कठिनाइयों का मानव-जीवन में बड़ा महत्व है। यह बात सुनने में बड़ी अजीब सी लगती है, लेकिन है सत्य। कोई सोच सकता है कि जिन कठिनाइयों से कष्ट होता है, प्रगति में बाधा पड़ती है वे किसी के जीवन के लिये महत्वपूर्ण किस प्रकार हो सकती है? जीवन में महत्व तो सुविधा का होता है जिससे आराम मिलता है और प्रगति का लक्ष्य आसान होता है। यह विचार किसी हद तक सही होने पर भी अपूर्ण है। यदि कठिनाइयों के महत्व पर गहराई से विचार किया जाय तो पता चलेगा कि कठिनाइयाँ मानव जीवन की सार्थकता के लिये जरूरी हैं।
सोने के लिये आग का जो महत्व है, वही महत्व, मानव-जीवन के लिये कठिनाइयों का है। सोना जब आग में अच्छी तरह तप लेता है तभी वह पूरी तरह निखरता है और हर प्रकार से इस संसार में अपना उचित मूल्य पाता है। इसी प्रकार जब मनुष्य कठिनाइयों के बीच से गुजरता है तो उसकी बहुत सी कमियाँ और विकृतियाँ दूर हो जाती हैं। वह शुद्ध सोने जैसा खरा और मूल्यवान हो जाता है। जब तक मनुष्य पूरी तरह सुख-सुविधा में रहता है, तब तक एक प्रकार से उसकी आँख बन्द रहती हैं। अपनी मौज में वह जो चाहता है करता रहता है। इस प्रकार के अल्हड़ जीवन-यापन में मनुष्य में अनजान में ही अनेक दोष और विकार आ जाते हैं किन्तु उस सुख-सुविधा की स्थिति में उसे उनका पता नहीं चलता। अपने उन विकारों तथा दोषों का पता उसे तभी चलता है जब किसी कठिनाई के आने पर उसकी आँखें खुलती हैं।
यह मानव-स्वभाव की विचित्रता ही है कि वह सुख-सुविधा के समय तो असावधानी बरतता है किन्तु मुसीबत आने पर अधिक से अधिक सावधान शुभ तथा शुद्ध रहने का प्रयत्न करता है। बड़े-बड़े आस्तिक लोग भी संपत्ति की स्थिति में ईश्वर को भूले रहते हैं, उन्हें सुख के नशे में उसकी याद तक नहीं आती। पर जब कोई विपत्ति सिर पर आ जाती है तो वे बड़ी तत्परता से परमात्मा का स्मरण ही नहीं उसकी उपासना तक करने लगते हैं। इस विरोधी प्रतिक्रिया को देखते हुए यही मानना होगा कि वे कठिनाइयाँ वास्तव में बड़ी महत्वपूर्ण तथा उपयोगी हैं जो मनुष्य को शुद्ध-बुद्ध और आस्तिक बनने में सहायक होती हैं। पावनता मानवता की विशेष शोभा है, जिसकी प्राप्ति कठिनाइयों की प्रेरणा से ही होती है। यह बात मानव-जीवन में कठिनाइयों के महत्व का ही प्रतिपादन करती है।
किसी शास्त्र के लिये ‘शाण’ का जो महत्व है वही महत्व मानव-जीवन में कठिनाइयों का है। रक्खे अथवा पड़े रहने से हथियारों में जंग लग जाती है। उनकी धार उतर जाती है और वे कुन्द होकर बेकार हो जाते है। किन्तु जब वे शाण पर चढ़ा कर तराश दिये जाते हैं तो पुनः तीव्र, प्रखर, तथा शानदार होकर चमकने लगते हैं। उनका विकार दूर हो जाता है और वे शुद्ध तथा नए होकर उपयोगी बन जाते हैं। तब उनसे उनका काम बखूबी लिया जा सकता हैं। इसी प्रकार कठिनाइयों के चक्र पर चढ़कर उनसे रगड़ कर मनुष्य को सारी शक्तियाँ और सारे गुण प्रखर हो उठते हैं। उनमें नई धज और नई योग्यता आ जाती है। आराम का जीवन बिताते रहने पर शक्तियों में कुण्ठा आ जाती है । अप्रयुक्त होने से वे बेकार लगती हैं। पर जैसे ही कोई कठिनाई अथवा मुसीबत सामने आती है मनुष्य उससे बचने और छूटने के लिये सक्रिय हो उठता है, साथ ही उसकी शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक शक्तियाँ भी संघर्ष में पड़कर अपना योगदान करने लगती हैं। इस संघर्ष से उनकी सारी कुण्ठा और निरुपयोगिता समाप्त हो जाती है। मनुष्य हर ओर से नया और तरोताजा हो जाता है। कठिनाइयों के अवसर पर ही उसे अपनी शक्ति और गुणों का ठीक-ठीक पता चलता है। मानव-जीवन में शक्ति तथा गुणों की सक्रियता की जो महती आवश्यकता है उसकी पूर्ति कठिनाइयों द्वारा ही होती है।
मानव-मस्तिष्क की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि इससे ज्यों-ज्यों काम लिया जाता है यह त्यों-त्यों अधिक प्रौढ़, प्रबुद्ध तथा शक्तिशाली होता जाता है। इसके विपरीत ज्यों-ज्यों इसे आराम दिया जाता है त्यों-त्यों सुस्त और चेतनाहीन होता जाता है। सुख-सुविधा के समय तो मनुष्य निष्क्रिय होकर आलस्य में पड़ा रहता है। उसे प्रायः न किसी बात पर सोचने की जरूरत होती है और न मगज मारने की। ऐसी दशा में मस्तिष्क का सुस्त और कुण्ठित होना स्वाभाविक ही है। किन्तु कठिनाई तथा विपत्ति के अवसर पर स्थिति बिल्कुल भिन्न होती है। उस दशा में मुसीबत से बचने और कठिनाई को हल करने के लिये उसे बहुत कुछ सोचना, विचारना, योजना और कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं। मस्तिष्क को हर समय सक्रिय तथा कार्यरत रखना पड़ता है। इस बौद्धिक परिश्रम से उसका मस्तिष्क बड़ा ही विचारक, निर्णायक तथा विवेकवान बन जाता है। मानव-जाति के लिये जिस विवेकशील, विचारशीलता और निर्णय शक्ति की आवश्यकता होती है वह कठिनाइयों की कृपा से सहज ही पूरी होती रहती है।
