ऋषि याज्ञवलक्य जब वृद्ध हो चले- तो उन्हें इस जनकोलाहल भरे वातावरण में रहना असुविधा जनक प्रतीत होने लगा। उन्होंने इच्छा व्यक्त को, कि मैं निर्जन वन में कुटीर बनाकर रहना रहता हूँ, जिससे अधिक-से-अधिक समय ईश्वर चिन्तन में लग सके तथा मनन-चिन्तन में कोई अवरोध उपस्थित न हो।
याज्ञवलक्य मुनि के दो पत्नियाँ थीं। बड़ी मैत्रेयी- जो पूर्णतः आध्यात्मिक ज्ञान की जिज्ञासु तथा परम सात्विक प्रवृत्ति की नारी थी। ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करने की उसे प्रबल जिज्ञासा थी।
दूसरी थी कल्याणी। वह सामान्य मनोभूमि की साँसारिक महिला थी। चलते समय याज्ञवलक्य ने दोनों को बुलाकर कहा- ‘जाने से पूर्व मैं अपनी संपत्ति तुम दोनों के बीच बराबर बाँट देना चाहता हूँ।’
यह सुनकर मैत्रेयी के नेत्र भर आये। उसने कहा- ‘क्या ये सुख-साधन, ये संपत्ति मुझे वह सब कुछ दे सकेंगे जिसकी मुझे वांछा है? मैं सृष्टि का अन्तिम सत्य जान लेना चाहती हूँ। आत्मा का स्वरूप क्या है? वह किस मार्ग पर चल कर परम गति प्राप्त कर सकती हैं? कृपया आप मुझे ज्ञान दें। ये भौतिक के नश्वर पदार्थ मेरे किस काम के?’
ऋषि का हृदय यह सुनकर गदगद हो गया। फिर भी उन्होंने कहा- ‘तुम्हारा कहना बिल्कुल उचित है। फिर भी प्रिये! संपत्ति भी रख लो। जीवन में सभी वस्तुओं की आवश्यकता होती है।’
किन्तु मैत्रेयी को द्रव्य की आकर्षण शक्ति भी विचलित न कर सकी। उसने इतना ही कहा- ‘जीवित रहने भर को कुछ कन्द-मूल फल तथा कुछ मोटे वस्त्र पर्याप्त हैं। वह इस शरीर के रहते जुटा लेना कोई कठिन बात नहीं। अधिक का परिग्रह तो आत्म-ज्ञान की उपलब्धि में बाधक ही सिद्ध होगा। क्या करूंगी मैं ये धातुओं के टुकड़े लेकर? मुझे तो आप सच्चा ब्रह्म-ज्ञान ही प्रदान करें, जो मेरा लक्ष्य तक पहुँचने का पाथेय है।’
याज्ञवलक्य अपनी प्रिय पत्नी के उक्त कथन से बहुत ही अधिक प्रसन्न हुए। उसी दिन से उन्होंने अर्थ संबंधी समस्त व्यवस्थायें अपनी दूसरी पत्नी कल्याणी को सौंप दीं तथा मैत्रेयी को नित्य नियमित रूप से आत्मज्ञान तथा ब्रह्मविद्या का प्रशिक्षण देने लगे।
उन्होंने बताया- ‘सृष्टि के कण-कण में आत्म-तत्व ही समाविष्ट है। चेतना के रूप में हम उसका अनुभव करते हैं। आत्मा का गुण आनन्द है, ऐसा आनन्द जो अखण्ड है- अविभाज्य है। किन्तु जिस प्रकार वीणा से निकली स्वर-लहरी पर अधिकार नहीं किया जा सकता लेकिन वीणा अपने हाथ में ले लेने पर मनचाही स्वर-लहरी निकाली जा सकती है, उसी प्रकार वास्तविक ज्ञान होने पर आत्मा की गति को भी जाना जा सकता है। आत्म-ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है। उसे जान लेने पर कुछ भी अगम्य तथा अभेद्य नहीं रह जाता और यह आत्म-तत्व ही विभिन्न रूपों में सर्वत्र व्याप्त है। कण-कण में प्रभासित है।’
इस प्रकार नित्य ही ऋषि अपनी योग्यतम-विवेकशील तथा ब्रह्मवादिनी पत्नी को ज्ञान देते तथा दोनों असीम तृप्ति का अनुभव करते। लौकिक तथा भौतिक सुखों की निःसारता को समझने वाली विदुषी मैत्रेयी ने अपने पति से संपूर्ण आत्म-विद्या सीख ली तथा अनन्त अखण्ड परम तत्व का ज्ञान भी प्राप्त किया। वह तन से ही नहीं- मन तथा आत्मा से भी सच्चे अर्थों में ऋषि की अर्द्धांगिनी थी। मैत्रेयी याज्ञवलक्य जैसा पति पाकर अपने आपको धन्य समझती थी और ऋषि भी ऐसी विचारशील, सात्विकी तथा विशुद्ध परमार्थ भावना से आप्लावित मनोभूमि वाली पत्नी पाकर जीवन को सफल मानते थे। दोनों लौकिक तथा पारलौकिक दिशा में एक दूसरे के पूरक थे।