ईश्वर बोध की सर्व सुलभ साधना-प्रेम

September 1970

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“यह संसार नश्वर है महात्मन् ! मुझे तो इसमें कुछ भी सार नहीं दिखाई देता। अब तो बस ईश्वर को पाने की इच्छा है। आप मुझे दीक्षा देकर ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग दिखायें।” यह कहते हुए एक नवयुवक ने आचार्य रामानुज को प्रणाम किया और उनके समीप ही एक ओर बैठ गया।

आचार्य रामानुज ने सीधा-सा प्रश्न किया- ‘तुमने किसी को प्रेम किया है?’ युवक ने उत्तर दिया-’मेरा तो किसी से भी प्रेम नहीं है, मेरा तो संसार से कोई राग ही नहीं है। किससे प्रेम करूं, मैं तो भगवान को पाना चाहता हूँ।’

‘लेकिन तात !’ आचार्य रामानुज बड़ी मीठी वाणी में बोले- ‘भगवान को पाने की तो एक ही कसौटी है- प्रेम। जिसके हृदय में प्रेम नहीं, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। प्रेम यदि सांसारिक है, तो भी उसे शुद्ध किया जा सकता है। पर जिसने प्रेम की कसक अनुभव नहीं की, वह भला परमात्मा को कैसे प्राप्त कर सकता है ? सो मैं विवश हूँ, तुम्हें दीक्षा कैसे दे सकता हूँ ?’

आचार्य रामानुज जैसे महान् अध्यात्मवादी के मुख से प्रेम को परमेश्वर के समकक्ष ले जाना कोई आश्चर्य नहीं है। वस्तुतः संसार में यदि कुछ अपार्थिव है, तो वह ‘प्रेम’ ही है। यदि प्रेम काम में परिणत नहीं किया जाता, तो मनुष्य धरती पर रहते हुए भी अलौकिक सुख और ईश्वरत्व की अनुभूति कर सकता है, क्योंकि शुद्ध प्रेम ही तो परमेश्वर है।

‘मैं तो प्रेम दीवानी’-कहकर मीरा नाचती थी। वहाँ कोई शरीरधारी तो होता नहीं था, पर उस प्रेम की प्राण-सत्ता में ही उसे परमेश्वर की झाँकी मिलती थी। मीरा की सखियाँ पूछतीं- ‘मीरा ! तू बावरी हुई है। अपना सब कुछ छोड़कर भटक रही है। ऐसा निष्ठुर है तेरा भगवान कि वह तो कभी तेरे पास भी नहीं आता।’ सखी के इतना कहने पर मीरा नाराज होकर कहती- ‘सखी री मेरे संग-संग नाचै गोपाल।’ सखियाँ नहीं जानती थीं, पर मीरा जानती थी कि उस दिव्य प्रेम की डोर से ही वह उस अविनाशी सत्ता को बाँधे हुए है। भगवान उसके प्रेम में ही ओत-प्रोत उसके आस-पास चक्कर काटता था। मीरा जैसे नाचती थी, वह वैसे ही नाचता था।

संसार में प्रेम ही सच्चा अध्यात्म है। प्रेम ही अविनाशी है और प्रेम ही परमार्थ है। धन की आवश्यकता सांसारिक होती है, तो भी स्त्री, पुरुष, मित्र भी स्वार्थ, सहयोग और सेवा-प्राप्ति की अनेक कामनाओं से प्रेरित होकर बनाये जाते हैं। पर प्रेम में तो इन सब प्रतिबन्धों की अवहेलना है। संसार में एक ही तत्व है प्रेम, जिसकी पुष्टि और विकास के लिये मनुष्य देना सीखता है और कितना भी दे डालकर देते रहने की कामना रहता है। अपने लिये न चाह कर किसी और के लिये निरन्तर देते रहने में कितना सुख है, यह तो वही जानता है जो एक प्रेम की परितृप्ति के लिये स्वयं भिखारी और अनाथ तक हो जाने के लिये तैयार रहता है। भगवान को भी ऐसे ही पाया जाता है। सही बात तो यह है कि परमात्मा को प्राप्त करने की आकाङ्क्षा प्रेम सरोवर में सरावोर हो जाने की आकाङ्क्षा का पर्याय भर है।