किन्तु कठिनाइयों से यह सब लाभ होता उन्हीं लोगों को है जो उनका सहर्ष स्वागत करता है, डटकर उनसे लोहा लेता है जो और उन्हें परास्त करने में गौरव और पुरुषार्थ की सार्थकता समझता है। ऐसे धीर तथा बुद्धिमान व्यक्ति के लिये कठिनाइयाँ उसी प्रकार हितैषिनी होती हैं जिस प्रकार अखाड़े का वह गुरु जो अपने शिष्यों को रगड़-रगड़ कर मजबूत तथा पकड़ लड़ने में दक्ष बनाता है। कायर और भीरु व्यक्ति के लिये मुसीबत वास्तव में मुसीबत ही होती है। जो कठिनाई अथवा आपत्ति को देखकर भयभीत हो जाते हैं, जिनका मन मस्तिष्क निराशा से अंधेरा हो जाता है, कर्तव्य मूढ़ता से जिनके हाथ-पैर रुक जाते हैं, साहस और शक्ति जवाब दे जाती हैं, वे निश्चय ही उसके शिकार बनकर बरबाद हो जाते हैं। कायर मनुष्य को कठिनाइयाँ नहीं बल्कि उनके प्रति उसका भय ही उसे खा जाता है। जो कठिनाइयों से हार मान लेते हैं वे निश्चय ही जीवन का दाँव हार जाते हैं और जो उनकी चुनौती स्वीकार कर खम ठोंककर उद्यत हो जाते हैं वे उन्हें निश्चय ही परास्त कर देते हैं।
कठिनाइयों का वास्तविक स्वरूप क्या है इसकी व्याख्या दार्शनिक ‘चुर्निग तो हांग’ ने ठीक ही की है। वे लिखते हैं- ‘कठिनाई एक विशालकाय, भयंकर, आकृति के, किन्तु कागज के बने हुए शेर के समान होती है। जिसे दूर से देखने पर बड़ा डर लगता है, पर एक बार जो साहस करके उसके पास पहुँच जाता है, वह उसकी इस असलियत को जान लेता है कि वह केवल एक कागज का खिलौना मात्र ही है।”
कठिनाइयाँ वास्तव में कागज के शेर के समान ही होती हैं। वे दूर से देखने पर बड़ी ही डरावनी लगती हैं। उस भ्रम जन्य डर के कारण ही मनुष्य उन्हें देखकर भाग पड़ता है। पर जो एक बार साहस कर उनको उठाने के लिए तैयार हो जाता है वह इस सत्य को जान जाता है कि कठिनाइयाँ जीवन की सहज प्रक्रिया का अंग होने के सिवाय और कुछ नहीं होतीं। संसार में सम्पत्ति-विपत्ति, लाभ-हानि सुख-दुःख का जोड़ा दिन-रात की तरह एक दूसरे से बँधे घूमते रहते हैं। इस द्वन्द्व चक्र से संसार में कोई नहीं बच सकता। हम साधारण लोगों की बात ही क्या बड़े-बड़े महापुरुष भी कठिनाइयों और विपत्तियों से न बच सके! सर्व साधन सम्पन्न राम, कृष्ण, हरिश्चन्द्र, नल, पाण्डव, प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविन्दसिंह जैसे लोग तक विपत्ति के चक्र से नहीं बच सके, कठिनाइयाँ मानव-जीवन की सामान्य प्रक्रिया का ही एक अंग है। जो संसार में जन्मा है उसे कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ेगा। ऐसी अनिवार्य स्थिति से घबराना अथवा भयभीत होना बुद्धिमानी नहीं है। बुद्धिमानी है विपत्तियों तथा कठिनाइयों से लड़ने और उन पर विजय पाने में।
जो चेतन है विवेकवान और जीवन पूर्ण है वह मनुष्य जीवन और उन्नति करने के लिये अवश्य ही जिज्ञासा करता है। प्रायः सभी मनुष्य अपने को चेतन तथा जीवन्त मानते हैं और सभी जीवन में कुछ न कुछ उन्नति करने के लिए उत्सुक रहते हैं। लेकिन संसार में ऐसे मनुष्यों की संख्या अधिक नहीं होती जो किसी उल्लेखनीय शिखर पर पहुँचते हैं। ऐसा केवल इसलिए होता है कि सब मनुष्य समान रूप से न तो पुरुषार्थ करते हैं और न कठिनाइयों से टक्कर लेने का साहस रखते हैं। उन्नति का पथ सरल अथवा सुगम नहीं होता। उसमें पग-पग पर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है। श्रेय की प्राप्ति परिश्रम तथा संघर्ष द्वारा होती है। संसार का ऐसा कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं जो कठिनाई उठाए बिना ही पूर्ण हो जाए। जिसमें कठिनाई सहने और विपत्ति से लड़ने का साहस होता है वह ही सफलता के उन्नत शिखर पर पहुँच जाता है। जिन-जिन ने अपने जीवन में आपत्तियों का सामना किया है कठिनाइयों के बीच से अपना अभियान आगे बढ़ाया है वे ही महान बन सके और महापुरुष कहला सके!
