जैसा कि पिछले अंक में बताया-लोकों के अध्ययन के साथ-साथ भारतीय तत्वदर्शियों और योगियों ने उनमें पाये जाने वाले तत्वों और उनकी मानसिक संरचना का भी विस्तृत अध्ययन किया और जब उसे मनुष्य के मनोविज्ञान से मिलाया, तो उसमें अद्भुत सामंजस्य मिला। सातों लोकों में प्राप्त चेतना यद्यपि अपने मूल परिवेश में एक ही है तथापि उसके गुण और सामर्थ्य अलग-अलग क्रमशः ऊपर से नीचे की ओर विघटित या नीचे से ऊपर की ओर विकसित हैं। विकसित अवस्था को जीव का लक्ष्य बताया, क्योंकि उससे आनन्द, सुख सौंदर्य, श्री और शाँति मिलती है, जबकि पतन की स्थिति में जीवात्मा अपनी सूक्ष्म शक्तियाँ साँप की केंचुल की तरह छोड़ती चली जाती हैं। निकृष्ट योनियों में पड़ने से वह दुख, कष्ट और क्लेशपूर्ण जीवन में ही फँसती चली जाती हैं। इसलिए शास्त्रकार सदैव ऊर्ध्व मुखी जीवन की प्रेरणा देते रहे और भोगवादी प्रवृत्तियों से सावधान करते रहे हैं।
सातों लोकों में निवास करने वाली चेतना का विस्तार जब परमात्मा से प्रकृति की ओर होता है तब प्रथम अवस्था बीज जागृत कहलाती है। विज्ञान बताता है कि संसार स्थूल कुछ है ही नहीं। सब कुछ शक्तिमय, चिन्मय है। यह सारा संसार परमाणुओं से बना है और परमाणु अपने आप में कोई स्थूल पदार्थ न होकर धन विद्युत आवेश (प्रोटोन) ऋण विद्युत आवेश (इलेक्ट्रान) नाभिक (न्यूक्लियस) न्यूट्रॉन पाजिट्रान आदि शक्तियों की सम्मिलित इकाई है। भारतीय योग ग्रन्थों में उसे ही -’या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता’ कहा है। अर्थात्- सृष्टि के परमाणुओं को पृथक नहीं किया जा सकता जबकि सभी में नाभिक, धन विद्युत, ऋण विद्युत आदि तो उन्हें भी अलग नहीं किया जा सकता। एक ही वस्तु में या विराट ब्रह्माँड में उन-उन सभी चेतनाओं के स्वरूप को अलग -अलग अनुभव भर किया जा सकता है। इन शक्तियों में जो मूल चेतना है वही खोज बीज जागृत अवस्था है। इस अवस्था में चेतना नितान्त शुद्ध निर्विकार और नाम आदि से मुक्त होती है। पर उसे भविष्य में नामों से पुकारा जा सकता है।
उदाहरण के लिए हमारा जब जन्म नहीं हुआ था, तब हम केवल चेतन रूप में थे। उसका कोई नाम नहीं था, पर जब शरीर से संयोग हुआ, तो लोगों की पहचान के लिए नाम रखा जाने लगा। इस अवस्था में ‘मैं हूँ’, ‘यह मेरा है’ आदि अनुभव होने लगते हैं। इस अवस्था को (2) जागृत अवस्था कहते हैं। इस स्थिति में अपने पूर्व स्वरूप का कोई ज्ञान नहीं होता। मन्त्रों के द्वारा, पुनर्जन्म हवा भूतप्रेत और आत्मा के आह्वान आदि की, घटनाओं से मरणोत्तर जीवन की पुष्टि तो कर सकते हैं पर हमारी चेतना का मूल स्वरूप क्या है- यह एकाएक अनुभव नहीं कर सकते, जब तक कि तप और साधनाओं के द्वारा इन अवस्थाओं का विकास बीज जागृत अवस्था में न कर लें।
तीसरी अवस्था के बारे में योग-वशिष्ठ के 3।117।16-17 मन्त्रों में कहा है-
अयं सोहमिदं तन्म इति जन्मान्तरोदितः।
पीवरः प्रत्यय प्रोक्तों महाजाग्रदिति स्फुरन॥
अर्थात्- जब कई जन्म हो चुकते हैं तो अहंभाव अर्थात् मेरे-तेरे का स्वार्थ दृढ़ हो जाता है। यही महाजागृत अवस्था है।
