कुसंस्कार धोते चलें- अगला जन्म पछतावा न बने।

September 1970

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आपरेशन थियेटर (आपरेशन का कमरा) डाक्टरों और नर्सों से खचाखच भरा था। असाधारण आपरेशन होने को था। मस्तिष्क का आपरेशन यों इन दिनों एक सामान्य बात हो चली है। पर इस आपरेशन का सम्बन्ध मनुष्य जीवन के एक असाधारण सत्य के रहस्योद्घाटन में था, उसी को देखने के लिये डाक्टरों की टीम जमा हुई थी।

रहस्य यह था कि यह जीवन मन की जिन अज्ञात (अनकान्शस) प्रेरणाओं से प्रभावित और क्रियाशील होता है वह पूर्व-जन्मों में मस्तिष्क में टेप किये हुए संस्कार होते हैं और अब विज्ञान उस दिशा में तेजी से अग्रसर हो रहा है। जब मस्तिष्क रूपी टेप रिकॉर्डर और टेलीविजन सेट के आधार पर यह विश्लेषण करना सम्भव हो जायेगा कि इस मनुष्य ने पिछले जन्मों में क्या कर्म किये हैं। इसके अदृश्य विचार और भावनाएं किस तरह रही हैं और उनके फलस्वरूप आगे वह किस प्रकार के अपराध या भलाई के कार्य करेगा। अमुक बीमारी, अमुक दिन, अमुक प्रकार की दुर्घटना होगी और उसके परिणाम यह तक हो सकते हैं। विज्ञान ऐसी भी जानकारियाँ प्रस्तुत कर सकता है। क्योंकि वह सब मस्तिष्क में पहले से तैयार रहता है।

यह आपरेशन अमरीका के विश्व-प्रसिद्ध शल्य चिकित्सक डॉ. विल्डर पेनफील्ड द्वारा किया जाने वाला था। डॉ. पेनफील्ड ने मस्तिष्क के अग्र भाग में 25 वर्ग इंच के लगभग और 1/10 इंच मोटे एक ऐसे क्षेत्र का पता लगाया है, जो काले रंग की दो अन्धकारपूर्ण पट्टियों के रूप में विद्यमान है। यह पट्टियों ‘टेम्पोरल कार्टेक्स’ कही जाती हैं और कनपटी के नीचे मस्तिष्क के चारों ओर से छल्लानुमा घेरे हुए हैं। यही वह पट्टी है, जिसमें मानसिक विद्युत का प्रवेश होते ही अच्छी-बुरी स्मृतियाँ उभरती हैं। डॉ. पेनफील्ड का कथन है कि इस पट्टी में विलक्षण स्मृतियों के टेप रिकार्ड भरे हुए हैं। उनमें यदि विद्युत आवेश प्रवाहित किया जाये, तो इतनी-सी पट्टी ही उस व्यक्ति के ज्ञात अज्ञात सारे रहस्यों को उगल सकती है, जिसे भयवश, लोक-लाज या संकोचवश भी मनुष्य व्यक्त नहीं कर पाता या जो कई जन्मों से संस्कार रूप से उसमें विद्यमान रहता है।

यह पट्टियाँ किसी केन्द्रक तत्व (न्यूक्लिक एलेमेन्ट) से बनी हैं और जब इनमें नहरें उठती हैं, तो उनसे प्रभावित नलिका विहीन नसों (डक्टलैस ग्लैंड्स) से एक तरह के हारमोन्स निकलते हैं (हारमोन्स एक प्रकार का रासायनिक पदार्थ है) जो भिन्न-भिन्न आवेश अर्थात् क्रोध, घृणा, कामवासना, भय, ईर्ष्या, द्वेष, प्रेम, दया, करुणा, उदारता, सहिष्णुता आदि भावों के समय विष या अमृत की तरह स्रवित होता और सम्पूर्ण शरीर की मशीनरी को प्रभावित करता है। अब मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक सभी यह मानने लगे हैं कि इन ‘हारमोन्स’ के कारण ही मनुष्य स्वस्थ या रोगी बनता है। यदि व्यक्ति में अच्छे गुण होते हैं, तो उससे अमृतपूर्ण हारमोन्स स्रवित होकर शरीर में हलकापन, स्निग्धता शक्ति और प्रसन्नता उत्पन्न करते हैं, जबकि बुरे विचारों का प्रभाव ठीक इससे विपरीत होता। आयुर्वेद का ‘पूर्वजन्म कृतं पापं व्याधिरूपेण पीडतिः’ इसी सिद्धान्त का शास्त्रीय रूप है। उत्तरकाँड में तुलसीदासजी द्वारा वर्णित मानस रोग इसी तथ्य की पुष्टि और यह बताते हैं कि मनुष्य को इस जीवन में प्राप्त दुःख या सुख सब मनोभावों के परिणाम होते हैं। अच्छे भावों अर्थात् श्रद्धा, विश्वास, मैत्री, दया, क्षमा, सन्तोष आदि से जीवन-शक्ति बढ़ती है, तो दम्भ, पाखण्ड, अश्लीलता, विश्वासघात, हिंसा, विद्वेष आदि से वात, पित्त कफ, सन्निपात, दाद, कंडु, कुष्ठ, उदर-वृद्धि, डमरुआ, नेहरुआ ज्वर आदि पैदा करते हैं।

