सिद्धि से श्रेष्ठ सन्निद्धि

September 1970

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‘हे तात्! मरकत मणि, सुवर्णनिस्क, मुक्तामाल यह सब बहुमूल्य आभूषण यदा-कदा धारण किये जाते हैं। अधिकांश समय तो उनकी सुरक्षा-व्यवस्था में ही जाता है। इसलिये इन्हें प्रत्येक व्यक्ति अपने पास नहीं रख सकते। किन्हीं सम्राट-सम्राज्ञियों, श्री-सामन्तों के पास ही वे सुरक्षित रह पाते हैं। सिद्धि भी ऐसी ही एक बहुमूल्य संपदा है, जिसे सुरक्षित रख सकना सबके लिये संभव नहीं। साँसारिक सुखोपभोग के आकर्षण में अधिकाँश योगी उसका विनिमय कर डालते हैं। उनकी अन्तगति तो राज्य से निष्कासित चक्रवर्ती सम्राट और मणिहीन फणि की सी दयनीय हो जाती है। इसलिये विधान यह है कि जो उपयुक्त पात्र हो, जिसे तितिक्षा की कसौटी पर भली प्रकार कस लिया गया है उसे ही सिद्धि का अधिकार प्रदान किया जाये।’

यह कहकर महामुनि क्रौष्टक चुप हो गये। उनकी मुख-मुद्रा देखने से ऐसा प्रतीत होता था जैसे अब उनकी चेतना विचारों के अगाध सागर में विलीन हो गई हो। वे कुछ गंभीर चिन्तन में निमग्न हो गये हैं-ऐसा समझकर कुछ आगे की बात न करके शिष्य सौभरि भी चुप हो गये और वहाँ से उठकर आचार्य देव के लिये सन्ध्यादि के प्रबन्ध में जुट गये।

देर तक विचार करने के बाद भी क्रौष्टक अन्तिम निर्णय न कर सके कि सौभरि को सिद्धि प्रदान करने वाली उच्चस्तरीय साधनाओं का अधिकार प्रदान किया जाय अथवा नहीं। उनकी करुणा, उनका सहज स्नेह उमड़ता और कहता सौभरि ने तुम्हारी बड़ी सेवायें की हैं, उसे यह अधिकार मिलना ही चाहिये। किन्तु शास्त्र-अनुभव आड़े आ खड़े होते और पूछते-क्रौष्टक! सिद्धि पान के बाद भी क्या तुझे विचलित करने वाली परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा? क्या तुझे इन्द्रिय लालसाओं के दमन में अत्यधिक कठोरता बरतनी नहीं पड़ी? क्या यह संभव है कि सिद्धि पाने के बाद सौभरि को ऐसे सामाजिक जीवन के अनिवार्य सन्दर्भों का सामना नहीं करना पड़ेगा? मान लो, यदि सौभरि तब अपने को न संभाल पाया, तो होगा न सिद्धि का दुरुपयोग? क्या यह ठीक नहीं, कि पहले उसे अग्नि-दीक्षा में कसकर देख लिया जाये? पीछे पंचाग्नि साधना में प्रवेश दिया जाये?

क्रौष्टक का अन्तिम निर्णय यही रहा। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही शिष्य सौभरि को उन्होंने अपने समीप बुलाया और बड़े स्नेह के साथ कहा-वत्स! आश्रम जीवन की कठोरता के कारण तुम थक गये होगे। आओ, मैं तुम्हारे पैरों में एक अभिमन्त्रित औषधि का लेप करता हूँ। उससे तुम जहाँ भी पहुँचने की इच्छा करोगे, वायु-वेग से वहीं जा पहुँचोगे और जब तक चाहोगे वहाँ पर विचरण करते रह सकोगे। इससे तुम्हारा श्रम, तुम्हारी उद्विग्नता दूर हो जायेगी।

गुरुदेव के वचन और इस अप्रत्याशित परिस्थिति पर सौभरि को आश्चर्य अवश्य हुआ किन्तु देश-भ्रमण की लालसा वेगवती हो उठी, सो उसने गुरुदेव की योजना का कोई विरोध नहीं किया।

क्रौष्टक ने सौभरि के पाँवों में अभिमन्त्रित औषधि का लेप कर दिया। ‘अब मुझे महेन्द्र पर्वत (हिमालय) चलना चाहिए’-ऐसी इच्छा करते ही सौभरि क्षण-भर में उत्तर दिशा की ओर उड़ चले। उस रमणीय हिम और पुष्पलताओं से आच्छादित सुरम्य शिखरावली तक पहुँचने से उन्हें कुछ ही क्षण लगे। यहाँ की श्री, वन-सौरभ स्वर्ग से भी बढ़कर अतुलित सौंदर्य वाले देखकर सौभरि का मन बड़ा प्रसन्न हुआ। वे भूमि पर उतर कर बहुत देर तक वहाँ विचरण करते रहे।

