एकाकी प्रयत्न का प्रतिफल

January 1964

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रेलवे की नौकरी से रिटायर्ड होकर जब गत वर्ष स्थायी रूप से घर वापिस आया तो तलाश किया कि इस नगर में कोई और भी ‘अखण्ड-ज्योति’ का ग्राहक है या नहीं? पता चला कि मैं अकेला ही हूँ। गत गुरु पूर्णिमा पर युग-निर्माण योजना का उद्घाटन हुआ तो जी में आया कि मेरे पास समय तो रहता ही है, क्यों न इस नगर में इस महान कार्य में संलग्न होकर देश, धर्म और अध्यात्म की सेवा करता हुआ जीवन को सार्थक बनाऊँ?

इस वर्ष मैंने अपने निजी पैसे से 10 प्रतियाँ ‘अखण्ड-ज्योति’ की अपने नाम से मँगानी आरम्भ कर दी हैं। आते ही इन पर जिल्द चढ़ा लेता हूँ और थैले में भर कर जन संपर्क के लिए धर्म फेरी पर निकलता हूँ। नगर के धार्मिक वृत्ति के शिक्षित व्यक्तियों के नाम तलाश करके अपनी डायरी में नोट कर लिए हैं। प्रतिदिन तीन चार व्यक्तियों से मिल लेता हूँ। अपना तथा अपनी योजना का परिचय देने के बाद ‘अखण्ड-ज्योति’ की युग-परिवर्तन करने वाली विचारधारा का परिचय देता हूँ, जो प्रभावित होते हैं उन्हें पत्रिका का एकाध लेख तथा स्थल पढ़ने के लिए देता हूं और कहता हूँ कि यदि आप को रुचिकर होगी तो स्वतः आपके घर आकर उसे पढ़ने देने तथा लेने आया करूंगा। इसके लिए आपको कुछ भी खर्च न करना पड़ेगा।

इस प्रस्ताव को आमतौर से स्वीकार कर लिया जाता है। बस पीछे कोई एक ही ऐसा निकलता है जो इस प्रस्ताव को अस्वीकार करे। प्रतिदिन 3-4 व्यक्तियों से इस प्रकार मिलना होते रहने से दो महीने में 200 से अधिक व्यक्ति यों से संपर्क बना लिया। उन्हें पढ़ाने के लिये 10 पत्रिकायें कम पड़ी तो अपने पैसे से ही दस और मँगाई। अब 20 अंक मँगाता हूँ और लोगों को पढ़ाने का क्रम चालू रखता हूँ।

जितने भी व्यक्तियों ने इस जादू भरी पत्रिका को पढ़ा है उसने भूरि-भूरी प्रशंसा की है। लगभग 40 ने दो ही अंक पढ़कर उसका चन्दा भेज दिया और अपनी पत्रिका मँगानी आरम्भ कर दी। युग-निर्माण योजना के अंतर्गत व्यक्तिगत सुधार एवं लोकहित के जो कार्य बताये गये हैं, उनका आरम्भ भी कितने ही घरों में आरम्भ हो गया है। देखता हूँ मेरा समयदान सार्थक हो रहा है। स्वयं तो दूसरों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने में सामर्थ्य नहीं था, पर जो शक्ति उसके लिये समर्थ है, उसका प्रसार करने के लिये संलग्न रहकर लगभग वही कार्य कर लेता हूँ जो कोई सुयोग्य धर्मसेवक कर सकता है। मेरे रिश्तेदार और कुटुम्बी सभी नौकरी पर हैं और मुझ से दूर रहते हैं। उन सब को व्यक्तिगत पत्र लिखकर पत्रिका पढ़ने की प्रेरणा दी है, और एक वर्ष का चन्दा अपने पास से भेजते हुए लिख दिया है कि इस उपहार को घर भर के सब लोग पढ़ें और आगे अपना चन्दा स्वयं भेज कर मँगाया करें। इस उपहार के लिये इन सब लोगों ने उपकार माना है और ध्यानपूर्वक पढ़ते रहने का वचन दिया है।

पेन्शन के 107 रु. मिलते हैं। घर में हम पति-पत्नी दो ही हैं। सत्तर-अस्सी रुपये में काम चल जाता है। बीस रुपया महीना युग-निर्माण का साहित्य मँगाने और पढ़ाने के लिए मैंने निश्चित कर लिया है। जीवन विद्या की अच्छी पुस्तकें उस पैसे से मँगाता रहता हूँ, उससे धीरे-धीरे घर में एक पुस्तकालय बनता जा रहा है। इन पुस्तकों को भी घर-घर पढ़ाने का क्रम चलाऊँगा और चलता-फिरता, पुस्तकालय बनकर लोक जीवन में ज्ञान विस्तार की पुनीत सेवा में लगा रहूँगा।

अब रजत-जयंती का कार्यक्रम सामने आया है तो उसकी चर्चा अपने ज्ञान-परिवार के सभी लोगों में कर दी है। इस समाचार से सब बहुत प्रसन्न हैं। वसन्त-पंचमी को एक अच्छा आयोजन होगा और इसके बाद रचनात्मक कार्यों की भी योजना चल पड़ेगी। सोचता हूँ अकेला व्यक्ति भी धर्म सेवा में लगा रहे तो मेरी ही तरह युग-निर्माण के लिए बहुत कुछ कार्य कर सकता है।

—गंगादीन प्रमोद, सकतिलपुर


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