एक अँग्रेज-आत्म तत्व की खोज में

September 1970

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सन 1942 की बात है कुमायूँ के राजा साहब ने पश्चिमी कमाँड के तत्कालीन सेनापति (जी. ओ. सी. एन. सी.) श्री एल. पी. फेरेल को वन-विहार के लिये आमन्त्रित किया। श्री फैरेल को ही आमन्त्रित करने का विशेष कारण यह भी था कि वह अँग्रेज होते हुये भी भारतीय धर्म दर्शन एवं संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित थे। कई योगियों के चमत्कार देखने का जब से उन्हें अवसर मिला था तब से तो वे पूर्ण शाकाहारी भी बन गये थे। आत्मा, परमात्मा की शोध और प्राप्ति की उनमें प्रबल जिज्ञासा जाग पड़ी थी यही कारण था कि उन्हें जब भी कभी हिमालय की ओर जाने का अवसर मिलता वे उससे चूकते नहीं वरन् बड़ी प्रसन्नता के साथ इस आशा से जाते थे कि कहीं किसी ओर ऐसे योग्य साधु के दर्शन हो जायें जो आत्मा के रहस्य खोल सके और उसकी प्राप्ति की कुंजी प्रदान कर सके तो अपना जीवन ही सार्थक हो जाये।

कुमायूँ की पहाड़ियों पर कई दिन घूमते, वन-श्री का अवलोकन करते हुये एक दिन श्री फैरेल राजा साहब और रानी साहब के साथ नैनीताल के पास एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ की फूलों की छटा देखते ही बनती थी। समय काफी हो चुका था यह स्थान भी बहुत रमणीक था सो उस दिन पड़ाव के लिये उसे ही चुन लिया गया। आज्ञा होते ही खेमे गाड़ दिये गये। थोड़ी देर पहले जो स्थान निविड़ एकान्त था अब उसी में सैंकड़ों तम्बू लग गये, सेवक, सेविकाओं की चहल-पहल और व्यस्तता दिखाई देने लगी।

रात के बारह बजे तक गपशप भोजन-पान चलता रहा। और इसके बाद फिर सन्नाटा छाने लगा। सब लोग अपने-अपने बिस्तरों पर चले गये और दिन भर के थके होने के कारण थोड़ी देर में सो गये।

नींद का पहला चरण पूरा ही हुआ था कि श्री फैरेल ने अनुभव किया कि उनकी चारपाई पर कोई है। नींद टूट गई। उन्होंने स्पष्ट सुना कोई उनका नाम लेकर कह रहा है- “मिस्टर फैरेल-जिस स्थान पर आपका यह तम्बू लगा है इसकी हमें पहले से ही आवश्यकता है तुम इस स्थान को खाली कर दो, मेरी बात तुम्हारी समझ में न आये तो सामने उत्तर-पश्चिम में जो पहाड़ी दिखाई दे रही है वहाँ आओ मैं तुम्हें सब समझा दूँगा।”

“पर आप हैं कौन-” यह कहते हुये फैरेल ने चारपाई से उठकर टार्च जलाया। सारा तम्बू प्रकाश से भर गया पर वहाँ कोई भी तो नहीं आया था। फैरेल महोदय बाहर आये पर वहाँ कोई भी तो नहीं आया था। किसी के पैरों के निशान भी तो नहीं थे जिससे पता चलता कि कोई वहाँ आया है। एक बार तो उन्हें कुछ भय सा लगा किन्तु दूसरे ही क्षण वे चुपचाप तम्बू में चले गये और पुनः सोने के लिये लेट गये। लेटते समय उन्होंने घड़ी देखी-रात के साढ़े तीन बजे थे।

बहुत प्रयत्न करने पर भी उन्हें नींद नहीं आ रही थी किसी तरह आँख मूँद लेते थे तभी फिर किसी के आने की सी आहट हुई। लेटे ही लेटे उन्होंने आँखें खोलीं और देखा कोई छाया-पुरुष सामने खड़ा है इस बार भी उसने वही शब्द कहे। फैरेल ने पहचान के लिये जैसे ही टार्च जलाई कि वहाँ न तो कोई छाया थी न आदमी वही एकान्त। सारे शरीर से पसीना फूट पड़ा। कई बार युद्ध में भयंकर रक्तपात देखकर भी न डरने वाला यह सेनाधिकारी भी एक बार अतीन्द्रिय सत्ता की कल्पना मात्र से सहम उठा। देह काँपने लगी, मुँह से एक शब्द फूटना भी आफत थी। चुपचाप आँखें ही मूँदते बनीं। फिर सवेरे तक न उनने आँखें खोली और न कुछ देखा या सुना पर एक विलक्षण आकर्षण उठ रहा था कि क्यों न उस पहाड़ी पर चलकर देखें बात क्या है? जूते, कपड़े पहनकर बाहर निकले देर से सोने के कारण अभी तक भी सब लोग सोये पड़े थे। श्री फैरेल बाहर निकले और चुपचाप उस पहाड़ी की ओर चल पड़े।

