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September 1970

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मनुष्य को न तो अपने जीवन से ही प्रेम करना चाहिए और न सुखों से। अन्तःकरण की वाणी का आज्ञा पालन करना ही मनुष्य के लिए प्रेम करने की चीज है।

-लाला हरदयाल

विज्ञान कुछ सीमा तक ही मानव जाति के लिए उपयोगी हो सकता है। उससे आगे उसे तब तक नहीं बढ़ना चाहिए, जब तक आत्म-चेतना की प्रगति भी उसके समानान्तर नहीं हो जाती। विज्ञान आँशिक सत्य है- एक सीमा निर्धारित है उसके आगे विज्ञान की नहीं, विश्वास और श्रद्धा की आवश्यकता हो जाती है। पदार्थ परमाणुओं से बने हैं। परमाणु इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रॉन पॉजीट्रान और नाभि पिण्ड (न्यूक्लियस) से बने हैं- विज्ञान ने इतना बता दिया। उसने यह भी बता दिया कि परमाणु में अकूत शक्ति भण्डार छिपा है। इलेक्ट्रॉन चक्कर काटते हैं? शक्ति कहाँ से आई परमाणु में गति क्यों है? -विज्ञान इस सम्बन्ध में क्यों नहीं बताता? वह परमाणु का मानव जीवन से सम्बन्ध जोड़कर हमारे लिए कभी न समाप्त होने वाले आनन्द का दिग्दर्शन क्यों नहीं करता? जबकि हम जानते हैं कि आनन्द ही हमारे लिए अन्तिम सत्य है। वह क्यों नहीं मानवीय स्वभाव को भावनात्मक विकास की दिशा देता। उसे समझना चाहिए कि मनुष्य जब तक अपनी भावनाओं की गहराई में नहीं उतरता, तब तक वह वस्तुतः आनन्द की प्राप्ति नहीं कर सकता, क्योंकि आनन्द भी तो एक भावना ही है। इस दर्शन से विमुख होने वाला मनुष्य केवल विज्ञान से उसी प्रकार सन्तुष्ट नहीं हो सकता, जिस प्रकार भरपेट भोजन मिल जाने पर पानी न मिलने से सन्तोष नहीं मिलता, वरन् मृत्यु की विभीषिका और उठ खड़ी होती है।

विज्ञान जब तक हमें सही अर्थों में जीना नहीं सिखाता, तब तक उसकी अतुल प्रगति भी हमारे लिए व्यर्थ है। क्योंकि हम शरीर छोड़ सकते हैं पर इच्छाएं और आत्माभिमान नहीं छोड़ सकते।

व्यक्तिगत प्रेरणाएं (इन्डिविजुअल इनीशिएटिव) शिक्षा, न्याय या आदर्शवादी (आयडियोलोजीकल वारफेयर), आर्थिक दृढ़ता आदि का सम्बन्ध मानवीय व्यवहार की मूलभूत प्रकृति से है। इन समस्याओं को हम तब तक हल नहीं कर सकेंगे जब तक अपना लक्ष्य और दृष्टिकोण हमारे भीतर हमारी चेतना में है। विज्ञान की खोजें इसी दिशा में सार्थक और सफल हो सकती हैं। बाह्य प्रकृति की विस्तृत गवेषणा में तो वह आप ही आप भटकेगा और मानव जाति को भी भटकाता रहेगा।

यदि विज्ञान की वर्तमान यात्रा ऐसे ही चलती रही तो हमारे सोचने, बातचीत करने, विचार करने की, दिशां भी इतनी बाह्यमुखी हो जाएंगी कि हमें अपने व्यक्तिगत व्यवहार परिवार, बच्चे, समाज और संसार की आन्तरिक आवश्यकताओं का ध्यान ही नहीं रहेगा। चन्द्रमा पर पहुँच कर उतर जाने के बाद भी नील आर्मस्ट्राँग और एडविन ऐल्ड्रिन की मृत्यु होगी ही पर वे यह नहीं निश्चित कर पायेंगे कि हमें क्यों मरना चाहिए। मर जाने के लिए क्या हम पूरी तरह तैयार हैं। अथवा हमने जन्म और मृत्यु के रहस्य को भली प्रकार जान लिया है। यदि इतना और जान लेते, तब हमारी प्रगति की यह दिशां भी सार्थक हो जातीं और अपना जीवन भी। मानवीय स्वभाव की परितृप्ति हुए बिना कोई भी भौतिक प्रगति कल्याणकारक नहीं हो सकती।


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