हम शक्तिशाली भी तो बनें

January 1964

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जीवन और संसार की सतत क्रियाशीलता, कर्म की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ, सृष्टि का समस्त कार्य-व्यापार ‘शक्ति’ के संस्पर्श से ही संचालित है। शक्ति के बिना संसार और जीवन की कल्पना तक भी नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में शक्ति ही जीवन है। शक्ति का अभाव ही मृत्यु है। शक्ति का स्पर्श पाकर जड़-तत्व भी महत्वपूर्ण बन जाते हैं। निर्जीव कोयला अग्नि के स्पर्श से उस का तेजोमय रूप धारण कर लेता है। ग्रह नक्षत्र सब अपनी-अपनी जगह पर आकाश में अधर लटकते हुए भी शक्ति के कारण ही स्थिर हैं। यदि शक्ति का असन्तुलन पैदा हो जाय तो एक दूसरे से टकरा जायं। समस्त ब्रह्माण्ड ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाय। शक्ति का सहारा लेकर जड़-वस्तुयें भी गतिशील बन जाती हैं। चेतन शक्ति के कारण पञ्च-तत्व का बना मानव शरीर-यन्त्र क्या-क्या गजब के काम कर दिखाता है। बिजली की शक्ति से लोहे, ताम्बे के बने पंखे, मोटर, रेल, बल्ब आदि कितने महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करते हैं? शक्ति असम्भव को भी सम्भव कर देती है।

सामान्य से सामान्य प्रतिभा भी शक्ति का संस्पर्श प्राप्त करके असाधारण बन जाती है। प्रकृति के प्रत्येक स्पन्दन में, संसार के प्रत्येक कार्य व्यापार में, मानव-जीवन के हर एक स्वर में, शक्ति के बोल सुनाई पड़ते हैं। वृक्षों की हरियाली, उनका फूलना-फलना, वर्षा का होना, मेघों का गर्जना, बिजली का चमकना, झरनों का कल−कल नाद, पक्षियों का कलरव, मनुष्य का प्रत्येक कार्य शक्ति का ही परिणाम है। शक्ति के अभाव में प्रकृति निर्मित महत्वपूर्ण मानव-शरीर यन्त्र भी बेकार हो जाता है।

मानव-जीवन में शक्ति एक नैतिक सद्गुण है जिसे प्राप्त किया जा सकता है, बढ़ाया जा सकता है और उसके द्वारा महत्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन भी किया जा सकता है। इसी तरह शक्ति नष्ट भी हो जाती है। वैसे शक्ति का कोई स्थूल रूप तो है नहीं जो उसे पकड़ कर संग्रह कर लिया जाय। मूल-भूत शक्तियाँ सूक्ष्म ही होती हैं, जिन्हें न देखा जा सकता है, न पकड़ा जा सकता है। विद्युत देखी नहीं जा सकती, किन्तु बल्ब, पंखे एवं अन्य उपकरणों में उसका सक्रिय स्वरूप देखा जा सकता है। अभिव्यक्ति के माध्यम से कर्म के रूप में ही शक्ति का अस्तित्व प्रकाश में आता है। जहाँ गति है, कर्मशीलता है वहीं शक्ति का निवास है। मृत शरीर में कोई स्पन्दन नहीं होता, अतः वहाँ पर शक्ति नहीं है।

शक्ति का स्त्रोत गतिशीलता, कर्म में से ही फूटकर निकलता है। अकर्मण्यता, जड़ता से शक्ति के स्त्रोत अवरुद्ध हो जाते हैं, मन्द पड़ जाते हैं और एक दिन पूर्णतः बन्द भी हो जाते हैं। किन्तु कर्मरत मनुष्य नित्य नयी शक्ति प्राप्त करता जाता है। उसके शक्ति स्त्रोत अजस्र रूप से प्रवाहित होते रहते हैं। वह अपने बहुत से काम पूरे कर चुकता है तब तक अकर्मण्य व्यक्ति अपनी कठिनाइयों को ही चर्चा करता हुआ पड़ा रहता है। और कुछ नहीं कर पाता। अकर्मण्य के सोकर उठने से पूर्व ही कर्मवीर बहुत कुछ कर लेता है। उसकी शक्तियाँ अजय धारा की तरह नित्य निरन्तर बहती रहती है। बेकार पड़ी रहने वाली भूमि बंजर और अनुपजाऊ इसके विपरीत समय पर फसल उपजाते रहने पर वह उर्वर, उपजाऊ बनी रहती हैं। काम में आते रहने वाली मशीन काफी समय तक सक्षम बनी रहती है जबकि बेकार पड़ी रहने वाली कुछ ही समय में जंग आदि लग कर अनुपयोगी बन जाती है।

