रमणीक देह नगरी-एक देव उद्यान

September 1970

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बेबीलोन के सम्राट् के मन में इच्छा हुई कि आकाश में एक ऐसा अद्भुत बाग बनाया जाये, जिसमें संसार भर में उपलब्ध सभी फूल, फल और सौंदर्य बढ़ाने वाले पौधे हों, तरह-तरह के पक्षी हों, उसे देखने संसार भर के लोग आयें।

अपनी इस कल्पना को उसने साकार भी किया। ऊँचे ऊँचे आधार-स्तम्भ और सीढ़ियाँ बनाकर उसने छत पर खेत तैयार कराये और आकाश में बाग का अपना स्वप्न पूरा कर दिखाया। लटकता बाग (हैंगिग गार्डन) नाम से विख्यात यह बाग विश्व के आठ आश्चर्यों में गिना जाता है। यद्यपि अब वह ध्वस्तप्राय हो चुका है, तो भी वह अब भी सारे विश्व के लिये कौतूहल का विषय बना हुआ है। उसकी अनुकृति भारतवर्ष में ‘मालाबार गार्डन’ नाम से बम्बई में भी तैयार की गई है। उस बाग की शोभा और रमणीयता देखते ही बनती है।

संभव है बेबीलोन के राजा के मस्तिष्क में यह कल्पना हरी-भरी पृथ्वी के निराधार आकाश में विचरण कर रहे होने की कल्पना से जन्मी हो और तब उसने उस महान् सौंदर्य को प्रतिक्षण आँखों के सामने रखने के लिये यह बाग बनवाया हो, पर सामान्यतः ऐसे रमणीक दर्शन हर किसी के लिये संभव नहीं होते। गुलमुल, नियाग्रा, डलहौजी, कोडीकोनाल, श्रीनगर घाटी और अमरनाथ जैसे प्राकृतिक सौंदर्य वाले स्थानों में वही लोग जा सकते हैं, जिनके पास धन-संपत्ति का अभाव न हो। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि भगवान ने अपनी सुन्दर सृष्टि की दिव्यानुभूति का सौभाग्य कुछ इने-गिने लोगों को देकर अन्याय किया है। पर बात ऐसी नहीं हैं, मनुष्य-शरीर जैसा दिव्य शरीर देने के बाद परमात्मा के पास और कुछ शेष नहीं बचा जो वह मनुष्य को देता। हमारी भूल है जो जानते नहीं, अन्यथा ब्रह्माण्ड की ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो मनुष्य शरीर में न हो।

भारतीय योगियों ने भ्रू-मध्य की प्रयोगशाला से जाँच करके बताया कि मनुष्य-शरीर में संपूर्ण लोक, लोकपाल, देव-शक्तियाँ, दिव्य श्रवण, दर्शन और स्वयं परमात्मा तक विद्यमान है। महर्षि वशिष्ठ भगवान राम से तत्व-दर्शन का उपदेश करते हुए कहते हैं-


रम्येय देहनगरी राम सर्व गुणान्विता।

       अज्ञस्येयमनन्तानाँ दुःखाना कोशमालिका।

                                                      ज्ञस्यत्वियमनन्तानाँ सुखानाँ कोशमालिका॥    -योग वशिष्ठ 4/23/4 और 18


हे राम! यह देह नगरी बड़ी सुरम्य और गुण सम्पन्न है। यह ज्ञानियों के लिये सुखद और अज्ञानियोँ के लिये दुःख देने वाली है।

योगियों का कथन है कि शरीर के पोले मेरुदण्ड में संपूर्ण विश्व, ब्रह्माँड, संपूर्ण देव-शक्तियाँ समाई हुई है। इसलिये शरीर (पिंड) भी एक ब्रह्माँड है- किन्तु यह बात मानने में विज्ञान को अभी संकोच है। अभी कोई ऐसा यन्त्र नहीं बन सका, जो शरीर के सूक्ष्म शक्ति प्रवाहों और लोकों की अनुभूति करा सके। पर स्थूल रूप से जो जानकारियाँ मिली हैं, वह भी उक्त तथ्य का ही प्रतिपादन करती है। यदि मनुष्य को खड़ा करके उसकी देह को सूक्ष्म वैज्ञानिक दृष्टि से देखें, तो कोई भी आश्चर्यचकित हुए बिना न रहेगा कि सचमुच ही शरीर एक वैसा ही लटकता या चलता-फिरता उद्यान है। उसकी त्वचा पर हिमालय, विन्ध्याचल, अरावली, आल्पस की तरह के सुरम्य वन लहलहा रहे हैं। साधारणतः अहर्निश दुर्गन्ध उत्सर्जित करती रहने वाली देह के बारे में रमणीकता की ये कल्पना विस्मय हो सकती है, असत्य नहीं।

