प्रौढ़ावस्था- प्रगति एवं परिपक्वता की अवधि

March 1984

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उठते यौवन का उत्साह और सौन्दर्य विदित है। उसमें मस्ती भी रहती है। इतने पर भी अनुभव और व्यक्तित्व विकसित न हो पाने के कारण उनके ऐसे सुनिश्चित कदम नहीं उठते जो कठिनाइयों का घना रास्ता पार करते हुए भी लम्बी मंजिल तक विश्वासपूर्वक पहुँच सके। प्रौढ़ावस्था प्रकारान्तर से परिपक्वता की स्थिति में है जिसमें अधिक जानकारी और अधिक जिम्मेदारी जुड़ी रहती है। आत्म विश्वास और व्यवहार कौशल भी तब तक बहुत बढ़ चुका होता है। ऐसी दशा में बड़े वजन उठाने और बड़े लाभ अर्जित करने की सम्भावना भी अधिक रहती है। प्रौढ़ता को दृढ़ता और परिपक्वता का पर्याय माना जाता है। यह मान्यता बहुत हद तक सच भी है। यौवन का अल्हणपन और आकर्षण अपनी जगह पर ठीक है। पर जहाँ तक समर्थता का सम्बन्ध है वह अधेड़ स्थिति की तुलना में हलका ही पड़ता है। यही कारण है कि महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपते समय प्रौढ़ता का भी ध्यान रखा जाता है।

इतना होते हुए भी देखा जाता है कि प्रौढ़ आयु के लोग वृद्धावस्था की ओर तेजी से दौड़ते हुए पाये गये हैं। आधी उम्र होने से पूर्व ही लोग वृद्धों जैसे दीखने लगते हैं। शारीरिक सुन्दरता और बलिष्ठता गँवा बैठते हैं। बूढ़ों जैसी बोली बोलते और निराशा असमर्थता जैसी बातें करते सुने जाते हैं। उसका कारण एक ही है कि प्रौढ़ावस्था के लिए जो संचय करना चाहिए था उसकी उपेक्षा की होती है। क्षमता का असमय अनावश्यक अपव्यय करके अपने को छूँछ बना लिया होता है। ऐसे ही लोग रोगों से संत्रस्त और दुर्बलता से ग्रसित दृष्टिगोचर होते हैं। लगता है असमय में ही जीवन अध्याय पूरा किया जा रहा है।

“दी साइकालॉजी आफ ह्यूमन एजिन्ग” के लेखक डी. वी. व्रायले ने अग्रिम चौथाई शताब्दी तक और जी लेने के लिए पुरुषों के जीवन का मध्य काल 45 से 50 तथा महिलाओं के लिए 50-55 की अवस्था को माना है जबकि बाइबिल 34 वर्ष को ही जीवन का मध्यकाल कहता है।” नवीनतम धारणा के अनुसार व्यक्ति तब तक मध्य जीवन के दहलीज तक नहीं पहुँचता जब तक वह अपने को अधेड़ न मान ले और यह 60 वर्ष तक पहुँच सकती है। हन्ट और हन्ट के शब्दों में “अधेड़ावस्था मृत्यु का लेबल नहीं है, यह जीवन का महत्वपूर्ण भाग है।” मात्र थोड़े ही अधेड़ जो बीमारियों से अक्षम होकर जीवन शैली बदलने को बाध्य होते हैं और भविष्य के प्रति शंकाशील रहते हैं, इस वर्ग वालों की जीवनचर्या व्यवस्थित सुस्थापित एवं परिपक्व पायी जाती है।

