प्रकृति की छेड़ छाड़- अवाँछनीय-अहितकर

March 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विज्ञजनों ने ज्योतिर्विज्ञान को “साइन्स ऑफ रेडियेशन” नाम दिया है। यह विज्ञान ब्रह्माण्डीय, अर्न्तब्रह्माण्डीय, चराचर सृष्टि एवं मनुष्य जीवन के हर पक्ष पर प्रकाश डालता है। जीव कोश के पिण्ड से लेकर तारा ब्रह्माण्ड तक के विशाल परिवार में चल रहे आदान-प्रदान को इस आधार पर समझने में बहुत सहायता मिलने की सम्भावना है।

प्रसिद्ध मनोविज्ञानी कार्ल जुंग ने अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए लिखा है उनने कितनी ही अनसुलझी पहेलियों को एस्ट्रोलॉजिकल डैटा के आधार पर सुलझाया है। वे गुत्थियाँ अन्य किसी प्रकार सुलझने में आ नहीं रही थीं।

साइबेरिया के तुगुस्का क्षेत्र में सन् 1908 में कोई वस्तु पृथ्वी से टकराई थी और उसने 500 मील क्षेत्र में भारी विनाश प्रस्तुत किया था। घटना के बाद कारण खोजने के लिए विशेषज्ञों के दल वहाँ जाते रहे हैं पर अभी तक उल्कापात का कोई चिन्ह वहाँ देख नहीं सके हैं जबकि छोटे-बड़े सभी उल्कापातों के ढेरों अवशेष टकराने वाले स्थान पर मिल जाते हैं। घटना को 75 वर्ष हो गये फिर भी उसका रहस्य अभी भी यथास्थान बना हुआ है और शोधकर्ता अभी भी उतनी ही तत्परता के साथ रहस्य खोजने में लगे हुए हैं।

अब इस सन्दर्भ में प्रति पदार्थ का कोई घटक धरती का कवच बेधकर भीतर आ घुसने की बात कही जाने लगी है। अब उस अनुमान ने मान्यता प्राप्त कर ली है कि विराट के गर्भ में ऐन्टी एटम, ऐन्टीमैटर, ऐन्टी युनिवर्स का भी अस्तित्व है और दूर होते हुए भी निकट है। विश्व और प्रति विश्व के बीच जब तक सन्तुलन बना हुआ है, मध्यवर्ती दीवार का प्रतिबन्ध बना हुआ है तभी तक सब कुछ ठीक है। अन्यथा आक्रमण के लिए कोई छेद खुला तो महाविनाश का दृश्य उपस्थित होगा। और यह समूचा ब्रह्माण्ड वैसा न रहेगा जैसा कि अब है। तुगुस्का दुर्घटना के सम्बन्ध में प्रति पदार्थ का कोई ढेला पृथ्वी से टकराने का अनुमान यदि सही हो तो आशंका बनती है कि भूत ने घर देख लिया तो फिर वह उसको आगे-आगे भी प्रवेश पाने का क्रम बना सकता है।

पृथ्वी का कवच ऐसा ही है जो न केवल उल्का पिण्डों से वरन् अन्तर्ग्रही रेडियो बौछारों से भी धरातल को बनाये रहता है। इस कवच में कहीं छोटा छेद हो जाने पर भी ऐसी आशंका है उसमें होकर धरती पर कोई विघातक तत्व आ सकते हैं और वर्तमान वातावरण में विघातक परिवर्तन कर सकते हैं।

उल्कापातों अन्तर्ग्रही प्रभावों का धरती की ओर उन्मुख होना एक बुरी सम्भावना है। सूर्य के धब्बे- उसमें उठने वाली लपटों के चुम्बकीय प्रभाव, सौर मण्डल के ग्रह गोलकों का बार-बार बिगड़ने वाला असन्तुलन कहीं पृथ्वी के रक्षा कवच को क्षत-विक्षत न कर दे ऐसी आशंका बनती है।

ध्रुवीय बर्फ पिघलने का क्रम इन दिनों बढ़ गया है। इस कारण उस क्षेत्र की हवा अधिक ठण्डी होती जा रही है और जब वह दक्षिण की ओर चलती है तो वहाँ की हवा का भी तापमान गिरा देती है।

अब मौसम सर्वथा प्रकृति चक्र पर अवलम्बित नहीं रहा। मनुष्य ने उसमें असाधारण हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया है। ईंधन का अत्यधिक उपयोग होने लगा है। बढ़ते प्रदूषण और विकिरण ने भी कम गड़बड़ी उत्पन्न नहीं की है। फलतः वायुमण्डल में कार्बनडाइ आक्साइड की मात्रा असाधारण रूप से बढ़ गई है। इस बढ़ी गर्मी ने ध्रुवों के पिघलने की गति बढ़ाई और उसने हवा में ठण्डक अनुपात बढ़ा दिया। कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा पृथ्वी पर आने वाली सूर्य किरणों को भी रोकती है और कोढ़ में खाज का उदाहरण बनती है।