हैंगिंग गार्डन में पौधे रोपने के लिये मिट्टी जमीन से ऊपर ले जाई गई है। शरीर में यह मिट्टी अन्न के स्थूल भाग के रूप में पहुँचती है। त्वचा का अधिकाँश भाग मिट्टी है और वह कोश प्रतिक्षण बदलते और नये होते रहते हैं। इस स्थूल भाग में आत्मा अन्नमय रूप में हैं। उसके बाद शरीर के भीतरी भागों में क्रमशः सूक्ष्म होती चली गई है। शास्त्रकार का कथन है-


“स वा एष आत्मा। अन्न रसमयः तस्माद्वा एतस्मादन्न रसमयादन्योंतर आत्मा प्राणमयः अन्योतर आत्मा मनोमयः।”


अर्थात् यह आत्मा अन्न रूप में स्थूल तथा क्रमशः रस, प्राण एवं मन के रूप में सूक्ष्म होती हुई विज्ञानमय एवं आनन्दमय हो गई हैं।

शरीर उसका अन्नमय स्थूल रूप हैं। खाल जो दिखाई देती है, वह कुल शरीर के भार का 5.5 वाँ भाग होती है, अर्थात् यदि तमाम शरीर का भार 110 पौण्ड हो, तो त्वचा का भार 20 पौण्ड होगा। इस त्वचा में जल और चर्बी का भी कुछ अंश होता है, पर अधिकाँश हिस्सा मिट्टी का होता है। यों यह पार्थिव अंश भीतरी हिस्सों में भी होता है, पर उसके दृष्टि में न होने के कारण व्याख्या करना यहाँ अभीष्ट नहीं है।

वह स्थूल अणु भी दरअसल स्थूल न होकर आत्मामय अर्थात् चेतन है। प्राकृतिक परमाणुओं से आत्मा को अलग नहीं किया जा सकता- यह विज्ञान भी मानता है। हमारे यहाँ इसलिये आत्मा का एक रूप अन्नमय भी माना गया है उसे तो एक उद्यान लगाने के लिये कुछ मोटा भर कर दिया गया है अन्यथा विज्ञान के विद्यार्थी जानते होंगे कि जिसे हम मिट्टी कहकर उठा लेते हैं, हाथ साफ कर लेते हैं, बर्तन धो डालते हैं- वह मिट्टी नहीं, जीवाणु है। एक ग्राम मिट्टी लेकर इलेक्ट्रॉनिक सूक्ष्मदर्शी (यह माइक्रोस्कोप इलेक्ट्रान के द्वारा अति शक्तिशाली विस्तार क्षमता (मैगनीफाइंग पावर) द्वारा निर्मित होते हैं) यन्त्र से देखा जाये, तो पता चलेगा कि उसमें एक करोड़ से लेकर नौ अरब तक सूक्ष्म जीवाणु क्रीड़ा कर रहे हैं। ठीक यही बात त्वचा के संबंध में भी है। शरीर का जो भाग बाहरी अवयवों और खाल के रूप में दिखाई देता है, उसका एक मिलीग्राम हिस्सा (एक ग्राम का हजारवाँ हिस्सा) किसी प्रकार छीलकर निकाल लें और फिर उसे सूक्ष्मदर्शी से देखें, तो पता चलेगा कि इतने कम भाग में ही 5 लाख 30 हजार जीवाणु विद्यमान हैं। 55 किलो वाले शरीर की त्वचा में तो यह संख्या 10 X 1000 X 1000 X 5,30,000 = 5300000000000 होगी अर्थात् त्वचा का स्थूल भाग में चेतनता का एक लहराता हुआ सागर होगा।