मेट्रोपोलिटन जीवन बीमा रिपोर्ट के अनुसार अवस्था वृद्धि के अनुपात से रोगवृद्धि नहीं बढ़ती। जहाँ 15-55 वर्षीय लोगों में पुरातन रोगियों की संख्या 40 प्रतिशत थी वहीं 45-64 वय वालों में 60 प्रतिशत ही हो पायी। 1976 के अमेरिकी शिक्षा-स्वास्थ्य-कल्याण विभागीय आख्यानुसार 45 या अधिक वर्षीय काले लोगों में रक्तचाप दोष जहाँ 50 प्रतिशत व्यक्तियों में पाया गया वहीं गोरों में मात्र 30 प्रतिशत ही रहा। अधेड़ अनेक सेक्स रोगों से पीड़ित होते हैं किन्तु ये रोग आँशिक काल वाले ही होते हैं। डी. वी. ब्रामली के अनुसार 45 या अधिक वय वाले काम पर से बीमारी के कारण ही हटते हैं। इस अवस्था वाले पुरुष स्वास्थ्य के प्रति विशेष जागरुक रहा करते हैं। स्त्रियाँ तो अपनी उपेक्षा करके पति के स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रखने की प्रवृत्ति रखती हैं। अपेक्षाकृत इस वय वालों में कम और महिलाओं में और भी कम आत्महत्या प्रवृत्ति पायी गयी।

जीवन सम्पदा के अपव्यय में आतुर लोग अपेक्षाकृत जल्दी अपनी क्षमता गँवा बैठते हैं और बुढ़ापे को असमय ही न्योन्त बुलाते हैं। जबकि सन्तोषी और धैर्यवान जो उपलब्ध है उसी का हँसते हँसाते खर्च करने की नीति अपनाकर लम्बे समय तक निरोग एवं सक्षम बने रहते हैं। अमेरिकी गोरों की तुलना में वहाँ बसने वाले काले लोग अधिक सुदृढ़ और दीर्घजीवी पाये जाते हैं। इसमें वंशानुक्रम नहीं उनका शान्त सुगम जीवन प्रवाह ही आधारभूत कारण है।

ई. बेलविन के अनुसार मध्य आयु वर्गीय लोगों को रेटिना तक प्रकाश पहुँचाने के लिए 33 प्रतिशत अधिक प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। पी.एस. टिमराज की पुस्तक “डिवलपमेटल फिजियोलाजी ऐन्ड एजिन्ग” में बताया गया है कि यद्यपि 20-40 वय में ही 10 प्रतिशत श्रवण शक्ति घट जाती है किन्तु अफ्रीकी लोगों में वातावरणीय प्रभाव के कारण लम्बी अवस्था तक श्रवण तन्त्र निष्प्रभावित रहते हैं। घ्राणेंद्रिय की बहुत सी घटी क्षमताओं का पुनः विकास मध्य आयु में हो जाना सरल होता है।

‘मिडिल एज’ के लेखक आर.एम.बेलविन ने दावा किया है कि 40-50 वर्षीय दक्ष कारीगरों की कार्यकुशलता जागरुकता के कारण अधिकाधिक उत्पादक रही है। मेकलार लैन्ड आदि ने बताया है कि ड्राइविंग जैसी जटिल तकनीकी कार्यकुशलता अधेड़ वय में पहले की अपेक्षा इसलिए विकसित हो पाती है कि वृद्धता के कारण जो क्षति होती है उससे अधिक लाभ अवस्थाजन्य अनुभवों के कारण जुटता जाता है।

“प्राइम टाइम” में एम.हन्ट और वी.हन्ट ने चिट्ठी की सार्टिग करने वालों का उदाहरण प्रस्तुत किया है। 45-44 वर्षीय लोगों ने 35-44 आयु वर्ग वालों से अच्छा धैर्यपूर्ण कार्य सम्पादित किये। अनुभव के कारण इस आयु वर्ग वालों ने शारीरिक अपंगता उन जटिल कार्यों में भी नहीं पाई जिसमें उचित निर्णय के अभाव में अनेकानेक नवयुवक अंग भंग कर डालते हैं।

