वाणी का व्यभिचार रोका जाय

January 1964

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अपने मनोभाव, विचार, इच्छा आकाँक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य शब्द का आश्रय लेता है। शब्द वाणी और लिपि के माध्यम से व्यक्त होता है। जब मनुष्य कुछ कहना चाहता है या अपने किन्हीं भावों को व्यक्त करना चाहता है तो उन्हें लिखकर अथवा बोलकर ही व्यक्त करता है। जहाँ तक बोलने की बात है यह वक्त और श्रोता के बीच विचार विनिमय का तत्कालिक किन्तु अस्थायी माध्यम है। लिपि के माध्यम से कही गई बात अधिक समय तक स्थायी रहने वाली होती है।

प्रयोग चाहे किसी भी रूप में हो मनुष्य के विचारों, भावों आदि की अभिव्यक्ति के लिए शब्द एक महत्वपूर्ण माध्यम है। मनुष्य ही नहीं इतर प्राणियों में भी अपनी भाषा, अपने शब्द होते हैं, जिनके माध्यम से वे परस्पर अपने भाव प्रकट करते हैं, एक बन्दर किसी विपत्ति में हो तो वह इस तरह चिल्लाता है कि उसे सुनकर दूसरे बन्दर एकत्र हो जाते हैं। इसी तरह चिड़ियाँ, कुत्ते, बिल्ली आदि प्राणी भी अपने विशेष शब्दों के माध्यम से अपने मनोभावों को व्यक्त करते हैं। इतना अवश्य है कि पशुओं की वाणी का दायरा सीमित और परम्परागत ही रहता है जबकि मनुष्य ने अपने बुद्धिबल से भाषा के महत्वपूर्ण विज्ञान को जन्म दिया है।

शब्द, वाणी मनुष्य के लिए ज्ञान का द्वार खोल देती है। भर्तृहरि ने लिखा है “संसार में शब्द के बिना ज्ञान प्राप्ति सम्भव नहीं।” बिना सुने पढ़े, ज्ञान प्राप्ति असम्भव है। बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है “सर्वेषाँ वेदानाँ वागेबायतनम्।” “वाक् ही ज्ञान का एकमात्र अधिष्ठान है।” “शब्द-कामधेनुः” शब्द कामधेनु हैं जो मनुष्य के समक्ष अपार ज्ञानराशि का भण्डार खोल देते हैं।

किन्तु जिस तरह कल्प-वृक्ष के नीचे बैठकर मनुष्य महान् ऐश्वर्य का अधिकारी भी बन सकता है तो दुष्कल्पनाओं के द्वारा विनाश को भी प्राप्त हो सकता है, उसी तरह शब्द भी अपने अच्छे या बुरे परिणाम उपस्थित करता है। मनुष्य जो कुछ बोलता है उसका अच्छा या बुरा प्रभाव समाज पर पड़ता है और हृदयानुकूल ही बोलने वाले को परिणाम प्राप्त होते हैं। जिस तरह मनुष्य के अच्छे कार्यकलाप दूसरों को सुख देते हैं और उससे स्वयं को सन्तुष्ट करते हैं, बुरे कार्यों से दूसरों का अहित होता है स्वयं के जीवन में भी अशान्ति का कारण बनते हैं, उसी तरह अच्छे या बुरे शब्द भी परिणाम पैदा करते हैं। सन्त कबीर ने कहा है—

“शब्द शब्द सब कोई कहें शब्द के हाथ न पाँव।

एक शब्द औषधि करे एक शब्द करे घाव॥

एक शब्द सुखरास है एक शब्द दुखरास।

एक शब्द बन्धन कटें एक बनें गल फास॥

शब्दों का सदुपयोग करके भली प्रकार बोलकर दूसरों को सुख पहुँचाया जा सकता है, तो दुरुपयोग करके दुःख।

महाभारत के आदि पर्व में एक स्थान पर आया है कि “वाणी से भी बाण-वृष्टि होती है। जिस पर इसकी बौछारें पड़ती हैं वह दिन-रात दुःखी रहता है।” इसी मत को प्रतिपादित करते हुए सन्त कबीर ने कहा है—

मधुर वचन है औषधी कटुक वचन है तीर।

श्रवन द्वार पै संचरे साले सकल शरीर॥

मनुष्य की वाणी अमृत भी है और विष भी। औषधि भी है और विषबाण भी। शब्दों का सदुपयोग करके अपना और समाज का बहुत बड़ा हित साधन किया जा सकता है तो दुरुपयोग करके दूसरों को क्लेश हानि पहुँचाई जा सकती है और अपना अहित भी किया जाता है।

वाणी के दुरुपयोग करने को शास्त्रकारों ने वाचिक पाप कहकर उसकी भर्त्सना की है। महाराज मनु ने वाणी के दुरुपयोग की निन्दा करते हुए कहा है।

वाच्यार्या नियताः सर्वेवां मूला वाग्विनिसृता।

ताँ तु यः स्तेन वेद्वाचं सर्व स्तेय कृन्नरः॥

—मनुस्मृति 4। 256

मनुष्यों के सभी व्यवहार वाणी द्वारा ही होते हैं। हमारे विचारों के आदान-प्रदान के लिए वाणी के सिवा कोई अन्य माध्यम नहीं। जो मनुष्य वाणी का व्यभिचार करता है, उसका दुरुपयोग करता है वह सब पूँजी की ही चोरी करता है।”