इस शरीर नगर में सब कुछ समतल नहीं। इसमें पीठ के पठार, हाथ और पैरों की खाड़ियाँ, नाक की गुफाएँ, बगलों के गड्ढे, कानों के खन्दक, मुँह जैसी खान, दाँत जैसी चट्टानें और वह सब कुछ है, जो बाहरी दुनिया में दिखाई देता है। स्थान-स्थान की परिस्थितियों के अनुरूप यह जीवाणु कहीं अधिक सूक्ष्म, कहीं स्थूल, कहीं सुन्दर प्रकाश-किरणें उत्सर्जित करने वाले, कहीं मल और मूत्र फेंकने वाले बन गये हैं। एक वर्ग सेन्टीमीटर शरीर का हिस्सा 24 लाख 10 हजार जीवाणुओं से बना मिलेगा। हाथों में इनकी संख्या प्रति सेन्टीमीटर 100 से लेकर 4500 तक होती है, तो पीठ में 314, सामने वाले मस्तक (ललाट) पर इनकी संख्या 200000 प्रति वर्ग सेन्टीमीटर तक होती है। शरीर का जो भाग जितना अधिक संवेदनशील होता है, वहाँ जीवाणुओं की संख्या उतनी ही अधिक और सूक्ष्म मिलेगी। उन स्थानों पर मानसिक आवेग तीव्रता से बदलते दिखाई देते हैं, जबकि स्थूल वाले हिस्सों में यह परिवर्तन जीवाणुओं में हलचल होने पर भी दिखाई नहीं देते।

इस सारी खोज का श्रेय पेन्सिलवेनिया विश्व-विद्यालय के वैज्ञानिक श्री पीटर विलियम्सन को है। उनका कहना है कि ये जीवाणु माइक्रोस्कोप से देखे जायें, तो सारा शरीर वनस्पति का लहलहाता हुआ बगीचा-सा दिखाई देगा- ठीक ऐसा ही जैसा पृथ्वी में, कहीं घाम कम है कहीं सघन, कहीं वृक्ष दूर-दूर तक फैले हैं कहीं बहुत घने हो गये हैं। लन्दन के सेन्ट जोन्स अस्पताल के त्वचा रोग विशेषज्ञ डब्लू. सी. नोवल और आर. आर. डेवीज ने तो इन वनों को उनके वृक्ष-वनस्पतियों के आधार पर उसी तरह खण्डों में विभक्त कर दिया, जैसे 6 महाद्वीपों से बनी पृथ्वी। यह जीवाणु जो वृक्षों-वनस्पतियों के रूप में लहलहाते प्रतीत होते हैं, स्टेफाइलोकोंकस, ईस्ट, फफूँद, स्टेफाइलोकोकस औरियस, डीमेडेक्स, फालिकुलोरम, कोरिनी बैक्टीरियम एक्नीस जाति की वनस्पतियाँ हैं। सूक्ष्मदर्शी से उनकी शोभा देखते ही बनती है। जिस प्रकार एक वर्ष में सम्पूर्ण प्रकृति अपने विभिन्न रूप-रंग बदलती रहती है, यह वन भी उसी प्रकार आकार बदलता हुआ बड़ा रमणीक लगता है।