सुख की अभीप्सा है ही कुछ ऐसी कि व्यक्ति के विवेक को, चातुर्य और जागरुकता को थोड़ी ही देर में नष्ट कर डालती है। ध्यान रहा नहीं। सौभरि के पैर शीतल तुषार में चलते रहे और धीरे-धीरे पैर में लगा सारा अनुलेप धुल गया। जब उनके मन में वापस लौटने की इच्छा हुई, तब पता चला कि वहाँ से वापस लौटा ले चलने वाली शक्ति तो नष्ट हो चुकी। सौभरि बड़े दुःखी हुए और पश्चाताप करने लगे। आज पहली बार उन्हें किसी सिद्धि के प्रति घृणा और मानवीय पुरुषार्थ के प्रति विराट आस्था का बोध हुआ। उन्होंने अनुभव किया-यह सामर्थ्य आत्म पराक्रम में ही है, जो व्यक्ति को चरम सीमा तक पहुँचा कर वहाँ से उद्धार भी कर सकता है।

सौभरि अभी इस तरह के विचारों में खोये ही थे कि उन्हें उस पर्वतीय उपत्यिका में शनैः-शनैः समीप आती हुई सी पायलों की मधुर झंकार सुनाई दी। सौभरि सोचने लगे-यहाँ और कौन हो सकता है? तभी तिलोत्तमा के समान अप्रतिम सौंदर्य वाली मौलेया अप्सरा वरुथिनी वहाँ आ उपस्थित हुई। सौभरि को उसने दूर से ही देख लिया था। वह सौभरि की सुगठित देहयष्टि और उनके दीप्तिमान सौंदर्य के प्रति आसक्त हो उठी था। सौभरि को आकर्षित कर प्रणय-जाल में बाँध लेने की इच्छा से वह जितना शृंगार कर सकती थी, किए थी। स्वर्णथाल में लाये वस्त्राभूषण, सुगन्धित अनुलेप और मधुर भोज्य प्रस्तुत करते हुए वरुथ ने एक लुभावनी दृष्टि सौभरि पर डाली और बोली-महाभाग! मैंने पूर्व जन्म में कोई श्रेष्ठ पुण्य किया है, तभी आप जैसे प्रतापी सिंह पुरुष को पाने का सौभाग्य मिला है।

‘ओह भद्रे!’ बहुत देर बाद सौभरि का कण्ठ फूटा- ‘मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ? तुम्हें किसी ने बन्दी बनाया हो तो शीघ्र बताओ, मैं अभी उसे मारकर तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ। तुम पर किसी ने ओछी दृष्टि डाली हो तो बताओ- आर्ये! तुम निश्चय जानो मैं उसका मान-मर्दन करने में किंचित भी डरूंगा नहीं।’

यह सब होता तो वरुथिनी कहती भी। वह तो उस योग-माया की तरह आई थी, जो संसार को क्षणिक सुख के आकर्षण में बाँधकर पारलौकिक सुख, संयम, शक्ति और जीवन में विच्युत किया करती है। एक क्षीण किन्तु मर्माहत कामुक दृष्टि से निक्षेप करते हुए वरुथ ने कहा- देव पुरुष! आपको पाकर मुझे अब एक ही वस्तु प्राप्त करने की इच्छा रह गई है। आप जानते होंगे- स्त्री पत्नी बनने के बाद एकमात्र मातृत्व की इच्छा रखती है। सो मैं भी उसी लालसा से आपकी सेवा में प्रस्तुत हुई हूँ। महान पुरुष किसी की इच्छा ठुकराते नहीं। -यह कहती हुई वरुथ सौभरि के बिल्कुल समीप तक जा पहुँची।

यह तो कहो आध्यात्मिक संस्कार बड़े बलवान थे कि वरुथ का आकर्षण-जाल सौभरि को बाँध नहीं पाया। उन्होंने कहा-भद्रे! मैंने जिस क्षण तुम्हें देखा उसी समय मुझे अपनी कनिष्ठ सहोदरा का ध्यान आया था। तुम मेरी बहिन के समान हो। मैं तुम्हारे साथ समागम कैसे कर सकता हूँ?

कुचली हुई नागिन की तरह वरुथ की वासना भीतर-ही-भीतर फुँकार उठो। पर उसे दबाते हुए वरुथ ने एक तीर और छोड़ा- आर्य श्रेष्ठ! किसी की इच्छा पूर्ण करने से बड़ा पुण्य और याचक को खाली हाथ लौटाने से बड़ा पातक नहीं। सोच लो, तुम्हें पुण्य और पाप में से किसे वरण करना है?

सौभरि ने कहा- भद्रे! अनैतिक आचरण से पुण्य प्राप्त होता हो, तो मुझे ऐसा पुण्य नहीं चाहिए। समाज की व्यवस्था का मूल आधार नैतिकता है। उसे नष्ट, करके मैं स्वर्ग की भी इच्छा नहीं कर सकता।

यह कहकर सौभरि ने जैसे ही आगे पग बढ़ाया कि उनके इष्ट ‘आह्वानीय अग्निदेव’ अपनी सौम्य मुद्रा में खड़े दिखाई दिये। उनके मध्य गुरु क्रौष्टक की मनोहारी छवि परिलक्षित हो रही थी। वे कह रहे थे- तात! तुम सिद्धि के सच्चे अधिकारी हो।

गुरु के चरणों में प्रणिपात करते हुए सौभरि ने कहा- देव! अब मुझे सिद्धि की कामना नहीं रही। आप तो ऐसा आशीर्वाद दीजिए कि अपने शील की रक्षा करते हुए संसार में जीऊँ और जीवन का अन्त हो, तब तक निष्कलुष ही बना रहूँ।


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