जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है वैसे ही इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच लेने पर मनुष्य की बुद्धि आत्मा में स्थिर हो जाती है।
-गीता
सत्य माने बैठा रहता है जबकि यह सारी ही अवस्थाएं माया और दुखपूर्ण होती हैं। जितनी ऊपर की अवस्थाएं हैं उतनी ही सुखद, शक्तिशाली और सिद्धियों से ओत-प्रोत हैं जबकि निम्नगामी अवस्थाएं तो उनके लिए दास, शोषण आदि की वस्तुएं ही रहती हैं। प्रकृति का यह सिद्धान्त भी अपने आप में अटल काम करता रहता है।
इन सातों अवस्थाओं में विद्यमान चेतना को ही स्वप्न जागर, संकट जागर, केवल जागर, चिर जागर, धन जागर, जागृत्स्वप्न और क्षीण जागर नाम से पुकारा जाता है। शरीर में यही अवस्थाएं सप्तधातुओं के रूप में विकसित होती हुईं शरीर में ही सम्पूर्ण लोक और ब्रह्माँड को अवस्थित करती है। इस सूक्ष्म विज्ञान को जो जान लेता है, वह कैसी भी स्थूल स्थिति में पड़ा हो, अपनी चेतना का ऊर्ध्व मुखी विकास करके श्रेष्ठ लोगों की सिद्धियाँ और आनन्द प्राप्त करता है।
अपनों से अपनी बात-