यह संस्कार इस जीवन के हों सभी मनुष्य रोगी बनें, यह आवश्यक नहीं। शास्त्रकार कहते हैं कि संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक मनुष्य का पीछा करते हैं-

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।

गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥

-गीता 15।8

अर्थात् जिस प्रकार वायु जहाँ से गुजरती है, वहाँ की गन्ध भी साथ ले जाती है वैसे ही देह का स्वामी जीवात्मा भी पहले जिस शरीर को त्यागता है, उसके इन मन सहित सभी इन्द्रियों के संस्कारों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है।

फिर यह विभिन्न संस्कारों वाला मन ही अच्छे-बुरे शरीर रोगी निरोग शरीर की रचना करता है-

मानसेदं शरीरं हि वासनार्थं प्रकल्पितम्।

क्रमिकोश प्रकारेण स्वात्मकोश इव स्वयम्॥

-योगवशिष्ठ 4।11।19

करोति देहं संकल्पात्कुम्भकारो घंट यथा॥

-योगवशिष्ठ 4।15।7

जिस प्रकार रेशम का कीड़ा अपने रहने के लिये अपने आप ही कोश तैयार कर लेता है वैसे ही मन ने भी अपने संकल्प से शरीर को इस प्रकार बनाया है जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाता है।

समस्या थी कि संस्कार जन्म-जन्मान्तरों से संग्रहीत कर्मफल हो सकते हैं इसका कोई प्रमाण शास्त्रों में नहीं था। पदार्थ को गौण मानने वाले ऋषियों ने उसका अध्ययन और ज्ञान प्राप्त न किया हो, यह बात नहीं। सम्पूर्ण सावित्री विद्या पदार्थ विज्ञान ही के नाम और वर्गीकरण का भेद भर है। चेतना को अति समर्थ और मुख्य मानने के कारण इस विज्ञान को भी आध्यात्मिक बना दिया गया, उसे प्रमाणित करने के लिये यन्त्र निर्माण की आवश्यकता नहीं समझी गई। वस्तुतः करना चाहते तो वह कुछ कर सकते थे, जो आज अमरीका और रूस भी नहीं कर सके। भौतिक विज्ञान की आज की उपलब्धियाँ इन तथ्यों को अक्षरशः सत्य सिद्ध करती हैं।

अमरीका में गिरिजाघरों के सलाहकार डॉ. पीले की तरह डॉ. सी. डब्ल्यू. लेब ने अपने अधिकाँश रोगियों का औषधोपचार आत्म-विश्लेषण पद्धति पर करने का नियम बनाया। वे रोगी के अन्तरंग में प्रवेश कर उसका भूत जानने का प्रयास करते। उसके कर्मों का अच्छी तरह पता चल जाने के बाद वे औषधि से उतना काम नहीं लेते थे, जितना आँतरिक सुधार की ओर ध्यान देते। एक बार उनके पास एक मृगी का ऐसा मरीज आया, जो बहुत उपचार करने पर भी अच्छा न हो सका। नियमानुसार श्री लेब ने उसे अपने घर बुलाया। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि आप अपने पिछले जीवन का पूरा इतिहास बता सकते हैं क्या? उस व्यक्ति ने बताया कि उसे नन्हे जीवों के शिकार का शौक रहा हैं। उसने केवल माँसाहार के लिये ही नहीं, शौकिया सैंकड़ों जीव-जन्तु मारे हैं। अब तो यह सब छोड़ चुका था, पर मरे हुए जीवों की तड़पन का दृश्य उसके मस्तिष्क में घूमता रहता और वही धीरे-धीरे मृगी के रूप में बदल गया।

