मिश्र में बने पिरामिडों के सम्बन्ध में अनेकों जन श्रुतियाँ प्रचलित हैं। इन कथा किंवदन्तियों में उनके अलौकिक चमत्कारी प्रभावों का वर्णन है। उनमें से एक यह भी है कि लोकान्तर वासी देव मानवों ने इन्हें अपने आवागमन के लिए डाक बंगले की तरह बनाया। अपने लोकों के वे जिस वातावरण के अभ्यस्त हैं तथा जिन ऊर्जा तरंगों के सहारे अपना काम चलाते हैं उनका उत्पादन धरती पर भी करने के लिए इन्हें एक प्रयोगशाला के रूप में बनाया गया है।
साधारणतया ऐसी मान्यताओं को अन्धविश्वास कहा और उपहास भी उड़ा दिया जाता है। पर खोजबीन की गहराई में उतरने पर ऐसी अनेकों विशेषताएँ पाई गई हैं जो बताती हैं कि इनके निर्माणों में ऐसी वस्तु कला एवं भौतिकी का प्रयोग हुआ है जिसका धरातल पर विकसित विज्ञान का कोई सुराग नहीं मिला है।
विज्ञान की अनेक धाराओं की तरह अब ‘पिरामडोलॉजी’ को स्वतंत्र विषय माना जाने लगा है और उन इमारतों में सन्निहित रहस्यों पर से पर्दा उठाने का मूर्धन्य वैज्ञानिकों द्वारा प्रयत्न किया जा रहा है। इस शोध में इमारत निर्माण की विधा, शवों को सुरक्षित रखने के मसाले और सामान्य विषयों का ही समावेश नहीं है वरन् यह ढूँढ़-खोज भी शामिल है कि सामान्य नियमों से विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ इनके भीतर क्यों पाई जाती हैं?
इन शोध प्रयोगों में लगे हुए को वरिष्ठ विज्ञानियों ने संग्रहित जानकारियों का कुछ अंश प्रकाशित किया है, इनसे कोई प्रत्यक्ष समाधान तो नहीं मिलता पर इस अभिमत की पुष्टि अवश्य होती है कि यह निर्माण किन्हीं ऐसे विज्ञान विशेषज्ञों द्वारा हुआ है जैसे कि अभी तक विज्ञान इतिहास में कभी भी नहीं जाने गये। इन दो वैज्ञानिकों के नाम हैं- विलसुल और एड पेटिट। इनके द्वारा प्रस्तुत की गई सामग्री में ऐसी ही विलक्षणताओं का उल्लेख है।
पिरामिडों के भीतर धातुओं के सिक्के या बर्तन रखने से उन पर अपने आप पालिश करने जैसी चमक आ जाती है। प्रदूषण से प्रभावित वस्तुएँ रख देने पर उनका विष स्वमेव समाप्त हो जाता है। दूध रख देने पर बहुत समय तक ताजा बना रहता है फटता नहीं। फूल रख देने पर कुछ समय बाद उसका पानी तो सूख जाता है पर मुलायमी एवं सुन्दरता में कोई अन्तर नहीं आता। छाले, जख्म आदि अपेक्षाकृत जल्दी अच्छे हो जाते हैं। बीमारियों का दर्द भीतर घुसते ही बंद हो जाता है। बन्द जगह में आमतौर से जो पौधे मर जाते हैं वे भी भीतर हरे बने रहते हैं। खाद्य पदार्थ बहुत समय तक रखे रहने पर भी खराब नहीं होते। तनावग्रस्त-अशान्त व्यक्तियों को भी उनमें भीतर प्रवेश करने पर राहत मिलती है।
यह सब क्या होता है? ऐसी क्या विशेषता है? जिनके कारण वह विचित्रतायें दृष्टिगोचर होती हैं। उसका समाधान उनमें भीतर किन्हीं विशेष स्तर की ऊर्जा तरंगों के साथ जोड़ा गया है। जो इनके भीतर हो सकती हैं किन्तु उनका स्तर, स्वरूप एवं प्रभाव कभी भी नहीं जाना जा सका है।
भवन निर्माण कला की दृष्टि से भी इनमें प्रयुक्त हुई विधा, आज के विशेषज्ञ की समझ के बाहर है। इनमें एक-दो टन से लेकर सत्तर टन तक की भारी चट्टानें लगी हैं। वे जितनी ऊँचाई तक लगाई गयी हैं जिस प्रकार सही कोण से लगाई गयी हैं। उन्हें आज के विकसित साधनों से भी कर सकना सम्भव नहीं। मनुष्य बेचारा तो इतना पराक्रम कैसे करेगा? विशालकाय क्रेनों से भी ऐसा करने में सम्भव नहीं। इस सन्दर्भ में एक प्रयोग हो भी चुका है। आश्वासन दिलाने वाले इंजीनियरों ने दो छोटे पिरामिडों का दूसरे स्थान पर स्थानान्तरण करने का प्रयत्न किया था। टुकड़ों में उधेड़ना और भेजना भी जब किसी प्रकार सम्भव न हो सका तब वह विचार छोड़ देना पड़ा।
