प्रकृति के अनोखे योगी

September 1970

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पैस्फिक सागर में गोता लगाकर मोती ढूंढ़ने वालों को पता चला कि “स्टारफिश” (यह तारे की तरह चमकने वाली छोटी सी मछली होती हैं) ही अधिकाँश सीपियों को नष्ट कर डालती हैं अतएव वे मोती ढूंढ़ने से पहले इन स्टारफिशों को ही समूल नष्ट कर डालने के लिये जुट पड़े। उन्होंने इन्हें पकड़ पकड़ कर काटना शुरू कर दिया।

एक, दो, दस, पचास, सैंकड़ा, हजार-कितनी ही स्टारफिशें काट डाली गईं पर रावण के मायावी सिरों की भाँति वे कम न हुईं उलटे उनकी संख्या बढ़ती ही गई। अभी तक तो उनकी उपस्थिति ही चिन्ताजनक थी अब तो उनकी आश्चर्यजनक वृद्धि और भी कष्टदायक हो गई अन्त में यह जानने का फैसला किया गया कि आखिर यह, स्टारफिशों की वृद्धि का रहस्य क्या है?

सावधानी से देखने पर पता चला कि जो स्टारफिश काट डाले गये थे उनका प्रत्येक टुकड़ा स्टारफिश बन चुका था। अभी तक अमीबा, हाइड्रा जैसे एक कोशीय जीवों के बारे में ही यह था कि ये अपना “प्रोटोप्लाज्म” दो हिस्सों, दो से चार हिस्सों, चार से आठ हिस्सों में बाँटकर वंश वृद्धि करते जाते हैं पर अब इस बहुकोशीय जीव को काट देने पर भी जब एक स्वतन्त्र अस्तित्व पकड़ते देखा गया तो जीव शास्त्रियों का प्रकृति के इस विलक्षण रहस्य की ओर ध्यान आकर्षित होना स्वाभाविक ही था।

तब से निरन्तर शोध-कार्य चलता रहा। और देखा गया कि नेस सलामैसीना, आइस्टर, स्नेल (घोंघा) फ्रेश वाटर मसल (शम्बूक) साइलिस, चैटोगैस्टर, स्लग (मन्थर) पाइनोगोनाइड (समुद्री लकड़ी) आदि कृमियों में भी यह गुण होता है कि उनके शरीर का कोई अंग टूट जाने पर ही नहीं वरन् मार दिये जाने पर भी वह अंग या पूरा शरीर उसी प्रोटोप्लाज्म से फिर नया तैयार कर लेते हैं। केकड़ा तो इन सबमें विचित्र है। टैंक की सी आकृति वाले इस जीव की विशेषता यह है कि अपने किसी भी टूटे हुए अंग को तुरन्त तैयार कर लेने की प्रकृति दत्त सामर्थ्य रखता है।

यह तथ्य जहाँ इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि इच्छा शक्ति पदार्थ का बन्धन रहित उपयोग कर सकने में समर्थ है वहाँ इस बात को भी प्रमाणित कर रहे हैं कि आत्मचेतना एक शक्ति है और वह भौतिक शक्तियों से बिल्कुल भिन्न मरण-धर्म से विपरीत हैं। उस पर जरा मृत्यु आदि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आत्म तत्व भले ही वह किसी भी घृणित और तुच्छ से तुच्छ वासना एवं इच्छा शक्ति के रूप में क्यों न हो, इतना सशक्त है कि स्वेच्छा से न केवल अपने भीतर से उत्पादन की क्रिया आप ही करता रहता है वरन् अपने पूर्णतया मुर्दा शरीर को भी बार-बार जीवित और नया कर सकता है। इन महान् आश्चर्यों को देखकर ही लगता है भारतीय तत्व-दर्शियों ने सृष्टि विकास क्रम को ईश्वर इच्छा शक्ति पर आधारित माना। इसी आधार पर विकासवाद जैसा सिद्धान्त विखण्डित हो जाता है। जब प्रकृति के नन्हें-नन्हें जीवन, उत्पादन, उत्पत्ति और विकास की क्रिया में समर्थ होते हैं तो कोई एक ऐसा विज्ञान भी हो सकता है जब कोई एक स्वतन्त्र इच्छा शक्ति अपने आप पंच महाभूतों (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) के संयोग से अपने आपको प्रकट कर दे यों देखने में यह क्रिया बीज और वंशानुगत होती प्रतीत होती है।

