्ति, प्रतिवर्ष 6200 डालर है (लगभग 55800 रुपये) है। इनकी औसत आयु 82 वर्ष होती है।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इसकी कमर बुरी तरह टूट गई थी। चार वर्ष तक उसे जर्मन सेना के अधीन रहना पड़ा। आर्थिक व्यवस्था बिल्कुल चरमरा गई, किन्तु पुरुषार्थ के धनी डच जर्मनी के चंगुल से निकलने के बाद तुरन्त ही फिर से राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा कर देने में समर्थ हो गए। वैज्ञानिक और औद्योगिक क्षेत्रों में द्रुतगति से विकास हुआ। कृषि की वैज्ञानिक प्रणाली का विकास किया गया। देश की 18 प्रतिशत श्रमशक्ति कृषि कार्य में संलग्न है। कृषि योग्य भूमि कम होते हुए भी उपज इतनी अधिक हो जाती है कि खाद्यान्न बाहर निर्यात भी किए जाते हैं। यह उनके प्रचण्ड पुरुषार्थ का ही परिणाम है।

बेल्जियम, नीदरलैण्ड की तुलना में अत्यन्त छोटा देश है- विस्तार और आबादी दोनों मामलों में। क्षेत्रफल 10886 वर्गमील है। आबादी करीब एक करोड़ है। 20 प्रतिशत लोग कृषि कार्य में संलग्न रहते हैं। कुल राष्ट्रीय आय का 10 प्रतिशत कृषि से प्राप्त होता है। 80 प्रतिशत जनशक्ति खानों, कारखानों, निर्माण कार्यों, व्यापार एवं यातायात में लगी है। यहाँ प्रति व्यक्ति की वार्षिक आय औसतन सात हजार डालर (साठ हजार रुपये) है। द्वितीय विश्व युद्ध में यह राष्ट्र भी बुरी तरह थक चुका था। अर्थतन्त्र बेतरह लड़खड़ा गया था, पर अपने परिश्रम, निष्ठा, लगन व देश के प्रति सच्ची आस्था ने इन्हें पुनः कुछ ही दिनों में उस स्थान पर ला खड़ा किया, जहाँ वे पहले थे।

स्विट्जरलैंड का क्षेत्रफल 15 हजार 5 सौ 41 वर्ग मील है। सन् 1989 में वहाँ की कुल आबादी 62 लाख 98 हजार थी। प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय सन् 1976 में 8 हजार 880 डालर थी। सन् 1982 में यह आय 9 हजार तक पहुँच चुकी थी। पहाड़ी प्रदेश होने के कारण कृषि योग्य भूमि अत्यल्प है। आय का प्रमुख स्रोत लघु उद्योग व व्यापार है। इस राष्ट्र के साथ विडम्बना यह है कि इसके समीप न तो कोई बन्दरगाह है, न समुद्री किनारा। किन्तु फिर भी उसका व्यापार प्रतिवर्ष 5 अरब डॉलर से भी अधिक है। प्रति व्यक्ति आय भी समृद्ध देशों जितनी है। ऊर्जा का किसी प्रकार का कोई खनिज स्रोत वहाँ मौजूद नहीं। कारखाने व रेलगाड़ियाँ जल विद्युत से चलती हैं, जिसका उत्पादन पहाड़ी जलधाराओं से किया जाता है। इस प्रकार अभावग्रस्तता होने के बावजूद भी अपने को विकासशील स्तर का बना लेना वहाँ के नागरिकों की देश के प्रति सच्ची निष्ठा एवं परिश्रमशीलता का ही परिणाम है। यहाँ 50 प्रतिशत लोग श्रमिक हैं इनमें से आधे कारखानों में एवं अन्य उद्योगों में लगे हुए हैं। इस प्रकार वहाँ की प्रगति देशवासियों के श्रमनिष्ठ होने का परिचायक है।

स्वीडेन को विश्व में सर्वाधिक संगठित देश माना जाता है। इसके लगभग 80 प्रतिशत श्रमिक व्यापार संगठन में शामिल हुए पाये गये हैं। साथ ही यहाँ की एक विशेषता यह है कि कर्मचारी व मालिकों के बीच अच्छा सुदृढ़ सम्बन्ध कायम है। किसी माँग की पूर्ति की समस्या को अशान्त वातावरण में नहीं वरन् मिल बैठकर आपसी विचार विमर्श द्वारा सुलझा लिया जाता है।

67 वर्ष की आयु के उपरान्त व्यक्ति को राष्ट्रीय पेन्शन प्रदान की जाती है। अनिवार्य स्वास्थ्य बीमा योजना से हर नागरिक प्रभावित होता है। स्वीडिश लोगों का अच्छा स्वास्थ्य वहाँ की अच्छी जलवायु तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण निःशुल्क चिकित्सा प्रबन्ध का एक प्रमाण है।

पुरुषों व महिलाओं के बीच समानता का आन्दोलन स्वीडेन में लम्बे समय से चला आ रहा है। परिणाम स्वरूप श्रमिक केन्द्रों, उच्च शिक्षा तथा राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की अधिक संख्या में भागीदारी दृष्टिगोचर होती है। उन्हें मजदूरी में भी समानता मिली हुई है। यहाँ रोजगार में संलग्न विवाहित महिलाओं का प्रतिशत 1950 के 25 से बढ़कर 1970 में 50 तक एवं 1982 में 62 तक पहुँच गया है।

स्वीडिश शिक्षा व्यवस्था की यह एक विशेषता है कि प्रत्येक व्यक्ति जो कार्यरत होने के उपरान्त भी शिक्षा चालू रखना चाहता है उसे सुविधा प्रदान की जाती है।