इस अवस्था से छूटने के लिए वैराग्य और अहंकार भावना के परित्याग का अभ्यास करना पड़ता है। इस अवस्था में मनुष्य अपने अनादि जीवन का चिन्तन करें, तो भी वह मेरे-तेरे के भाव से छूट नहीं पाता। पर जब वह साँसारिक जीवन में इतना घुल जाता है कि उसे अनन्त जीवन का भान ही नहीं होता, तब वह चौथी जागृत स्वप्न अवस्था में होता है-
यज्जाग्रतो मनोराज्यं जागृत्स्वप्नः स उच्यते।
द्विचन्द्रशुक्ति कारुप्य मृगतृष्णदिभेदतः॥
-3।117।18
आरुढ़मथ वा रुढं सर्वथा तन्मयात्मकम्।
-3।117।17
अर्थात्- हमारा जो जीवन चल रहा है, वह इतना दृढ़ हो गया है कि वह कल्पित नहीं, उसी प्रकार सत्य प्रतीत होने लगा है जैसे एक चन्द्रमा पानी में दो, सीप को चाँदी और रेगिस्तान को देखकर नदी का भ्रम होता है। इस अवस्था में जीव अपनी मृत्यु का भी ध्यान नहीं करता। उसे प्रकट ही सत्य भासता है, भले ही उसे कितना ही दुख क्यों न मिल रहा हो।
पाँचवीं अवस्था ‘स्वप्नावस्था’ कहलाती है। उस समय व्यक्ति को जागृत अवस्था का सा अनुभव होता। पर जागने पर वह असत्य सा अनुभव होने लगता है। इस अवस्था में कई देखी हुई घटनाएं भविष्य में इतनी सत्य होती हैं कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, तो भी जाग जाने पर मनुष्य अपने यथार्थ चेतन स्वरूप की याद न करके वही न करने योग्य पाप कर्म करता और स्थूल इन्द्रिय भोगों में फँसा रहता है।
छठवीं स्वप्न जाग्रत अवस्था के सम्बन्ध में योग-वसिष्ठ कहती है-
चिरसंर्शनाभावाद प्रफुल्लबृहदवपुः।
स्वप्नों जागृत्तया रुढो महाजागृत्पदं गतः॥
अक्षते वा क्षते देहे स्वप्नजागृन्मते हि तत्॥
-3।117।20।21,22
अर्थात्-अधिक समय तक जागृत अवस्था के स्थूल विषयों और इन्द्रिय सुखों का अनुभव नहीं होता। पर स्वप्न में ही अपने द्वारा किए जाने वाले क्रिया-कलाप महाजागृत अवस्था के से जान पड़ने लगते हैं। उस समय यह आवश्यक नहीं, कि यह स्थूल शरीर रहे ही अर्थात् मरणोपरान्त भी ऐसे अनुभव होते हैं। यह अवस्था स्वप्न जागृत कहलाती है।
कुछ दिनों तक विविध साधनाएं और योगाभ्यास आदि करने से इस स्थिति का स्पष्ट आभास शरीर रहते हुए भी हो जाता है। इस अवस्था में साधक के अधिकाँश स्वप्न सच्चे भी होने लगते हैं।
अन्तिम अवस्था सुषुप्ति की है। यह जीव की सर्वथा जड़ स्थिति है। वह केवल वही कल्पनाएं करता है, जिसमें भविष्य में दुख ही दुख होता है। योग वसिष्ठ 3।117।24 में लिखा है-
‘पदार्थाः संस्थिताः सर्वे परमाणु प्रमाणिनः।
अर्थात्- संसार के मिट्टी, कंकड़, तृण, पत्थर आदि सभी पदार्थ इसी अवस्था में स्थित रहते हैं। अर्थात् इन सबमें भी चेतना तो होती है, पर वह ऐसे सद्यः सुख प्राप्ति के भाव से ग्रसित होती है कि उसे अपनी चेतना का भी ध्यान नहीं होता। इसलिए जो कुन्द बुद्धि लोग होते हैं, जिन्हें आत्मा और परमात्मा आदि सूक्ष्म सत्ताओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता, प्रायः जड़ कहा जाता है। यह अवस्था बीज जागृत अवस्था की ठीक उल्टी होती है। एक में सारा संसार चेतन ही चेतन होता है, दूसरे में जड़ ही जड़। जो जिस अवस्था में होता है- उसे वही सत्य दिखाई देता है। जब तक चेतना की धारा और दिशा एकाएक परिवर्तित न हो या परिवर्तित न की जाये, हर स्थिति का व्यक्ति अपने को ही