राजनीति पर धर्म की विजय

September 1970

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श्रावस्ती के महाअभिमानी शासनाध्यक्ष विडूडभ ने कपिलवस्तु पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। सैनिक तैयारियाँ पूर्ण हो गईं। यह समाचार सन्त महानाम ने सुना तो उनका कोमल अन्तःकरण मानव-जाति पर सम्भावित अत्याचार की आशंका से काँप उठा। वे मात्र श्रोता और दर्शक बनकर चुप रह जाने वाले व्यक्ति नहीं थे वरन् कैसी भी परिस्थितियों के विरुद्ध मोर्चा संभालने वाले शूरवीर योद्धा की तरह थे। समाचार पाते ही वे श्रावस्ती की ओर चल पड़े।

सम्राट को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा- स्वार्थ और राज्य-लिप्सा के कारण एक देश का दूसरे देश पर आक्रमण करना अन्याय और पाप है विडूडभ! तुम मेरे शिष्य हो, सो मैं तुम्हें आगाह करने आया हूँ। तुम इस जघन्य कर्म की इच्छा को त्याग दो। युद्ध से मानव जाति का कभी भी हित नहीं हुआ।

अभिमान उस चिकने घड़े के समान होता है, जिस पर उपदेश रूपी जल की एक बूँद भी तो नहीं टिक पाती। विडूडभ की दृष्टि में युद्ध, विजय, लूट-पाट के दृश्य घूम रहे थे, वह भला सन्त की सीधी, सच्ची, सरल वाणी से क्यों प्रभावित हो जाता। उसने महानाम की एक न सुनी और कपिलवस्तु पर चढ़ाई कर दी।

विचारों में डूबे सन्त महानाम अभी कुछ विचार कर ही रहे थे कि उन्हें एक ग्रामीण ने आकर सूचना दी- महात्मन्! विडूडभ ने कपिलवस्तु पर रक्त-रंजित आक्रमण कर दिया है। इधर कपिलवस्तु नरेश का पता नहीं है। सुना है वह अपनी रानियों समेत भाग गये हैं। सेनापति रहित सेना ने भी, सुना है आत्म-समर्पण कर दिया है। क्रूर विडूडभ ने सैनिकों को खुली छूट दे दी है- वे नगरवासियों को बुरी तरह लूट रहे हैं और निरीह स्त्री-बच्चों को भी काट-काटकर मौत के घाट उतार रहे हैं।

धिक्कार! सन्त के मुँह से यह शब्द पहली बार सुनने को मिल रहे थे- विडूडभ तो पापी है ही, जो उसने निरपराध कपिलवस्तु पर आक्रमण कर दिया। पर उससे भी भयानक पापी रहा इस देश का राजा, जिसने अत्याचार का सामना शक्ति से न कर, मृत्यु के भय से भाग जाना अच्छा समझा। युद्ध बुरा है, पर आततायी से युद्ध न करना उससे भी बुरा है। अब मैं जाता हूँ, देखता हूँ विडूडभ मेरी प्रजा पर कैसे अत्याचार करता है?

महानाम अगले क्षण विडूडभ के सैनिक शिविर में थे। उन्होंने विडूडभ से कहा- ‘राजन्, आपको स्मरण होगा, एक दिन गुरुकुल से विदा होते समय आपने मुझ से गुरुदक्षिणा माँगने को कहा था- और मैंने तब न माँग कर किसी उचित अवसर पर माँगने को कहा था। वह अवसर आज आ गया- मुझे तुमसे गुरु-दक्षिणा चाहिए और वह यह कि अब तुम निरीह प्रजा पर अत्याचार नहीं करोगे। अपने सैनिकों को आज्ञा देकर यह लूट-पाट बन्द करा दो। यही मेरी गुरु-दक्षिणा है।’

विडूडभ सोच में पड़ गया- फिर उसकी क्रूर निगाहों में एक नई चमक दिखाई दी। उसने कहा- ‘गुरुवर! मैं अपनी शर्त पालन करूंगा, पर सीधे नहीं। आप इस सरोवर में डुबकी लगायें- जितनी देर आप पानी के अन्दर रहेंगे, उतनी देर लूट-पाट और रक्तपात बन्द रहेगा तथा कपिलवस्तु की प्रजा के लिये यह छूट रहेगी कि वह उतनी देर में प्राण-रक्षा के लिये कहीं भी चली जाये।’

गहरे सन्तोष की मुद्रा में उन्होंने विडूडभ की आँखों में आँखें डालीं और बोले- ‘स्वीकार है।’ समाचार पाकर सारा नगर भागने की अपेक्षा तालाब के किनारे जुटने लगा। सन्त ने डुबकी लगाई- एक-दो-चार-आठ-सोलह पल, क्षण, घण्टे बीतते गये पर सन्त का शरीर बाहर नहीं आया। इस महान् त्याग के आगे विडूडभ का विद्रूप गलकर पानी-पानी हो गया। उसने रक्तपात बन्द करा दिया। तालाब खाली कराया गया तो विडूडभ ने पाया कि उन्होंने अपने आपको जल-स्तम्भ में लगी जंजीर से कसकर बाँध लिया और जल के भीतर ही अपने प्राण त्याग दिये।


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