अकर्मण्य की अपेक्षा तो शक्ति का दुरुपयोग इतना बुरा नहीं है जितना उसका उपयोग ही नहीं करना, अकर्मण्य बने रहना। अकर्मण्यता, निष्क्रियता तो बंजर, शून्य, निष्फल,मृतवत् बनने का ही दूसरा नाम है। अकर्मण्यता जड़ता का निवास स्थान है जिसमें न कोई गुण होते हैं न दुर्गुण। वहाँ परिवर्तन, सृजन आदि के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। शक्ति के दुरुपयोग से दुर्गुण, बुरे कार्यों को प्रोत्साहन मिल सकता है किन्तु कुछ महत्वपूर्ण गुण कर्मठता, सक्रियता, अध्यवसाय, आदि तो बने ही रहते हैं। इन गुणों के रहते हुए एक न एक दिन अच्छाई की ओर मुड़ जाने पर मनुष्य शक्तियों का सदुपयोग भी कर सकता है और महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है। झाड़-झंखाड़ जंगलों को काटकर एक दिन उस भूमि में फसल भी उगाई जा सकती है। बुराई की राह पर चलते रहने वाला व्यक्ति भी एक दिन अच्छा बन सकता है। एक भयंकर डाकू , लुटेरा व्यक्ति अपने दृष्टिकोण के बदलते ही पूर्व कर्मठता और सक्रियता के बल पर महर्षि बाल्मीकि के रूप में प्रकट हुआ। अंगुलिमाल डाकू बौद्ध भिक्षु बन गया। विजय के उन्माद में हजारों का रक्त बहाने वाला अशोक महान् अहिंसक बना। इतिहास में इस तरह के असंख्यों उदाहरण भरे पड़े हैं। बुराई को लेकर सक्रिय रहने वाले व्यक्ति के भी सुधरने की आशा की जा सकती है, किन्तु आदर्शों सिद्धान्तों को बघारने वाले उपदेश देने वाले अकर्मण्य, आलसी लोगों के सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं। दरअसल वह व्यक्ति इतना बुरा नहीं कहा जा सकता जो बुरे कर्मों में लगा रहता है बुरा वह है जो अच्छाई के नाम पर अकर्मण्य और आलसी बना बैठा रहता है।

कर्मशीलता, कर्म साधना ही शक्ति संवर्द्धन का प्रमुख आधार है। कर्म कैसा भी क्यों न हो अन्ततः वह कर्म है। सैनिक, व्यापारी, लेखक, उपदेशक, श्रमिक, मजदूर सभी अपने-अपने स्थान पर कर्मशील हैं। किसी कार्य को दृढ़ लगन, निष्ठा, सचाई से साथ-साथ दिल खोल कर करना, ‘कर्म साधना’ है जिससे शक्तियों के स्त्रोत खुलते जाते है। ये शक्ति स्त्रोत ही जीवन में सिद्धियाँ बन जाते हैं। ये सिद्धि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता के वरदान प्राप्त कराती हैं। मनुष्य को समर्थ, शक्तिवान बनाती हैं।

अपने कार्यों में सक्रियता का उद्देश्य, केन्द्र यदि अपनी व्यक्तिगत बातों तक सीमित रहेगा, तो शक्तियाँ भी सीमित और मर्यादित बनी रहेंगी। व्यापक उद्देश्य, विशाल दृष्टिकोण के साथ ही मनुष्य की शक्तियाँ भी व्यापक, सार्वभौम और समर्थ बन जाती हैं। उनका प्रवाह अजस्र और अनन्त बन जाता है। समष्टि के लिए सर्व-जन हिताय कार्य करने वाले महापुरुषों में गजब की शक्तियाँ होती हैं वे महान् कार्यों का सम्पादन करते हैं। चूँकि इन महापुरुषों के कार्यक्रमों का उद्देश्य अनेकों का हित साधन करना होता है अतः अदृश्य रूप से उन सब की शक्ति घनीभूत होकर काम करती है। यही कारण है कि महापुरुषों का काम एक व्यक्ति का न होकर अनेकों का हो जाता है। उनके एक इशारे पर जन-समूह उमड़ पड़ता है। मनुष्य के कार्य, उसकी भावनाओं, विचारों का जितना व्यापक आधार होगा, उतनी ही क्षमतायें शक्तियाँ भी व्यापक बनेंगी। उनके लिए असम्भव नाम का कोई शब्द नहीं रह जाता। प्रकृति भी अपने नियमों का व्यतिरेक कर उन्हें रास्ता देती है।

शक्तियों को सृजनात्मक, पारमार्थिक, रचनात्मक, लक्ष्य पूर्ति के कार्यक्रमों में लगा देना ही काफी नहीं होता उन्हें नियन्त्रित और सुरक्षित रखना भी आवश्यक है, जिस से उनका दुरुपयोग और अपव्यय न हो। मोटर को गन्तव्य स्थान की दिशा में गति दे देना ही काफी नहीं होता। मार्ग के घुमाव, उतार-चढ़ाव, दुर्घटना अन्य परिस्थितियों से बचाने आदि के लिए उस पर ड्राइवर का पूरा-पूरा नियन्त्रण होना आवश्यक है। इसके लिए उसका हाथ सदैव स्टीयरिंग ह्वील पर पैर ब्रेकों पर और निगाह मार्ग पर लगी रहती है। इनमें वह थोड़ी भी भूल-चूक कर दे, अथवा अपना नियन्त्रण खो बैठे तो ऐसी हालत में भयंकर दुर्घटना घटित होकर ड्राइवर और गाड़ी का भविष्य विनाश के रूप में ही परिणित होगा। ठीक इसी प्रकार प्रत्येक कार्य, प्रत्येक दिशा में लगी हुई शक्ति के नियन्त्रण और सुरक्षा का सदैव ध्यान रखना आवश्यक है।