डेनमार्क भी एक छोटा देश है। क्षेत्रफल 19 हजार 557 वर्गमील है। जनसंख्या उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार लगभग 61 लाख। राष्ट्रीय आय का 25 प्रतिशत भाग व्यापार एवं यातायात से प्राप्त होता है। कृषि कार्य में 20 प्रतिशत लगे रहते हैं। 30 प्रतिशत औद्योगिक प्रतिष्ठानों में कार्यरत हैं। लघु कुटीर उद्योग बड़ी संख्या में हैं। आय का एक बड़ा भाग छोटे उद्योगों से प्राप्त होता है खेती एवं पशुपालन की दृष्टि से यह राष्ट्र बहुत आगे है। डेरी फार्मों की संख्या भी सर्वाधिक है। अनुमान है कि स्विट्जरलैंड की तरह डेनमार्क भी कुल दुग्ध उत्पादन का चालीस प्रतिशत दूसरे देशों को निर्यात करता है। खनिज पदार्थों का अत्यन्त अभाव है। इनका आयात करना पड़ता है। फिर भी निर्यात लगभग 5 अरब डालर का होता है।

यदि देशवासियों का पुरुषार्थ जीवन्त हो तो सीमित साधनों द्वारा भी असामान्य प्रगति की जा सकती है- इसका अच्छा उदाहरण डेनमार्क है। सन् 1948 में यहाँ प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 800 डालर थी, जो बढ़कर सन् 1960 में 1200 डालर हो गई। सन् 1976 में और भी बढ़ी और 7 हजार छह सौ डालर जा पहुँची। लगातार बढ़ती वार्षिक आय इसी बात का परिचायक है कि वहाँ के नागरिकों में श्रमशीलता अभी भी शेष है।

फिनलैण्ड स्वीडेन के पूर्व में स्थित अत्यन्त छोटा राष्ट्र है। 1939 में रूस ने युद्ध में उसके एक बड़े भाग पर कब्जा कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी के शोषण का शिकार बना। आर्थिक व्यवस्था बुरी तरह डगमगा गई थी। युद्ध में शरणार्थियों का भरण-पोषण एवं निवास का अतिरिक्त बोझ कन्धे पर आ पड़ा, फिर भी देशवासियों ने अपने मनोबल को टूटने नहीं दिया और दुगुने उत्साह से परिश्रम करना आरम्भ कर दिया। इसी कारण उसकी स्थिति अब इतनी अच्छी बन पायी है।

यहाँ का कुल क्षेत्रफल एक लाख 30 हजार 120 वर्गमील है। आबादी 48 लाख। 50 प्रतिशत व्यक्ति श्रमिक है। सन् 1948 में वार्षिक आय प्रति व्यक्ति औसतन 800 डॉलर थी। अब 6300 डालर के निकट है।

जापान की कुल जनसंख्या 11 करोड़ 30 लाख है। द्वितीय विश्वयुद्ध में इसकी भी बुरी गति हुई। हिरोशिमा और नागासाकी में गिराये बमों का दुष्प्रभाव अब तक बना हुआ है। अर्थव्यवस्था बुरी तरह गड़बड़ा गई थी, किन्तु राष्ट्र प्रेम, लगन व अथक परिश्रम के बल पर आज पुनः वह औद्योगिक रूप से विकसित देशों की पंक्ति में आ खड़ा हुआ है। इलेक्ट्रानिक्स में भी कॉटेज इन्डस्ट्री का बहुत प्रचलन है। जापानियों की श्रमनिष्ठा से ही विगत दो दशकों में देश की आमदनी 5 गुनी बढ़ी। वहाँ प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसत आय 7730 डॉलर है।

इजराइल भी जापान की तरह एक छोटा-सा देश है। संयुक्त कौटुम्बिक प्रणाली का यहाँ अनुकरणीय उदाहरण देखने को मिलता है। इसका प्रथम प्रयोग फिलिस्तीन में 1910 में आरम्भ किया गया। संयुक्त रूप से कृषि फार्मों में काम करने तथा आवश्यकतानुसार उपयोग करने का यह अभिनव प्रयोग छोटे स्तर पर सीमित व्यक्तियों को लेकर किया गया, पर वह अत्यन्त सफल रहा। यहाँ इस कम्यून (संयुक्त कौटुम्बिक) व्यवस्था को ‘क्वुत्सा या दर्गेगिया’ कहा जाता है।

इस व्यवस्था के प्रयोग अन्यत्र भी चल पड़े। 1960 तक ऐसे गाँवों की संख्या 500 तक जा पहुँची। अनुमान है कि इजराइल के 100 गाँव संयुक्त कौटुम्बिक प्रणाली की व्यवस्था द्वारा परिचालित हैं।

क्यूबा में भी कम्यून प्रणाली के पर्याप्त उदाहरण उपलब्ध होते हैं। उनके सदस्य एक साथ रहते, साथ-साथ काम करते तथा उपार्जित सम्पदा का, मिल बाँटकर उपभोग करते हैं।

इन उदाहरणों से एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि कर्मठता संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। उसका उपयोग जहाँ भी जिस मात्रा में हो रहा होगा वहाँ पग-पग पर सफलता मिलेगी। समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी की कमी पड़ने पर ही अवगति की लानत सहन करनी पड़ती है। इसी कारण व्यक्ति पिछड़े रहते हैं और देशों को अवगतिजन्य कष्ट सहने पड़ते हैं। राष्ट्रों सम्बन्धी ये सभी तथ्य मानव पर उसके एकाकी जीवन में भी लागू होते हैं। जो इन सिद्धान्तों का परिपालन करता है, वह उतना ही आगे बढ़ता है अपने समाज परिकर के विकास में सहायक सिद्ध होता है।


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