हाइड्रा देखने में ऐसा लगता है जैसे एक स्थान पर फूल-पत्ते इकट्ठा हों। उनके अंग की कोई एक पंखुड़ी एक ओर बढ़ना प्रारम्भ होती है और स्वाभाविक वृद्धि से भी ज्यादा बढ़ जाती है। यह अधिक बढ़ा अंग अपने आपको मूल भाग से अलग कर लेता है और वह एक स्वतंत्र अस्तित्व बन जाता है। पैरामीशियम, यूग्लीना आदि एक कोशीय जीवों में प्रजनन का यही नियम है जो यह बताता है कि आत्म-सत्ता को एक सर्वांगपूर्ण शरीर यन्त्र के निर्माण के लिये करोड़ों वर्षों के विकास क्रम की आवश्यकता या प्रतिबन्ध नहीं है यदि उसे अपने लघुतम या परमाणविक स्वरूप का पूर्ण अन्तःज्ञान हो जाये तो वह कहीं भी कैसा भी रूप धारण करने में समर्थ हो सकता है। संभवतः अणिमा, लघिमा, गरिमा, महिमा यह सिद्धियाँ इसी तथ्य पर आधारित हैं। एक दिन, विज्ञान भी इस दिशा में सफल हो सकता है, वह स्थिति आ सकती है, जब सम्मोहन शक्ति के द्वारा रासायनिक ढंग से उत्पादित प्रोटोप्लाज्म में जीवन उत्पन्न किया जा सके। कैसा भी हो इस महान् उपलब्धि के लिये विज्ञान को पदार्थ तक ही सीमित न रहकर “भाव” को भी संयुक्त करना ही पड़ेगा जैसा कि भारतीय तत्व वेत्ताओं ने अब से हजारों वर्ष पूर्व कर लिया था।

स्टेन्टर अपने प्रोटोप्लाज्मा का 1/60 अंश बाहर कर देता है और उसी से एक नया स्टेन्टर तैयार कर देता हैं। प्लेनेरिया और हाइड्रा को नयी संतान पैदा करने के लिये अपने शरीर का कुल 1/300वाँ हिस्सा पर्याप्त है। इन सबसे आश्चर्य जनक तो रहा स्पंज-उसे काटा गया, पीसा गया और बारीक टुकड़ों में करके उसे छान भी लिया गया किन्तु जब उस छने हुये “बुरक” को पानी में डाला गया तो छोटे-छोटे कण इकट्ठे हुये और आपस में मिलने लगे। कुछ ही दिन में उसी चूरन का नया जीवित स्पंज तैयार मिल जायेगा। ऐसा क्यों होता है यह वैज्ञानिक नहीं जानते यह जानना तो भारतीय योगियों और तत्वदर्शियों के वश की ही बात थी। चेतना पर नियन्त्रण करके उन्होंने जाना था कि यह मन ही है जो अत्यधिक आसक्ति और मोह बंधनों के कारण शरीरों से बंधा रहता है।

योग वशिष्ठ में बताया हैं-

दुराशा क्षीर पानेन भोगानिलबलेन च।

आस्थादानेन चारेण चित्तहिर्याति प्रीनताम॥

आगमापायवपुषा विषवैषम्य शंसिना।

भोगाभोगेन भीमेन चेतोगच्छति पीनताम्॥

-5/50/62-63

अर्थात्- इच्छायें जब विकृत हो जाती हैं (दुराशा) तब भोग रूपी वायु के बल से आस्था रूपी आहार ग्रहण करने से चित्त मोटा होकर स्थूल रूप धारण कर लेता है। उत्पत्ति और नाश वाले शरीर से विष के समान दुःखद भोगों में आसक्ति हो जाने से चित्त स्थूल हो जाता है। भारतीय योगी कुछ चमत्कार दिखाते हैं वह मन की यही कारीगरी है जो छोटे-छोटे तुच्छ जीवों में मन में आसक्ति के रूप में प्रकट होती है और वे उस शरीर को छोड़ने की अपेक्षा उसी को नया कर बार-बार उसी में लिपटे रहते हैं। भारतीय योगियों ने यह कर्तव्य सिर्फ इसी सत्य के प्रतिपादन के लिये दिखाया वस्तुतः उनका लक्ष्य इससे भी ऊँचा पारमार्थिक-आत्मा या ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करना रहा है। हम उन यौगिक चमत्कारों की बात इन नन्हें-नन्हें जीवों पर अध्ययन करके ही मान सकते हैं पर जो आवश्यक और कठिन है वह है ब्रह्म प्राप्ति। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने चमत्कार को सदैव हेय और आत्मानुभूति को जीवन का लक्ष्य बताया है।


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