श्री फैरेल महोदय ने इस घटना का वृत्तांत बताते हुये स्वयं लिखा है- “जिस स्थान पर पहुँचने के लिये मुझे निर्देश दिया गया था वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बहुत दुर्गम, संकरा और भयावह था, मैं ऊपर चढ़ने के लिये बिलकुल समर्थ न था पर मैं निरन्तर अनुभव कर रहा था कि कोई व्यक्ति मेरे साथ-साथ रास्ता दिखाता चल रहा है। वही मुझे ऊपर चढ़ने की शक्ति दे रहा है। साढ़े तीन घण्टे के कड़े परिश्रम के बाद मैं ऊपर चढ़ पाया। हंफहंफी और पसीने के कारण दम फूल रहा था, आगे चलना कठिन दिखाई दे रहा था सो वहीं पड़े एक चौकोर पत्थर पर थोड़ा आराम करने की इच्छा से बैठ गया।”

अभी दो क्षण भी नहीं बीते थे कि ठीक उसी आवाज ने चौंकाया-मिस्टर फैरेल! अब तुम अपने जूते वहीं उतार दो और धीरे-धीरे उतर कर यहाँ मेरे पास आओ! इन शब्दों के साथ ही श्री फैरेल की दृष्टि उठी उन्होंने देखा एक अति जर्जर शरीर किन्तु मस्तिष्क से झर रही अपूर्व तेज राशि वाले साधु सामने खड़े हैं। मैं इनको जानता तो क्या इससे पहले कभी देखा भी नहीं यह मेरा नाम कैसे जान गये? वह यहीं थे तब बिलकुल इन्हीं के शरीर जैसी छाया रात मेरे तम्बू तक कैसे पहुँची? न कोई बेतार का तार न रेडियो माइक्रोफोन फिर इनकी हूबहू आवाज मेरे पास तक कैसे पहुँची? आदि कई प्रश्नों पर एक और प्रश्न चिन्ह लगाते हुये साधु ने कहा-तुम जो सोच रहे हो वह एकाएक समझने वाली बातें नहीं हैं, समझ सकते भी नहीं क्योंकि उसके लिये लम्बे समय तक साधना और योगाभ्यास करना पड़ता है, जीवन के सुख और इन्द्रियों के आकर्षण त्याग कर लम्बे समय तक तप करना पड़ता है वह न आपके लिये सम्भव है न आप जान सकते हैं आपको तो जिस काम के लिये बुलाया है उसी के लिये यहाँ आ जाइये।

फैरेल आश्चर्यचकित रह गये कि वह व्यक्ति मनुष्य है या देवता बातें मेरे मन में उठ रही हैं और जान यह रहे हैं मनुष्य भी क्या कोई पुस्तक हैं? इस तरह के विचित्र प्रश्न और चिन्तन करते हुए श्री फैरेल चलचित्र की छाया की तरह नीचे उतरने लगे और थोड़ी देर में ही वहाँ पर जा पहुँचे जहाँ साधु बैठे थे। वहाँ एक व्यक्ति के आराम करने भर की जगह और धूनी में जल रही आग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था वहाँ।

आगे की घटना श्री फैरेल लिखते हैं- “साधु ने अपने जर्जर हाथ मेरी पीठ पर फेरे और मैं चौंका-वृद्ध शरीर में यह क्या विद्युत की सी शक्ति-मेरा शरीर जो अभी-अभी थकान के मारे टूट रहा था फूल की तरह हलका जान पड़ा। श्रद्धावश मैं झुका और उनके चरण स्पर्श किये। साधु सैंकड़ों देखे थे पर अनुभव करता हूँ जिन साधु-सन्तों ने भारतीय दर्शन को प्रभावित किया और उसका सम्मान बढ़ाया है वे गली-गलियारों में घूमने और भीख माँगने वाले बाबा नहीं ऐसे एकान्त सेवी साधना निष्ठ साधु ही हैं। जो शरीर से 80-90 पौण्ड होकर भी शक्ति और सामर्थ्य में हजारों बमों की क्षमता से भी शक्तिशाली और ज्ञान-विज्ञान के भंडार होते हैं।”

साधु ने बताया- ‘वह’ स्थान जहाँ आपका तम्बू लगा है वहाँ पहुँचने के लिये मैंने एक युवक को प्रेरित किया है।


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