एक तपस्वी पेड़ के नीचे बैठे थे। ऊपर से चिड़िया ने बीट कर दी। तपस्वी ने क्रोध भरी आँखों से चिड़िया को देख तो वह जलकर नीचे गिर पड़ी। उन्हें अपनी सिद्धि का अहंकार हो गया और विभूति प्रदर्शन के लिए नगर की ओर चल दिये।
एक सद्गृहस्थ के दरवाजे पर भिक्षा के लिए पुकार लगाई। गृहिणी सास-ससुर की आवश्यक सेवा में संलग्न थी। भीतर से उसने उत्तर दिया- थोड़ी देर बिराजें। इस बहकावे पर उन्हें फिर गुस्सा आया और आँखें तरेरने लगे।
गृहिणी ने हँसते हुए कहा- महात्मा जी, बैठे जाइए। योगाभ्यास पूरा करने दीजिए। आँखें तरेरने से क्या लाभ? मैं चिड़िया थोड़े ही हूँ जिसे आप जला देंगे।
साधू स्तब्ध रह गये। इस महिला को वन में हुई इस घटना का पता कैसे लगा, जिसे मेरे अतिरिक्त और कोई जानता ही नहीं? मिलने पर पूछने की उत्सुकता से वे दरवाजे पर बैठ गये। थोड़ी देर में दरवाजा खुला और उन्हें भोजन मिल गया। जिज्ञासा का उत्तर देते हुए वह महिला बोली गृहस्थयोग भी एक साधना है। मैंने उसी में संलग्न रहकर कितनी ही सिद्धियाँ प्राप्त कर ली हैं जिसमें से एक दूर की घटनाओं को जान लेना भी है।
साधू इस प्रसंग पर अधिक वार्ता करना चाहते थे। अतः वह स्त्री इतना ही बोली- “मेरे गुरु के पास चले जायँ, वे विद्वान हैं। गुरु ब्रह्मावर्त में रहते हैं उनका नाम तुलाधार वैश्य है। दुकान करते हैं।
साधु चल दिये। पता लगाते हुए वे तुलाधार के पास पहुँचे। दुकानदार ने उन्हें काम करते ही प्रणाम किया। बिठाने की व्यवस्था कराई और कार्य के दौरान ही बोला जरा योगाभ्यास से निवृत्त होलूँ। आपके साथ चर्चा करूँगा। पहला काम अपनी साधना पूरी करना है। आप थोड़ा ठहरें।
सन्त के आश्चर्य का ठिकाना न रहा मेरे आने का कारण इसे कैसे विदित हो गया। वे बैठ गये। दुकान बंद करके तुलाधार बैठा और बिना पूछे ही अमुक स्त्री द्वारा यहाँ भेजे जाने, इससे पूर्व चिड़िया जलाने का विवरण भी बता दिया। साधु का आश्चर्य बढ़ता जा रहा था बिना पूछे ही तुलाधार ने जिज्ञासा का समाधान भी कर दिया। ईमानदारी से लोक-व्यवहार चलाना व्यवहार योग है।
सन्त कुछ और पूछना चाहते थे सो उन्हें अवसर दिये बिना ही तुलाधार ने कहा- मैं अनपढ़ हूँ। शास्त्रीय चर्चा सम्बन्धी दार्शनिक समाधान के लिए मेरे गुरु श्वेनाक चाण्डाल के पास जायें। वे काशी रहते हैं।
साधु को अपनी ओर से कुछ कहे बिना ही उत्तर मिलते ही गये। वे काशी चल दिये। गृहस्थ और व्यवहार योग के सम्बन्ध में उन्हें अधिक विस्तार से जानना जो था।
काशी प्रवेश से पूर्व ही एक व्यक्ति रास्ते में प्रतीक्षा करते हुए मिला। दण्डवत प्रणाम के उपरान्त उसने कहा- मैं ही श्वेनाक चाण्डाल हूँ। आपको मेरा घर ढूँढ़ने में कठिनाई होती तो अगवानी के लिए मैं ही चला आया आइये मेरे साथ चलें।
साधु आवक् थे। पीछे-पीछे चलते रहे। उन्हें गंगा घाट पर बिठा दिया। स्वयं नालियाँ टट्टियाँ साफ करने में लग गया। काम पूरा होने पर उन्हें अपने साथ घर ले गया। वहाँ जाते ही अन्धे मात-पिता को भोजन कराने में लग गया। निवृत्त होने पर कहा- “अपनी कर्म-योग साधना को प्रमुखता देने के कारण आपको प्रतीक्षा करनी पड़ी। इनके लिए क्षमा करें। आज आपकी जिज्ञासा का समाधान करता हूँ। सुने- “मात्र ध्यान योग हठयोग आदि की ही साधना नहीं करते, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ पूरा करते रहने का कर्मयोग भी उतना ही फलप्रद है।” तपस्वी का समाधान हुआ अहंकार और अज्ञान गला। कर्मयोग की महत्ता समझते हुए वे बिदा हो गये।