एक बार आक्सफोर्ड विश्व-विद्यालय के वनस्पति शास्त्री श्री किटी पाविओर ने न्यूजीलैंड के उस चरागाह वाले इलाके का भ्रमण और निरीक्षण किया, जो वहाँ का सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है। विस्तृत अध्ययन के बाद उन्होंने बताया कि यदि इस नमक वाले क्षेत्र की मिट्टी में से ‘प्रोटोजोआ’ नामक अति सूक्ष्म जीवाणुओं को छोड़ दें, तो शेष जीवाणुओं की संख्या ही एक वर्ग मीटर क्षेत्र में 75 लाख के लगभग होगी। इधर श्री विलियम्सन को पता था कि मनुष्य के शरीर में हाथ के कुछ भागों में लवण की मात्रा बहुत अधिक होती है। यह शरीर के अत्यधिक कोमल अंग होते हैं। उनकी वैज्ञानिक जाँच करने पर पता चला कि वहाँ सचमुच जीवाणुओं की संख्या प्रति वर्ग सेन्टीमीटर लगभग 11 लाख उपस्थित है। कहने का तात्पर्य यह है कि न्यूजीलैण्ड जैसा हरा-भरा इलाका तो मनुष्य के हाथों में ही है। पता लगायें, तो हिमालय जैसी सुरम्य पर्वत-श्रृंखलाएँ और प्रकृति के समृद्ध स्थान अपने शरीर में ही प्राप्त कर सकते हैं। कोई आवश्यकता नहीं कि इन स्थानों में भ्रमण के लिये भारी समय और खर्च की दिक्कत उठायें। आवश्यकता बस वैज्ञानिकों के समान अपनी योग-दृष्टि विकसित करने भर की है।

यह जीवाणु अथवा वनस्पति के वन इस बात के भी प्रमाण हैं कि उन्हें जीवन देने वाली कोई अति सबल और सूक्ष्म सत्ता शरीर में ऐसे ही होनी चाहिये जैसे कि बाह्य प्रकृति के पौधे और वनस्पतियाँ सूर्य से शक्ति पाते रहते हैं। वनस्पतियाँ सूर्य-प्रकाश से सीधे शक्ति ग्रहण करती हैं। उनमें संग्रहीत शक्ति ही जब मनुष्य आहार-रूप में ग्रहण करता है, तो उसे कर्म करने की शक्ति प्राप्त होती है। साधारणतया 200 ग्राम घास से उतनी शक्ति मिलती है, जिससे किसान आधा घण्टा फावड़ा चला सकता है, यात्री डेढ़ घण्टे चल सकता है, लोहार आधा घण्टा कुल्हाड़ी और स्त्री तीन घण्टे कोई भी काम कर सकती है। प्रयोग से देखा गया है कि 770 बीघे जमीन की घास सूर्य से एक दिन में जो शक्ति निकलती है, वह 20000 टन टी.एन.टी. अर्थात् पूरे एक परमाणु बम के बराबर होती है। फिर शरीर रूपी पिंड में यह जो जीवन प्रकाशित कर रहा है, वनस्पतियों को पोषण दे रहा है उसकी शक्ति की तो कल्पना करना ही कठिन है। सच पूछा जाये, तो आत्मा समष्टि सूर्य का ही रूप है-


य इह वा वस्थिरचरनिकराणाँ निज निकेनानाँ मन इन्द्रिय सुरगणाननात्मनः स्वयमात्माऽन्तर्यामी प्रचोदयात्।   -ब्रह्मोपनिषद्


‘हे सूर्यदेव। आप ही सबके आत्मा और अन्तर्यामी हो। संसार में जो भी जड़-चेतन है, उसके प्रेरक आप ही हो।’


योऽसावादित्ये पुरुषः सोऽहम्।   -मैत्रेयी उपनिषद् 6/35


‘जो सूर्य है, सो मैं हूँ’ आदि।

बाह्य सूर्य अपनी जड़-प्रकृति को रस-प्लावित करता है। अतः सूर्य-आत्मा अपनी अन्नमय प्रकृति का पोषण करती है। दोनों एक जैसे सुरम्य हैं। बाहरी सौंदर्य को तो हम देख लेते हैं, पर सांसारिक माया, मोह और आसक्ति के बंधनों में बंधे हम बुद्धिशील प्राणी भी अन्तः सौंदर्य को नहीं देख पाते। महर्षि वशिष्ठ ने ऐसे ही व्यक्तियों को अज्ञानी बताया है और उन्हें ज्ञानवान् जो सांसारिक सौंदर्य को बाहर न देखकर अन्दर ही ढूंढ़ते हैं। बेबीलोन का लटकता बाग संसार के आठ आश्चर्यों में से है। वह संसार के थोड़े-से ही लोगों को देखने को मिलता है, पर उससे भी बढ़कर आश्चर्य यह है कि हम सब बेबीलोन के लटकते बाग होकर भी अपने आप को नहीं जान पाते।




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