कान्गाज तथा ब्रैडवे ने स्कूल जाने से पहले, माध्यमिक शालाओं, नवयुवकावस्था और अधेड़ावस्था में 48 व्यक्तियों के बुद्धिलब्धि लिये और सभी को विकासोन्मुख पाया। डी. पैपैलिया ने 30-64 वय वर्ग में संख्या स्मृति सम्बन्धी परीक्षा 1982 में किये। इसमें उच्च लब्ध्बांक 55-64 वर्षीय लोगों ने ही अर्जित किये। बेल्बी तथा पैपैलिया की नैतिकता सम्बन्धी प्रयोग में 35 से 49 वर्षीय लोगों के प्राप्तांक उच्च रहे।

कलात्मक प्रतिभावानों और कृत्यों की सूची में शिकागो के रोवुल हाउस की डिजाइनिन्ग करने वाले 40 वर्षीय फ्रैन्क लायड राइट से आरम्भ की जा सकती है। “अप्पालैशियन स्प्रिन्ग” का रचनाकार ऐरन कोप्लान 44 वर्ष का उन दिनों था। ‘मोना लिसा’ की पेन्टिन्ग 52 वर्ष की अवस्था में लीओनार्डो डा. बिन्की ने तथा गुएर्निका की 56 वर्षीय पिकासो ने की थी। मोसिआह की रचना हैन्डेल ने 57 की आयु में की थी।

‘20 से 80 वय वालों में विधायिका उत्पादकता’ में डब्लू.डेनिस ने पाया कि अधिकाधिक आउटपुट 40 या उसके अनन्तर वालों में होता है। “एज ऐण्ड एचीवमेंट” के लेखक एम.सी. लेहमन ने विभिन्न प्रकार की कलाओं में सर्वोत्कृष्टता विभिन्न वय वालों में पायी है।

“अर्ली ऐन्ड मिडिल एडल्टहुड” में एल.ट्राल ने पृष्ठ 39 पर इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि विधायक कार्य सब प्रकार के सञ्जीभूत विकासों के समुच्चय पर ही आश्रित होते हैं, जो जीवन के उत्तरार्द्ध वर्षों में ही हो पाते हैं।

बहुत से उच्चपदासीन अधिकारी, व्यापारी, सर्वोच्च शिक्षा सम्पन्न या अन्य लब्ध प्रतिष्ठ सज्जन वृन्द अधेड़ वय के ही होते हैं। हन्ट और हन्ट के अनुसार परम्परागत पुरातन समाजों में शक्ति सूत्र धारक सर्वाधिक वय प्राप्त ज्ञान वृद्धि ही होते थे किन्तु आधुनिक अनेकानेक समाज में शक्ति, धन और सम्मान मध्य वय वालों के हाथों में ही केन्द्रित है।

स्टेन्स तथा मैककुलो के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि तीस वर्षों से ऊपर वाले कर्मियों में 90 प्रतिशत लोग अपने कार्यों से सन्तुष्ट रहा करते हैं। यह प्रतिशतता आयु के साथ बड़ी पाई गई। “चेन्ज आफ इन्टरेस्ट विध एज” पुस्तक में ई.के.स्ट्रान्ग के उस प्रयोग का वर्णन है जो 40 वर्षीय आयु वर्ग पर थे। इन लोगों ने अपने कार्य में उतनी ही रुचि दिखाई जितनी नौकरी खोजते समय एक विद्यार्थी युवक दिखाता है। व्यवसाय बदलने तथा नये हस्तगत करने में भी उनके उत्साह चार्ल्स लकमैन की तरह आए दिन दिखाई पड़ते हैं जिन्होंने 40 वर्ष की अवस्था में लीवर ब्रदर्स के प्रेसीडेन्ट जैसा पद त्यागकर स्थापत्य कला की ओर रुझान बढ़ा। ली.बी. न्यूगार्टेन ने 40-50 वय वालों को खतरा उठाने में 50-60 वय वाले अन्तर्निरक्षण करने में, 60-70 वर्षीय वर्ग वालों में विश्व की जटिलता परखने में पटु पाया। 1967 के एक दूसरे प्रयोग में उन्होंने 40-60 वर्षीय 100 सफल व्यक्तियों को लिया और उन्हें एक ऐसे पुल की भाँति पाया जो किशोरावस्था को वृद्धावस्था से जोड़ता है। हन्ट और हन्ट ने इसमें निरीक्षण करने और सही अर्थ निकालने की, आत्म विश्वास की और परिस्थितियों से सामना करने की प्रचुर शक्ति बताई है।

