प्रपंच प्रेम नहीं- निःस्वार्थ प्रेम

September 1970

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नारद को स्वास्थ्य बहुत प्रिय था, सो वह सदैव टहलते रहते थे। क्रियाशील जीवन जीने का उनका स्वभाव ही बन गया था। एक बार वे पितामह ब्रह्मा के राज्य में विचरण कर रहे थे। पीयूष पावन पर्वत की तलहटी में भ्रमण कर रहे नारद ने एक विचित्र वृक्ष के दर्शन किये। इस वृक्ष में तना था, डालियाँ थीं, पर वह सब ठूँठ-से लगते थे। हरियाली तो दूर, वृक्ष में एक भी पत्ती नहीं थी। हाँ, फल अवश्य थे, पर वे काले थे। उस वृक्ष के नीचे सैकड़ों जीव-जन्तु और पक्षी मरे पड़े थे। विचारशील नारद ने पहले ही अनुमान कर लिया कि यह फल विषैले होंगे। इन जीवों ने इनको खाने का प्रयास किया होगा और इस प्रयत्न में ही वे अपनी जान गँवा बैठे होंगे।

नारद ने सोचा- जीव तो मरणधर्मा है ही, उसके लिये दुःख करने से क्या लाभ? किन्तु उस वृक्ष के पत्र विहीन होने और फलों के विषैले होने का उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। जब उनकी विचार-शक्ति ने काम नहीं दिया, तो अपनी जिज्ञासा शाँत करने के लिये वे पीछे लौट पड़े और वहाँ से चलकर सीधे पुराण पुरुष ब्रह्माजी के पास जाकर पूछने लगे- भगवन्! आपकी सृष्टि में विष-फल! ऐसा तो अनन्त सृष्टियों में कहीं भी नहीं देखा। यह वृक्ष कहाँ से आया भगवन्, जिसमें एक भी पत्ता नहीं? मृत्यु-मुख में पहुँचाने वाले यह फल क्या कभी शीतल और सुमधुर नहीं हो सकते हैं?

दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए विधाता बोले- तात! बहुत दिन हुए यहाँ एक युवक आया। वह जिससे मिलता, भक्ति और वैराग्य की बातें करता। लोगों ने कहा, पागल हो गया है यह। तुम जानते ही हो- मनुष्य की स्थूल बुद्धि तो केवल स्थूल और स्वार्थपूर्ण बातें ही सोच सकती है। पारमार्थिक तत्वों की अनुभूति तो साधनाशील और धार्मिक व्यक्तियों को होती है। घर वालों ने भी उसे निकाल दिया। युवक का एक हाथ खराब हो चुका था, तो भी प्रत्येक आध्यात्मिक-धार्मिक पुरुष में श्रम और स्वाभिमान के जो लक्षण होने चाहिये, वह उसमें पर्याप्त मात्रा में थे। उसने अपनी आजीविका आप कमाने का निश्चय कर लिया।

उसने विचारपूर्वक देखा- कुछ आवश्यक नहीं कि दूसरे लोग कृषि या राज्याश्रय से आजीविका प्राप्त करते हैं, तो वह भी वैसा ही करे। अपंग था वह, इसलिये अपने लिये उसे प्राकृतिक जीवन ही उपयुक्त लगा। उसने देखा, जिस तरह सृष्टि के अन्य जीवों की आहार सम्बन्धी आवश्यकताएँ सीमित हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी थोड़े में अपना काम चला सकता है। शेष समय परमार्थ साधन में लगाया जा सकता है, सो उसने अपने लिये कुछ फलों वाले पौधे लगाने और उनसे अपना आहार प्राप्त करने का निश्चय कर लिया।

बिना किसी आयुध के धरती खोदना कठिन था नारद! तो भी स्वावलम्बी व्यक्ति साधनों की परवाह नहीं करते। उस युवक ने अपना काम प्रारम्भ किया। वह बड़ी कठिनाई से कभी एक ढेला खोद पाता, कभी दो। पर उसमें आशा और उत्साह की कमी दिखाई न देती थी। ईश्वरीय सत्ता पर उसे बड़ा भरोसा था, वह कई दिन तक ऐसे ही खुदाई करता रहा। उसकी बहन आई और हँसती हुई निकल गई। उसकी दृष्टि में भाई जैसा मूर्ख इस सृष्टि में दूसरा नहीं था। कुछ देर में पत्नी आई- उसके हाथ में शीतल जल से भरा हुआ घड़ा था। युवक ने बड़ी आशा से हाथ उठाया और इस आशय से मुँह से लगाया कि वह थोड़ा-सा पानी पिला देगी। किन्तु हाय री आसक्ति! पत्नी से जल पिलाना तो दूर- दो मीठे शब्द भी नहीं बोले गये। उपहास के स्वर में उसने कहा- ‘भागीरथ जी! और थोड़ा खोदिये, गंगाजी शीघ्र निकलने वाली हैं।’