यह सब कारण मिलकर बताते हैं कि हम सुहावने मौसम का एक चक्र पूरा कर चुके और इस दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं जिसमें ठण्डक की बहुलता रहेगी। मौसम विशेषज्ञों ने पिछले पाँच लाख वर्ष की स्थिति का पर्यवेक्षण करते हुए कहा है कि ऐसा सन्तुलित और सुहावना मौसम मात्र दस हजार वर्ष ही रहा है। पहले तो बार-बार उलट-पुलट होती रही है। अच्छे दस हजार वर्ष गुजार लेने के उपरान्त फिर इस भूलोक को असन्तुलित परिस्थितियों में से गुजरना पड़ सकता है। हो सकता है वे परिस्थितियाँ छोटे-बड़े हिमयुग जैसी भयावह और कष्टकारक हों।

इन दिनों पृथ्वी पर बृहस्पति का प्रभाव भी अत्यधिक है। इस प्रभाव के स्वरूप और प्रभाव पर प्रकाश डालने वाली पुस्तक “जुपीटर इफेक्ट” में बहुत कुछ लिखा गया है। यों यह बात 2 वर्ष पूर्व घट चुकी लेकिन लेखक द्वय डॉ. जान रिविन और डॉ. स्ट्रीफेट के अनुसार इसकी परिणति जलवायु की विषमता के रूप में दृष्टिगोचर होगी। सर्दी-गर्मी का सन्तुलन बिगड़ेगा और घनी आबादी वाले क्षेत्रों में भूकम्प आते रहेंगे। इस पुस्तक को विवादास्पद मानकर कईयों ने अनावश्यक रूप से डराने पर कड़ी समीक्षा की है। तथापि परिणतियाँ वैसी ही नजर आ रही हैं।

बृहस्पति पृथ्वी से 300 गुना अधिक भारी है। उसका व्यास 11 गुना है एवं गुरुत्वाकर्षण ढाई गुना अधिक है। यूनानी साहित्य में तो उसे आकाश का राजा कहा गया है। सौर मण्डल में उसकी विशेष स्थिति है। पुच्छल तारों को विशेष रूप से खींचकर चंगुल में जकड़ता रहता है।

गुरु और शनि जब एक सीध में आ जाते हैं तो उनमें मध्य चुम्बकीय आदान-प्रदान बढ़ जाता है। जिन दिनों बृहस्पति सूर्य की सीध में होता है उन दिनों उसके धूलि कण पृथ्वी के वातावरण में अधिक मात्रा में प्रवेश करते हैं। फलतः उस अनभ्यस्त धूलि के उदरस्थ करते समय पृथ्वी को मितली जैसी आने लगती है और कई प्रकार की प्रतिकूल विपन्नताएँ उत्पन्न होती हैं।

16 सितम्बर 1978 में रूस ने हाइड्रोजन बम का भूमिगत परीक्षण किया था। उसके 36 घण्टे के भीतर ही ईरान में इतना भयानक भूकम्प आया जिसमें पच्चीस हजार मरे और सम्पदा की अपार हानि हुई। संगति बिठाने वाले दोनों घटनाओं के बीच कड़ी जोड़ते हैं और कहते हैं कि दोनों स्थानों में मीलों की दूरी होते हुए भी भीतरी परतों में कोई ऐसी नाली हो सकती है जो एक स्थान का प्रभाव दूसरे स्थान तक पहुँचाये।

मनुष्य द्वारा प्रकृति की छेड़छाड़ अब इतनी अधिक बढ़ गई कि मौसम से लेकर वातावरण तक में संकट भरी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। ऐसे अवसरों पर प्रकृति क्षेत्र में चलते रहने वाले अनिष्टों को अधिक खुलकर खेलने का अवसर मिलता है।

प्रदूषण के साथ-साथ वातावरण का तापमान बढ़ता रहा है। ध्रुवों पर जमी बर्फ पिघलने और समुद्र की सतह ऊँची उठने से जल प्रलय की आशंका की जा रही है। हिमयुग की पुनरावृत्ति होने की सम्भावना भी कम नहीं है।

ऐसे ही अनेक कारण एक साथ मिलते जा रहे हैं और उनमें से किसी एक का भी दाँव चल जाने से ऐसा संकट खड़ा हो सकता है जैसा कि पूर्ववर्ती भविष्य वक्ताओं ने निरूपित किया है।

परिस्थितियों की विपन्नता को देखते हुए हमारे लिए उचित है कि प्रकृति के साथ अधिक छेड़खानी करना बन्द कर दें। पृथ्वी को बहुत न खोदें। आकाश में अवाँछनीय कचरा न फेंके। अपने हिस्से की सावधानी बरतने पर भी संकट की सम्भावना टलने में सहायता मिलती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118