न्यूगार्टेन और मूर ने बताया है कि आर्थिक रूप से पिछड़े लोग जल्द काम शुरू करते, शीघ्र शादी रचाते, जल्द बाप और दादा बन जाते हैं और ऐसे लोग अपने को शीघ्र ही अधेड़ मान बैठते हैं।

इरिकसन ने 40 से ऊपर वाली वय वालों को “संस्थापना और अगली पीढ़ी का नेतृत्व” वाला बताया है। ए.स्टोर की पुस्तक “अधेड़ अवस्था का नवीन जीवन” 35 वर्ष तक व्यक्ति की एक तमन्ना लगभग पूरी हो जाने और नये मंजिल नई समस्यायें गढ़ लेने का” रहस्योद्घाटन करती है। उसे “नवीन कठिनाइयों को खोजने तथा उन्हें परास्त किए बिना उसे चैन कहाँ?”

अत्याधुनिक खोजों में लेविन्सन तथा सहयोगियों की “दी साइकोलाजीकल डिवलपमेंट आफ मेन इन अर्ली एडल्टहुड ऐण्ड दी मिडिल ट्रैडिशन” के अनुसार “एक ने कितने इनाम पाये, महत्व नहीं रखता। महत्वपूर्ण है जीवन के ताने बानों से आत्मा का सामञ्जस्य स्थापन कितना हुआ।...... एक व्यक्ति अच्छा प्रकार से जीवनयापन करता हुआ आदर्शों तक पहुँचता है किन्तु उसे अपनी सफलता उथली एवं तिक्त प्रतीत होती है। “फायड तथा गान्धी जैसे लोगों ने जहाँ अधेड़ावस्था में अपने को बना लिया वहीं डाइलन टामस तथा स्काट फिजराल उतना नहीं बना पाए। बैइलैन्ट तथा मैकआर्थर के शब्दों में “चाहे मध्य जीवन कितना ही बिगड़ा हुआ, निराशामय एवं अशान्त क्यों न हो, प्रायः यह व्यक्ति के लिए नब्य जीवन की घोषणा किया करता है। “इतना ही नहीं इन विद्वानों ने अधेड़ अवस्था को द्वितीय किशोरावस्था” कहकर सम्बोधित किया है।

“ह्यूमन डिवलपमेंट” पुस्तक में इस तथ्य को सँवारा गया है कि आधी शताब्दी के लोग अपने पति अथवा पत्नी, बच्चे तथा स्वयं अपने से स्वीकृति प्राप्त करते हैं। जीवन की व्यापकता, अनन्तता देखकर वे सोचते हैं कि उनका जीवन कितना उपयोगी है और वे संसार को क्या उपहार दे सकते हैं।”

यौवन में अपनी तरह का आकर्षण तो है पर उसकी तुलना में प्रौढ़ावस्था भी किसी प्रकार भी हेटी नहीं पड़ती, उसमें परिपक्वता के लक्षण उभरते हैं और वे इतने समर्थ होते हैं कि व्यक्ति अधिक पराक्रम कर सके एवं अधिक सफल बन सके कठिनाई एक ही है कि असंयम अपनाकर प्रौढ़ता उत्पन्न होने से पहले ही उसे जर्जर बना दिया जाता है। ऐसा भी होता है कि कई व्यक्ति उन दिनों अधिक परिपक्वता के आधार पर बन पड़ने वाले पराक्रम की योजना बनाने की उपेक्षा वयोवृद्धों की बिरादरी में बैठने की उतावली करते हैं और मरने के दिन गिनने लगते हैं। समर्थ का सदुपयोग बन पड़े तो कहा जा सकता है कि प्रौढ़ावस्था मनुष्य के विकास एवं सौभाग्य का सर्वोत्तम काल है।


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