पिरामिडों की संरचना सही उत्तर-दक्षिण की जानकारी के आधार पर बनी है जिससे पृथ्वी के ध्रुवीय प्रवाह का आवागमन ठीक प्रकार होता है। अंतर्ग्रहीय कास्मिक किरणों को आकर्षित करने के लिये इनमें विशेष प्रकार के पत्थर लगे हैं जो ग्रेनाइट पत्थर इनमें स्टोरेज बैटरी जैसी विलक्षणतायें पायी गयी हैं। भीतर निर्माण इन्हीं विशेष पाषाणों से हुआ है। मात्र बाहरी घेरा ही चूने से बनाया गया है। सम्भवतः यह भीतरी भण्डार को सुरक्षित रखने के लिए किलेबन्दी के रूप में किया गया है।
गीजा के बड़े पिरामिड के भीतर बनी हुई सुरंगों में कुछ विशेष कोण और छेद हैं जो ऊपर आसमान की स्थिती देखने के लिए दूरबीनों का काम करते हैं। इसे बेधशाला स्तर की विशेषता माना जाता है। न केवल ग्रह नक्षत्रों की गति जानने के लिये वरन् उनकी विशेष किरणें आकर्षित करने के लिए प्रतीत होती है। इन पिरामिडों में ध्वनि करने से न केवल देर तक गूँजती रहती हैं वरन् उपस्थित लोगों के शरीरों में एक प्रकार की झनझनाहट भी उत्पन्न करती है, ऐसा अन्यत्र नहीं होता। इससे प्रतीत होता है कि इनके भीतर किसी विलक्षण ऊर्जा तरंगों का वातावरण है। ऐसा वातावरण बनाने की किन्हीं को क्या आवश्यकता पड़ी फिर इसके लिए ऐसा विकसित विज्ञान किस प्रकार प्रयुक्त हुआ जो इन दिनों विकसित विज्ञान की पकड़ से सर्वथा बाहर है।
इन प्रश्नों का सहज उत्तर अब कहीं से नहीं मिलता तो यह सोचने से कुछ समाधान मिलता है कि हो सकता है कि पुरातन काल में अन्यलोकवासी अपने ठहरने और कार्य करने के लिए कोई धर्मशाला बना रहे हैं और उसके लिए यह पिरामिड स्तर की संरचना अपने विशिष्ट ज्ञान के अनुरूप बनाकर चले गये हैं।
जिनके साथ उनने सम्पर्क साधा हो और आदान-प्रदान का सहयोग चलाया हो पुनः सम्भव है। वे आश्वासन दे गये हों कि जब दुबारा वापस लौटेंगे तब उन्हें पुनर्जीवित करके आगे की योजना चलायेंगे। इसलिये जब वे मरे तब अपने शरीरों को सुरक्षित रखने का प्रबन्ध कर दें। पिरामिडों पर चढ़े हुए मसाले भी इस सन्दर्भ में एक रहस्य है वैसे रसायन अभी भी मनुष्य के द्वारा बन नहीं पा रहे हैं मिस्र के पिरामिडों की नकल पर दक्षिण अमेरिका, चीन, साइबेरिया, मैक्सिको, कम्बोडिया, फ्रांस, इंग्लैण्ड में भी कुछ जरा-जीर्ण खण्डहर पाये गये हैं। उनमें मिस्र के तीन प्रमुख पिरामिडों जैसी विशेषता तो नहीं हैं फिर भी वे आज के वस्तुकला विशेषज्ञों को चुनौती देते हैं कि उस स्तर के निर्माण कर दिखाये। लगता है कि उनकी संरचना अपेक्षाकृत कम विकसित लोकवासियों ने की है। यह भी हो सकता है कि इन दिनों के क्रिया कुशल लोगों ने नकल करने में अपनी अकल दौड़ाई हो और आँशिक सफलता पाई हो।
अपनी धरती पर ईश्वरीय अनुदानों की अनुकम्पा तो रही है पर उसे इस स्थिति में पहुँचाने और साधारण से मनुष्य प्राणी का स्तर आश्चर्य जनक ऊँचाई तक पहुँचाने में कुछ उत्कृष्ट स्तर के महामानवों का भी हाथ रहा है। वे अन्य लोक से आये या इसी धरती पर जन्मे यह विवाद का विषय भी हो सकता है पर इतना असंदिग्ध है कि अपने भूलोक के मनुष्य को विकसित करने में किन्हीं विशिष्ट स्तर की आत्माओं का हाथ अवश्य रहा है।