सिखाने-समझाने का नियम

September 1970

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गरुड़ ने अपने बच्चे को पीठ पर बैठाया और उसे अपने साथ दूसरे सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया। दिन भर दोनों दाना चुगते रहे, सायंकाल घर लौटे, तब भी गरुड़ ने अपने बच्चे का यातायात प्रयोजन साध दिया।

यह क्रम बहुत दिन चला। गरुड़ ने बहुतेरा कहा, पर बच्चे ने उड़ना न सीखा। उसकी धारणा थी- जब तक निःशुल्क साधन उपलब्ध हो, तब तक स्वयं श्रम क्यों किया जाये। गरुड़ बच्चे की इस दुर्बलता को बड़ी सतर्कता से देखता रहा।

एक दिन जब वह आकाश में उड़ रहा था, तब धीरे-से अपने पंख खींच लिये। बच्चा गिरने लगा, तब चेत आया-पंख फड़फड़ाये। गिरते-गिरते बचा। पर अब उसने उड़ना सीखने की आवश्यकता अनुभव कर ली।

सायंकाल बालक-गरुड़ ने माँ से कहा-माँ! आज पंख न फड़फड़ाये होते, तो पिताजी ने बीच में ही मार दिया होता।

मादा गरुड़ हंसी और बोली-बेटे! जो अपने आप नहीं सीखते, स्वावलम्बी नहीं बनते उन्हें सिखाने-समझाने का यही नियम है।


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