प्रेम, प्रकृति को जीतने का एक वैज्ञानिक विधान है। महात्मा गाँधी कहा करते थे-जिस प्रकार एक वैज्ञानिक प्राकृतिक नियमों का विभिन्न प्रकार से उपयोग करके अनेक चमत्कार प्रस्तुत कर देता है। उसी प्रकार व्यक्ति प्रेम के सिद्धान्त की भी वैज्ञानिक विधि से प्रयोग की प्रणाली जान ले, तो वह वैज्ञानिक से भी अधिक चमत्कार पैदा कर सकता है। मेरी अपनी अहिंसा की शक्ति प्राकृतिक शक्तियों से कहीं बढ़-चढ़कर सूक्ष्म और कोमल है। प्रेम की भावना ही का तो विकास है। मैं इस सिद्धान्त की गहराई में जितना अधिक प्रवेश करता चला जाता हूँ, मुझे लगता है कि मेरे अन्दर उतनी शक्ति बढ़ती चली जाती है। मैं जीवन और सारे संसार की योजनाओं में उतना ही आह्लाद अनुभव करता हूँ। प्रेम के सिद्धान्त ने मुझे प्राकृतिक रहस्यों को समझने की शक्ति दी है, उससे मुझे अथक और अवर्णनीय शान्ति मिलती है।”

यह एक नया उदाहरण नहीं है। प्रेम के लिये तो प्रकृति का पत्ता-पत्ता प्यासा है। एक ओर अपूर्णता में अशान्ति, तो दूसरी ओर पूर्णता में शान्ति और स्वर्गीय सुख की अनुभूति-यह बताते हैं कि प्रेम में ही स्वर्ग और ईश्वर विराजते हैं। किसी को ईश्वर-प्राप्ति का उपाय खोजना हो, तो उसे एक बार अन्तःकरण में शुद्ध प्रेम जागृत करके देख लेना चाहिए।

भारतीय धर्म और संस्कृति या वेदान्त जिस अद्वैत धर्म का प्रतिपादन करता है, उसको समझने के लिये प्रेम से बढ़कर दूसरा साधन नहीं है। प्रेम अद्वैत का बोध कराता है। यह एक बलिदानी भाव है, उसमें आत्मोत्सर्ग का ही सुख है। किसी से प्रेम है- ऐसा मान लेने भर से तुष्टि तो नहीं हो जाती। उसे देखने से और बार-बार पास आने से सुख तो अपार मिलता है, पर कोई ऐसा सदैव तो नहीं कर सकता। भगवान के प्रेम की अभिव्यक्ति के लिये भी चन्दन, रोली, पुष्प, अर्घ्य, आचमन का दान देते हैं, तो अपने प्रेमास्पद के लिये भी तो उपहार जुटाने पड़ते हैं। बहुत करके भौतिक वस्तुएँ ही देने जाते हैं, तो उससे इस रस की अनुभूति होने लगती है। देने वाला यह नहीं देखता कि मेरा कुछ गया और पाने वाले को भी यह नहीं हुआ कि वह वस्तु उसे मिल ही जाती। आदान-प्रदान तो अभिव्यक्ति मात्र थे। सच बात तो यह है कि दोनों ही को अपने भीतर के उस रस के पोषण की चिन्ता थी, जो प्रेम के रूप में उदय हुआ। इसी का नाम तो अद्वैत है कि हम सब एक ही अनुभव करें। प्रेमी की सन्तुष्टि भी यही मिलन है, जो वस्तुओं का नहीं, शरीर का भी नहीं- प्रेम-प्रेम की भावना का एकाकार मात्र होना है।

मनुष्य-जीवन की महानतम कसौटी है-प्रेम। बुद्धि की सूक्ष्मता और हृदय की विशालता का परिचय प्राप्त करना हो, तो यह देखना पड़ता है कि व्यक्ति के हृदय में प्रेम की अकुलाहट के लिये भी कोई स्थान है। जिस हृदय में प्रेम का प्रकाश जगमगाता है, वह मनुष्य उत्कृष्ट होता है और उसे ही देवत्व की प्राप्ति का सौभाग्य मिलता है। प्रेम मनुष्य-जीवन की सर्वोदय प्रेरणा है, शेष सब आश्रित और स्वार्थ-प्रेरित भाव हैं। स्वाधीनता और सद्गति दिलाने वाली आन्तरिक प्रेरणा तो प्रेम ही है। इसी से व्यक्तियों के जीवन समृद्ध होते हैं। आत्म-भावना और परमार्थ का विकास होता है। कला-कौशल का वर्तमान विकसित रूप और संसार की रचना प्रेम के वरदान हैं। मानव-जीवन के लक्ष्य-ईश्वर प्राप्ति-की पूर्ति भी प्रेम से ही होती है।



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