मुँह से लगा हाथ निराश नीचे लौट आया- युवक धीरे-धीरे फिर मिट्टी खोदने लगा। तभी उधर से पिता आया सिर पर फलों का टोकरा था। भूखे युवक ने इंगित कर एक नन्हा-सा टुकड़ा खाने को माँगा। फल तो नहीं, भर्त्सना अवश्य मिल गई- मूर्ख, दिन भर निठल्ला बैठा रहता है। खाना आकाश से टपकता है क्या? उठ, कुछ काम कर। अपना भोजन आप कमा। युवक की आँखें भर आईं, बेचारा कुछ बोल नहीं सकता था। भूखा-प्यासा धरती खोदने में लगा रहा। पर मन सोच रहा था- संसार में प्रेम और दया के स्रोत न सूखे तो मनुष्य कितना खुशहाल हो सकता है। साधनों के अभाव से नहीं, संसार के दुख का प्रमुख कारण भावनाओं के अभाव की सत्यता आज स्पष्ट हुई।

ज्येष्ठ की दशमी, प्रातःकाल जैसे ही उसने मिट्टी का एक ढेला हटाया कि उसकी आँखें चौंधिया गई। कोई बहुमूल्य मणि का टुकड़ा उसके हाथ आ गया। उस मणि को लेकर खड़ा हुआ, तो लोग भ्रम में पड़ गये कि आज समय से पहले ही सूर्योदय कैसे हो गया। जहाँ तक प्रकाश पहुँचा, लोग भागते चले आये और युवक के भाग्य की प्रशंसा करने लगे। बहन आई और भाई को नहलाने लगी। पत्नी आई और उसके शरीर पर चन्दन का लेप कर उसे बहुमूल्य वस्त्र पहना गई। पिता मधुर मिष्ठान्न व पकवान से सजा थाल लेकर आया और बोला- वत्स! बहुत भूखे दिखाई देते हो, लो पहले भोजन कर लो। युवक को इस मिथ्या मोह और जग-प्रपंच पर हंसी आ गई। उसने वह सारे वस्त्राभूषण उतार फेंके, भोजन भी नहीं लिया। उस स्थान पर सुमधुर फलों का पौधा लगाकर वह अपनी मणि लिये हुये एक ओर न जाने कहाँ चला गया। उस दिन से आकृति तो क्या, उसकी छाया के भी दर्शन नहीं हुये। हाँ, उसका रोपा हुआ वृक्ष कुछ दिन में बड़ा होकर मीठे फल अवश्य देने लगा।

धीरे-धीरे युवक का यश सारे विश्व में गूँजने लगा। जो भी पर्वत से मणि निकालने की बात सुनता, उधर ही दौड़ा चला आता। देखते-देखते सैंकड़ों ही लोग इस पर्वत की खुदाई करने लगे। उन सबके मन में एक ही कामना थी-हमें भी मणि मिले। सच है, संसार में मोहग्रस्त और स्वार्थी व्यक्ति ही अन्धानुकरण करते और उसके दुष्परिणाम भुगतते हैं। मणि तो मिली नहीं, एक दिन खोदते-खोदते एक भारी-भरकम पत्थर का टुकड़ा निकल आया। उसे हटाने के लिये सब लोग एकजुट होकर प्रयत्न करने लगे। सामूहिकता की शक्ति का क्या कहना? सो हे नारद! पत्थर हट गया, पर उसके पीछे एक भयंकर नाग छिपा बैठा था। वह फुँकार मारकर दौड़ा- लोग भागे, पर उनमें से अधिकाँश को उसने वहीं डस लिया। भागते समय यही लोग उस वृक्ष से टकराये, फलस्वरूप विषधर का विष उसे भी व्याप गया। उस दिन से इस वृक्ष के सब पत्ते झड़ गये और फल भी विषैले लगने लगे। नारद! इसके बाद से आज तक किसी ने भी इस वृक्ष के नीचे बैठकर शीतल छाया प्राप्त करने का सुयोग नहीं पाया।

नारद ने बड़े विस्मय के साथ पूछा- भगवन् क्या यह वृक्ष फिर हरा नहीं हो सकता? विधाता गंभीर हो गये पर आज तो सारी धरती के लोगों को ही स्वार्थ और प्रपंच के नाग ने डस लिया है। जितना लोग इस शान्ति रूपी वृक्ष से टकराते हैं, उतना ही फल और अधिक विषैले हो जाते हैं। उस युवक की तरह कोई और निःस्वार्थ, प्रेमी सन्त आये और उस वृक्ष का स्पर्श करे, तो यह फिर से शीतल, सुखद और सुमधुर फलों वाला वृक्ष क्यों नहीं बन सकता?


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