परिश्रमी बनिए—ऊँचे उठिए

January 1964

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श्रम के प्रति उपेक्षा की वृत्ति आज हममें दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, जिससे हमारे जीवन में अनेकों विषमतायें और समस्यायें उठ खड़ी हुई हैं। जीवन में असंतुलन पैदा हो गया है। तथाकथित पढ़े लिखे, शिक्षित कहे जाने वाले वर्ग में तो यह वृत्ति और भी बढ़ती जा रही है। ऐसे लोग श्रम करना अपना अपमान समझते हैं। श्रम के प्रति उपेक्षा के भाव से अभावग्रस्तता, गरीबी को पोषण मिलता है। क्योंकि किसी भी क्षेत्र में उपार्जन उत्पादन का आधार श्रम ही है। जिस समाज में श्रम के प्रति दिलचस्पी न होगी वहाँ उपार्जन कैसे बढ़ेगा? और इसके फलस्वरूप अभावग्रस्तता का निवारण कैसे होगा? श्रम न करने से शारीरिक प्रणाली असन्तुलित अस्त−व्यस्त अक्षम बन जाती है और अस्वस्थता की समस्या उठ खड़ी होती है। श्रम के अभाव में मनुष्य जीवन के सहज स्वाभाविक सन्तोष, सुख, मानसिक शान्ति से वंचित रहता है क्योंकि श्रम जीवन का धर्म है स्वभाव है। श्रम और जीवन का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। श्रम के साथ जीवन है और जीवन के साथ श्रम। दोनों में से एक को विलग कर देने पर किसी का भी अस्तित्व शेष नहीं रहेगा।

किसी भी उपलब्धि का आधार श्रम है। बिना श्रम के किसी भी क्षेत्र में स्थायी और पूर्ण सफलता अर्जित कर लेना असम्भव है। श्रम की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए नीतिकार ने लिखा है—

“उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनौरथैः।

न हि सुप्तस्य सिहंस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥”

“उद्यम करने से ही कार्यों की सिद्धि प्राप्त होती है। इच्छा करने या सोचते-विचारते रहने से नहीं। सोते हुए सिंह के मुँह में पशुगण अपने आप ही नहीं चले जाते।”

इसमें कोई सन्देह नहीं कि बिना उद्यम किए, श्रम किए और बात तो दूर है पेट की तृप्ति करना ही कठिन होता है। श्रम से खाद्य पदार्थ उपार्जन करने होंगे फिर उन्हें पकाना पड़ेगा और हाथों से मुँह तक पहुँचाना पड़ेगा तभी क्षुधा निवृत्त हो सकेगी। इसी तरह किसी भी कार्य को श्रम कर मूल्य चुकाये बिना उसकी सफलता प्राप्त न हो सकेगी।

संसार में जो कुछ भी ऐश्वर्य, सम्पदायें, वैभव, उत्तम पदार्थ हैं केवल श्रम की ही देन है। श्रम में वह आकर्षण है कि विभिन्न पदार्थ सम्पदायें उसके पीछे-पीछे खिंचे चले आते हैं। श्रम मानव को परमात्मा द्वारा दी गई सर्वोपरि सम्पत्ति है। जहाँ श्रम की पूजा होगी वहाँ कोई भी कमी नहीं रहेगी। विनोबा के शब्दों में, “परिश्रम हमारा देवता है।” जो हमें अमूल्य वरदानों से सम्पन्न बनाता है। परिश्रम ही उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करता है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारी अभाव-ग्रस्तता, गरीबी, दीनता का बहुत कुछ कारण पर्याप्त और सही ढंग से श्रम न करना ही है। सामने पड़ा हुआ काम जब श्रम का अंजाम चाहता है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे सोचते रहते हैं तो काम हमें श्राप देता है और उसके फलस्वरूप उसके लाभ से हम वंचित रह जाते है। प्रतिदिन उगता हुआ सूर्य हमारे लिए सक्रिय जीवन का, श्रमशीलता का सन्देश लेकर आता है किन्तु हम दिन भर गपशप में, खेल तमाशों में, आलस्य और प्रमाद की तन्द्रा में इस सन्देश की ओर ध्यान नहीं देते फलस्वरूप उस दिन मिलने वाली सफलता और उपलब्धियों से हमें वंचित रहना पड़ता है। हम कोई उन्नति नहीं कर पाते। यह निश्चित है कि बिना श्रम के कोई भी उन्नति प्राप्त नहीं कर सकता ।”

परिश्रम धरती पर मानव जीवन का आधार है। श्रम के अभाव में मनुष्य को दुखद परिस्थितियों में गिरने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। कार्लाईल ने कहा है—”श्रम ही जीवन है।” अकर्मण्य, निष्क्रिय व्यक्ति को विभिन्न पदार्थों की उपलब्धियों और वरदानों से वंचित रहना होता है जिससे अभाव, असहायता, दीनता को विषमयी घूँट पीने के लिये बाध्य होना पड़ेगा। इन परिस्थितियों में अपमानित, लाचार परतन्त्र जीवन मृत जीवन से भी बुरा है।

प्रकृति का नियम है कि जो वस्तु उपयोग में नहीं आती वह जल्दी ही नष्ट हो जाती है। विभिन्न पेचीदगियों से भरा मानव शरीर श्रम करने के लिये मिला हुआ है। लम्बे-लम्बे हाथ, पैर, बुद्धि, एवं विभिन्न अवयव निरन्तर किसी न किसी काम करने के लिए मिले हैं। जब इस शरीर यन्त्र का कोई उपयोग नहीं किया जाता तो यह उसी तरह विकृत और नष्ट होने के लिये बाध्य होता है जिस तरह बेकार पड़ी हुई मशीन जंग लगकर तथा खराब होकर अनुपयोगी हो जाती है। श्रम से शरीर यन्त्र सक्रिय रहता है, इससे इसके विभिन्न अवयव ठीक-ठीक काम करते हैं। उनमें जीवन और सजीव रक्त का दौरा होता रहता है। इसीलिये श्रमशील व्यक्ति सदैव स्वस्थ और प्रसन्नचित रहता है।