डॉ. लेब ने उस रोगी को बताया कि अब वह प्रतिदिन अपनी कमाई का आधा भाग छोटे-छोटे जीवों को खिलाया करे। आधे का आधा निर्धनों, विधवाओं, छोटे बच्चों के स्कूलों को दान कर दिया करे। एक चौथाई अपने लिये रखकर अपना भरण-पोषण किया करे। उन्होंने प्रायश्चित के कुछ तरीके भी बताये और खान-पान में सुधार करने को भी कहा। इस तरह उस रोगी के स्वास्थ्य में बिना किसी उपचार के कुछ ही दिन में सुधार हो चला। जिसे बड़े-बड़े डॉक्टर असाध्य घोषित कर चुके हों, उसका इस तरह आध्यात्मिक पद्धति से तन्दुरुस्त हो जाना सचमुच एक आश्चर्य था, जिसने डॉ. पेनफील्ड जैसे विज्ञान, बुद्धि एवं तर्कशील व्यक्ति को भी उस दिशा में सोचने व प्रयोग करने को प्रेरित किया। डॉ. पेनफील्ड की उपलब्धियाँ अपना विशिष्ट महत्व रखती हैं और यह प्रमाणित करती हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क में ऐसे अज्ञात खजाने हैं, जहाँ पूर्व जन्मों के असंख्य संस्कार माइक्रो प्रिन्ट की तरह टेप किये हुए हैं। समय पड़ने पर उन्हें खोला और पढ़ा भी जा सकता है। हमारे यहाँ के योगी केवल यह पहचान आकृति देखकर व्यक्ति के मुख-मण्डल से निकलने वाली अणु-आत्मा देखकर कर लिया करते हैं, जिस प्रकार अमरीका की महान् अणु-आभा वैज्ञानिक श्रीमती जे. सी. ट्रस्ट।

मस्तिष्क एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इसलिये उसका आपरेशन करते समय बेहोशी आवश्यक नहीं, श्री पेनफील्ड ने रोगी का टेम्पोरल कार्टेक्स खोल दिया। उसके एक हिस्से में हल्के करेंट वाला विद्युत तार स्पर्श कराया, और फिर क्या था- रोगी एक बढ़िया गीत गाने लगा। गीत किसी ऐसी भाषा का था, जो रोगी नहीं जानता था। बाद में पता चला कि वह जर्मन के किसी प्रान्त में बोली जाने वाली आदिवासी भाषा का क्रमबद्ध गीत था। तार वहाँ से हटाते ही उसने गीत गुनगुनाना बन्द दिया।

डॉ. पेनफील्ड ने एक अन्य प्रयोग से यह भी दिखा दिया कि मनुष्य साधारणतया जो देख या सुन लेता है, भले ही उधर उसका ध्यान न रहा हो, पर उसका भी मस्तिष्क में टेप हो जाता है और जब कभी वह व्यक्ति उस दिशा की बात सोचता है, तो वह दृश्य और शब्द भी अनायास ही मस्तिष्क में गूँज उठते हैं। ईश्वराभ्यासी आध्यात्मिक उपासक और योगी आत्माओं को स्वप्न में भूत, भविष्य के स्पष्ट दृश्य दीख जाते हैं। वह आत्म-चेतना की मानसिक एकाग्रता और इस अज्ञात पट्टी द्वारा उभार के फलस्वरूप होते हैं। आज के युग में जीन्स (गुण सूत्रों) को छाँटना सरल हो गया है पर कर्मफल की रेखाओं का मनुष्य जीवन के आदिकाल से समय जोड़ना, उसके अनेक जन्मों का विश्लेषण करना, यह उससे बहुत कठिन काम है तथापि वह दिन दूर नहीं, जब लोग डाक्टरों और वैज्ञानिकों से अपने कोई भी पाप न छिपा पाया करेंगे। तब चिकित्सा की पद्धतियाँ भी आजकल की तरह दवा-दारु की न होकर मानसिक और आध्यात्मिक हुआ करेंगी। जो अपने मानसिक और आत्मिक स्तर को सुधार सकता है, वही रोग-शोक उत्पन्न करने वाले पूर्वजन्मों के कुसंस्कारों का प्रक्षालन कर स्वस्थ और नीरोग रह सकता है। बेचारी दवाइयाँ न कभी रोग का निदान रहीं और न रहेंगी। अन्ततः आध्यात्मिक उपचार ही मनुष्य का साथ देंगे। डॉ. पेनफील्ड की शोधों का यही सार है।


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