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September 1970

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मुहूर्तमपि जीवेच्च नरः शुक्लेन कर्मणा।

न कल्पमपि पापेन लोकद्वयविरोधिना॥

मनुष्य यदि श्रेष्ठ पुण्य कर्म करता हुआ मुहूर्त के लिये भी जीता है, तो वह श्रेष्ठ है। किन्तु यदि पाप-कर्म करता हुआ (जो कि दोनों लोकों के विरोधी हैं) एक कल्प तक भी जीवित रहता है, तो वह अच्छा नहीं। क्योंकि पाप-कर्म करके जीने से मरना भला है।


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