शोर मचाना, जल्दबाजी करना, साधारण-सी बात को असाधारण महत्व देकर उसमें अन्धाधुन्ध लग पड़ना, बेतरतीब उल्टा सीधा काम करना अपनी शक्ति का अपव्यय और व्यर्थ नष्ट करना ही है। इस तरह के व्यक्ति अपनी शक्ति क्षमताओं को जल्दी ही नष्ट करके खोखले हो जाते हैं। फिर उनमें जीवन पक्ष पर आगे कदम रखने की सामर्थ्य भी नहीं रहती और पराजय, असफलता का जीवन बिताते हैं। जो सिपाही अपनी तैयारी करते हुए मौके पर पहुंचने तक में ही थक कर चूर हो गया वह क्या लड़ेगा?

शान्ति, तत्परता, व्यवस्था धैर्य के साथ ही शक्तियां अपना काम ठीक-ठीक करती हैं। हड़बड़ाहट, भाग-दौड़, उछल-कूद, जल्दबाजी से काम तो खराब होते ही हैं साथ ही शक्तियाँ भी व्यर्थ में नष्ट होती हैं। इंजिन में जो भाप काम करती है उसे आगे बढ़ाती है उसका शोर कभी नहीं सुना जाता। व्यर्थ में निकलने वाली भाप ही अधिक शोर करती है। अपने शक्ति भण्डार को अक्षुण्ण, अजय, समर्थ बनाये रखने के लिए उसका दुरुपयोग रोकना चाहिए।

संसार को चलाने वाली सार्वभौमिक शक्ति सर्वत्र अपना काम कर रही है । किन्तु उसकी आवाज कहीं सुनाई नहीं देती। जिस शक्ति की प्रेरणा से वर्षा होती है, सृजन और विनाश का चक्र चलता है, वृक्ष बनता है उसे कही देखा सुना नहीं जाता। गम्भीरता प्रशान्त भाव से बहने वाली नदी की तरह गहरी होती है। उथले पानी में सदैव आवाज होती रहती है। इसी तरह शक्ति का निवास भी धीर, वीर, गम्भीर, प्रशान्त, महामना व्यक्तियों में ही अधिक होता है। ओछे, छिछले स्वभाव के संकीर्णमना व्यक्ति ही अशक्त , निर्बल, सामर्थ्यहीन पाये जाते हैं। जिसका हृदय जितना बड़ा होगा। उसमें उतनी ही बढ़ी शक्ति यों का निवास होगा, अनुशासित, अनुभवी, ज्ञानवृद्ध, सबल मन वाले व्यक्तियों में शक्ति का निवास होता है। उनके प्रत्येक कार्य सुनियोजित, सन्तुलित, विवेकपूर्ण सही-सही परिणाम पैदा करने वाले होते हैं। उसमें ही दूर-दर्शिता, नियन्त्रण, सुरक्षा की गारण्टी होती है। ऐसे व्यक्ति विरोधी वातावरण को भी अनुकूलता में परिणित कर लक्ष्य प्राप्त कर ही लेते हैं।

शक्ति की उपलब्धि के लिए क्षमताओं के विकास के लिए सधे हुए काबू किए हुए, मन, आत्मानुशासित जीवन, उदार दृष्टिकोण, विशाल हृदय, विवेक बुद्धि की आवश्यकता है। इससे मनुष्य को वह सामर्थ्य प्राप्त होती है। जिससे प्रबल विरोध भी टकरा कर स्वयमेव चूर-चूर हो जाते हैं। आत्म संयम, मनोमय, मनोनिग्रह ही शक्ति प्राप्ति की साधना है।

शक्ति एक सामर्थ्य है जिससे दुनिया और जीवन की उपलब्धियां प्राप्त की जाती हैं। शक्ति का उपयोग शुभ कार्यों में करके सद्परिणाम भी प्राप्त किए जा सकते हैं और दुरुपयोग करके दुष्परिणाम भी। इन दानों के अतिरिक्त एक इस तरह के व्यक्ति भी होते हैं जो अपनी अशक्ति दुर्बलता या शिथिलता के कारण न कुछ अच्छा करते हैं न बुरा करते हैं। इससे कोई लाभ तो उन्हें नहीं होता फिर भी जन-साधारण इन्हें भले मान लेता है। किन्तु शक्तिशाली तो वस्तुतः वही है जो सामर्थ्य शक्ति रखते हुए भी दूसरों को हानि न पहुँचा कर लाभ पहुँचाते हैं और अपनी शक्तियों को सत्कर्मों, शुभ कार्यों में ही लगाते हैं। नैतिकता की रक्षा के लिए शुभ की स्थापना, न्याय का व्यवहार, सत्कर्मों के आयोजन के लिए शक्ति को लगाना ही शक्ति सम्पन्नता का आधार होना चाहिए।


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