आजकल दिनों-दिन बढ़ती हुई स्वास्थ्य की शिकायत का एक बड़ा कारण हमारे दैनिक जीवन में कठोर श्रम का अभाव भी है।

परिश्रम दो प्रकार का होता है एक शारीरिक और दूसरा मानसिक। आवश्यकता इस बात की है कि शारीरिक और मानसिक श्रम का सन्तुलन बनाये रक्खा जाय। दोनों के सन्तुलन में ही श्रम की पूर्णता निहित है। अकेला मानसिक श्रम अपूर्ण है तो शारीरिक श्रम भी मानसिक योग के अभाव में अपूर्ण रह जाता है। विचार करने और कार्य करने की सम्मिलित शक्ति से ही श्रम का पूर्ण स्वरूप बनता है और उसी से किसी भी क्षेत्र में परिपूर्ण सफलता भी अर्जित की जा सकती है। लेकिन खेद है इस विषय में हमारे जीवन में दिनों-दिन असंगतता बढ़ती जा रही है। मानसिक शक्ति सम्पन्न शिक्षा प्राप्त लोग शारीरिक श्रम नहीं करना चाहते। उससे बचते हैं फलतः जीवन की सफलताओं में वे एकाँगी और अपूर्ण तो रहते ही हैं साथ ही उनकी शारीरिक स्थिति गड़बड़ हो जाती है।’ “स्वास्थ्य की शिकायत” का रोग इन तथाकथित शिक्षित कहे जाने वाले, केवल मानसिक श्रम करने वालों में अधिक फैला हुआ है।

दूसरी ओर हमारे देश में जो शारीरिक श्रम करते हैं उनका मानसिक विकास नहीं हुआ, वे प्रायः अपढ़ और निरक्षर हैं। अतः बहुत कुछ परिश्रम करके भी हमारे देश का श्रमिक विपन्न जीवन बिताता है। अन्न के ढेर लगा देने वाले किसान अभावग्रस्त जीवन बिताते हैं। कारण यह कि मानसिक विकास न होने के कारण अपने श्रम का सही-सही सदुपयोग वे नहीं कर पाते। दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान के आचार्य और जगद्गुरु कहला कर भी शरीर श्रम के अभाव में हम उन तथ्यों को व्यावहारिक रूप न दे सके। आज भी स्थिति यही है कि उच्च शिक्षा प्राप्त कर या किसी विषय के स्नातक भी बन कर निकलने वाले सरकारी नौकरियों के सिवा अपना कोई और लक्ष्य नहीं रखते। कृषि विज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले फार्म या खेत में काम करते हुये न दिखाई देकर किसी दफ्तर में कर्मचारी होंगे कागजी महल की रचना कर रहे होंगे।

इस दृष्टि से पाश्चात्य देशों से हमें सीख लेनी चाहिये जहाँ लोग उच्च शिक्षा प्राप्त करके भी खेतों में काम करते हुए दिखाई देंगे। अफसर होकर भी अपने छोटे-छोटे कामों से लेकर बड़े कामों को चाहे वे शारीरिक हो या मानसिक बड़ी मुस्तैदी के साथ पूरा करते हैं।

पर्याप्त श्रम न करने से मनुष्य को एक आन्तरिक असंतोष, अशान्ति-सी अनुभव होती है। परमात्मा ने मानव-जीवन कुछ करने के लिये दिया है। जो प्रतिफल इस उत्तरदायित्व के प्रति सजग रहता है, परिश्रम के सम्बल से विश्व के विकास और निर्माण में योगदान देता रहता है उसे एक सुखद और आन्तरिक सहज सन्तोष प्राप्त होता है। आप प्रतिदिन अपने सामने आये हुए काम को पूरी दिलचस्पी और मुस्तैदी के साथ करें तो शाम को सोते समय आपको सुखद संतोष का अनुभव होगा। आप शान्ति के साथ विश्राम कर सकेंगे। आपको सुखद नींद आयेगी। इसके विपरीत आप एक दिन भी बिना कुछ किए नष्ट कर दें तो आपको उस दिन न भोजन अच्छा लगेगा न भलीप्रकार नींद आयेगी न शरीर स्वस्थ महसूस होगा। एक तरह का अभाव असंतोष अशान्ति-सी दिल को खटकती रहेगी। जो समस्त जीवन इसी तरह व्यर्थ नष्ट कर देते हैं कुछ श्रम नहीं करते उनका सम्पूर्ण जीवन अशाँति, असन्तोष, उद्विग्नता से भरा रहता है और वे जीवन की चिर सन्ध्या में भी अशान्त होकर प्रयाण करते हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि हम जीवन में श्रम को स्थान दें। श्रम को जीवन मन्त्र बनायें। महात्मा गाँधी ने “शरीरश्रम” को एक व्रत मानकर मानव जीवन के लिये आवश्यक माना है। अपने प्रति और समाज के प्रति एक अधोमुखी प्रवृत्ति अकर्मण्यता, हरामखोरी, काम-चोरी, श्रम के प्रति उदासीनता ही है। व्यक्तिगत और सामाजिक सुख समृद्धि, विकास, उन्नति, कुशलता के लिए हमें जीवन में श्रम की प्रतिष्ठा करनी होगी।


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