महापुरुषत्व का प्रमाण इस बात में नहीं कि कोई किस ऊँचे स्थान पर पहुँच सका है। महापुरुषत्व का प्रमाण इस बात में है कि उस पर पहुँचने में किसने कितनी कठिनाई उठाई। कितनी आपत्तियों और प्रतिकूलताओं से संग्राम किया और उनको परास्त किया। जो पद अथवा प्रतिष्ठा जितनी आसानी से मिल जाती है वह उतनी ही सस्ती और कम महत्व की होती है। आज अमेरिका का प्रेसीडेण्ट कोई न कोई व्यक्ति हर पाँच साल बाद होता रहता है किन्तु उस सर्वोच्च पद पर हर व्यक्ति उतना महान नहीं समझा जा सकता जितने कि जार्ज वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन माने जायेंगे। आज सामान्यतः राष्ट्र के उस सर्वोच्च पद पर पहुँचने वाला व्यक्ति महत्वपूर्ण तो हो सकता है लेकिन महापुरुष नहीं। उस श्रेणी में महापुरुष जार्ज वाशिंगटन अथवा अब्राहम लिंकन ही माने जा सकते हैं। इस अन्तर का कारण केवल यही है कि जार्ज वाशिंगटन ने अपने पूरे जीवन को लगाकर और अपार संघर्ष करने के बाद अमेरिका का निर्माण तथा संचालन किया था। अब्राहम लिंकन और उस पद में जमीन आसमान का अन्तर था। तथापि सब साधन हीन एक लकड़हारे के बेटे लिंकन ने अपने पुरुषार्थ, अध्यवसाय तथा लगन के साथ ही असंख्य बाधाओं, विपत्तियों, असफलताओं, विरोधों, संकटों, और कठिनाइयों के बावजूद भी न हिम्मत हारी, न भय माना और न निराशा को पास आने दिया वे निरन्तर श्रेय पथ पर विरोध-बाधाओं से लड़ते हुए आगे बढ़ते गए और राष्ट्र के उस सर्वोच्च पद पर पहुँचे जो उनकी स्थिति को देखते हुए असम्भव कहा जा सकता था। महापुरुषत्व का मानदण्ड पद अथवा स्थिति नहीं है उसका मान दण्ड वह कठिनाई तथा विपत्ति है जो वहाँ तक पहुँचने में आई होती है। अपने श्रेय पथ पर जो जितना ही कष्ट-सहिष्णु और साहसी रहता है, जितनी अधिक कठिनाइयों सहन कर, सफलता पाता है वह उसी अनुपात से महापुरुष माना जाता है।
श्रेय पथ पर कठिनाइयों का आना बहुत जरूरी है। यदि उन्नति और प्रगति का पथ सरल हो श्रेय और लक्ष्य यों ही आसानी से मिल जाया करें तो उसका कोई महत्व ही न रह जाये। वह तो पकी पकाई रोटी खा लेने के समान ही सस्ता और सामान्य काम हो जाए। ऐसी सरल सफलता पान पर उसमें न तो आनन्द का लेना रह जाएगा और न वह आत्म-गौरव जो उस स्थिति में अपेक्षित हो जाता है। लक्ष्य का महत्व कठिनाइयों से और पुरुष का गौरव उनको पार कर लक्ष्य पाने में ही होता है।
कठिनाइयों का मानव-जीवन में बड़ा महत्व तथा उपयोग है। किसी को उनसे घबराना नहीं चाहिए! उन्हें कागज का शेर समझकर, टक्कर लेनी और विजय पाने के लिये प्रस्तुत रहना चाहिए। कठिनाइयाँ ही मानव को महामानव और पुरुष को महापुरुष बनाती हैं।