काशी से कुछ दूर गंगा तट पर एक सरल स्वभाव विद्वान स्वामीजी रहते थे। भजन, स्वाध्याय और छात्रों को संस्कृत पढ़ाना यही उनके प्रमुख कार्य थे।
एक दिन वेद विद्यालय के छात्रों को उन्हें छकाने की सूझी। आठ-दस विद्यार्थी स्वामीजी के पास पहुँचे और कहा—गंगा का पुल टूट गया है, टूट कर रूठा बैठा है। कहता है “मुझे पाँच हजार रुपया दो नहीं तो यहाँ से दस मील दूर जाकर रहूँगा।” हम लोगों ने जनता को कष्ट से बचाने के लिए उतना धन इक्क्ठे करके देने की सोची है सो आपके पास भी आये हैं जो बने सो दीजिए।
स्वामीजी ने पाँच रुपये निकाल कर उन्हें दे दिये।
जो छात्र महात्मा जी के पास पढ़ने आया करते थे उन्हें जब इस धूर्तता का पता लगा तो उनने स्वामी जी से कहा—आप भी बड़े भोले हैं। उनकी इतनी-सी धूर्तता को भी न समझ पाये। भला कहीं पुल भी दस मील हटने को रूठा करता है।
स्वामी जी ने कहा—ऐसी शंका तो मेरे मन में भी उठी थी, पर सोचा वेद विद्यालय के छात्रों पर अविश्वास करने और जनता के कष्ट को कम महत्व देने की बात सोचने से वेद और सेवा के प्रति मेरी श्रद्धा कम होगी। उसे कम होने देने की अपेक्षा पाँच रुपये गवाँ देना अच्छा है।