वाणी का दुरुपयोग मनुष्य को जीवन के सभी पहलुओं में असफल बनाता है। झूँठ बोलकर धोखा देकर चालाकी भरे शब्दों का व्यवहार करके मनुष्य दूसरों को विश्वास से रहित बना देता है। ऐसे व्यक्ति यों का कोई साथ नहीं देता। धूर्त, चालाक, लम्पट, वाचाल व्यक्तियों से सभी बचने का प्रयत्न करते हैं।

खेद का विषय है आज के युग में भाषा विज्ञान का जितना विकास हुआ है, वाणी को प्रभावशाली वैज्ञानिक रूप देने में जितना अन्वेषण हुआ है उतना ही वाणी का व्यभिचार बढ़ गया है। आजकल शब्द ज्ञान के स्रोत न रहकर वाणी विलास, तथाकथित वाक्चातुरी या छल, दूसरों को उल्लू बनाने का साधन बनते जा रहे हैं। सच को झूठ और झूठ को सच बनाने के लिए किया जाने वाला शब्दों का जोड़ वाणी व्यभिचार नहीं तो क्या है? परस्पर बातचीत, संवाद, लेखन आदि में शब्दों का होने वाला दुरुपयोग आज कम नहीं है।

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो,

न च प्रमादात्तपसोवाप्यलिंगात्।

एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वाँ-

स्तस्यैव आत्मा विशतेब्रह्मधाम।

यह आत्मा बलहीनों को प्राप्त नहीं होता। न प्रमादियों को मिलता है। न अविधिपूर्वक तप वालों को उपलब्ध होता है। किन्तु जो विवेकवान् साधक उचित मार्ग से प्रयत्न करते हैं उन्हीं का आत्मा ब्रह्मधाम में प्रवेश पाता है।

अखबारों में दिए जाने वाले झूठे सनसनीखेज समाचार, भद्दी और दुष्प्रवृत्तियों को भड़काने वाली आकर्षक विज्ञापनबाजी, अश्लील साहित्य ने लिपि में शब्दों की दुर्दशा की है, तो परस्पर बोलचाल में बरती जाने वाली चालाकी, वाक्चातुरी, झूठ, छल, फरेब आदि ने सम्भाषण में। तात्पर्य यह है कि हर दिशा में वाणी व्यभिचार, शब्दों का दुरुपयोग काफी बढ़ गया है। शब्द जो मनुष्य के ज्ञानवर्द्धन और प्रेरणा देने का महत्वपूर्ण साधन हैं वह दुरुपयोग करने पर विषतुल्य बन जाता है। विभिन्न रूपों में होने वाला शब्दों का दुरुपयोग आज हमारा कुछ कम अहित नहीं कर रहा। विश्वास ही नहीं होता किसी के कहे या लिखे पर। इसमें कोई सन्देह नहीं कि दुष्ट दुराचारी व्यक्ति भी अपनी वाक्चातुरी से अपने को भला सिद्ध कर सकता है। कोई बदमाश लोग शब्दचातुरी के द्वारा ऐसा चकमा देते है कि अच्छों-अच्छों को भी धोखा खा जाना पड़ता है।

लोग बिना सोचे विचारे वृत्तियों की उत्तेजनावश चाहे कुछ बोल जाते हैं। किसी बात पर तनिक ताव आया कि दूसरों को गाली गलौच उल्टा-सीधा कहना शुरू किया। ऐसी स्थिति में बातचीत का उद्देश्य-अर्थ आवश्यकता को न समझकर मन चाहे बकते जाना भी वाणी व्यभिचार ही है। फ्रेंकलिन ने कहा है पैर फिसलने की गल्ती को ठीक किया जा सकता है किन्तु जबान फिसल जाने पर उसे ठीक करना सम्भव नहीं होता।” पता नहीं दिनभर में हमारी जबान कितनी बार फिसलती है, कभी इसका हमने ध्यान किया है?

अपनी ही बात को सब कुछ मान उसे सर्व सम्मत मान लेना वाणी का दुरुपयोग है। इसी तरह व्यवहार में अति चतुरता का होना शब्दों को निर्जीव बना देता है। ऐसी चतुराई से दूसरों के हृदय में अश्रद्धा उत्पन्न हो जाती है और श्रद्धा के अभाव में शब्दों का कोई महत्व नहीं होता।

इस तरह हम क्षण-क्षण, बोलकर, लिखकर तरह-तरह से शब्दों का दुरुपयोग करते हैं, और वाणी के महत्व, शक्ति को क्षीण करते हैं। तथाकथित वाणी व्यभिचार से हम अपना और समाज का इतना बड़ा अहित करते हैं कि बुरे कार्य करने पर भी इतना न हो। किसी भी रूप में शब्दों के इस दुरुपयोग, वाणी के व्यभिचार को रोका जाना चाहिये। बोलचाल में, लिखने पढ़ने में, व्यवहार में, जीवन के सभी क्षेत्रों में वाणी देवी को जनहितकारिणी, ज्ञानदायिनी, परस्पर सुख पहुँचाने वाली मानकर सच्चाई के आसन पर प्रतिष्ठित करना होगा, तब सचमुच वह हमारे लिए कामधेनु ही सिद्ध हो सकेगी।


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