मित्रता की आवश्यकता और उसका पोषण

January 1964

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अपनी राह पर एकाकी चलना कितना अखरता है? इस पर भी यदि मार्ग ऊबड़-खाबड़, लम्बा, भयावना हो तो राहगीर के लिए आगे बढ़ना और भी कठिन हो जाता है। कदाचित् ऐसे में राही को कुछ हमसफर साथी मिल जावें तो उसकी वह यात्रा कितनी सरल और सुखद बन जाय इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जीवन यात्रा का लम्बा पथ जो अनेकों उतार-चढ़ाव, परिवर्तन, अनुकूल, प्रतिकूल, सुखद दुःखद परिस्थितियों से निर्मित होता है, इस पर एकाकी चल सकना जन साधारण के लिए सम्भव नहीं होता। मनुष्य अकेला तो सुख भी नहीं मना सकता। सुख की अनुभूति का माध्यम, उसे व्यक्त करने के लिये भी साथियों की आवश्यकता होती है। जीवन-पथ पर चलने के लिये अभिन्न संगी-साथी, सहयोगी की आवश्यकता मानव-जीवन का एक अनिवार्य पहलू है। विवाह का आधार तथा संसार के अन्य नाते रिश्तों का मूल कारण भी यही है। मानव-जीवन विभिन्न क्षेत्रों में बँटा हुआ है। इन सभी में पूर्णता, सफलता प्राप्त करने के लिए उसे साथी, सहयोगी, मित्रों की आवश्यकता पड़ती है। बिना मित्रों के सहयोग के जीवन के अधिकाँश कार्यक्रम असफल ही रहते हैं। प्रायः सभी क्षेत्रों में मित्रों की आवश्यकता रहती है।

जीवन की कटु, दुःखद, अनुभूतियों से मन में तरह-तरह के विचार, भाव एवं ग्रन्थियाँ अपना अस्तित्व गुप्त मन में कायम कर लेते हैं। और ये सब जहर की तरह प्रतिक्रिया पैदा कर मनुष्य को मन-ही-मन घुलाते रहते हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य यदि दिल खोल कर अपनी व्यथा किसी को कह सके, छिपे भावों को व्यक्त कर सके तो सहज ही उसका मन हल्का और स्वस्थ हो जाय, साथ ही अपने साथी से प्रेरणा प्रोत्साहन, पाकर मनुष्य फिर से आशा के साथ जीवन पर गतिशील हो जाय।

एकाकीपन के कष्ट से बचने के लिये, जीवन व्यापार में सहयोग देने के लिये, सुख-दुःख में अभिन्न साथ के लिये मनुष्य को मित्रों, दोस्तों, साथियों की आवश्यकता होती है। कोई भी व्यक्ति अपने आप में पूर्ण नहीं होता अतः अनेक व्यक्ति यों से संपर्क बनाकर मनुष्य पूर्ण बनने का प्रयत्न करता है। मनुष्य को जीवन में अभिन्न और योग्य मित्र मिल जाना एक दैवी वरदान है, संसार की सबसे बड़ी सम्पत्ति है और जीवन की सफलता का महत्वपूर्ण आधार है। सचमुच वे लोग भाग्यशाली हैं जिन्हें अभिन्न मित्र मिल जाते हैं।

सद्गुण, सहानुभूति, आत्मीयता, सज्जनता, उदारता, सदाचार आदि के आधार पर मित्रता के सम्बन्ध कायम होते हैं। मित्र, संगी, साथी, सहयोगी प्रयत्न करने पर मिल भी जाते हैं किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात है मित्रता को स्थिर और जीवित रखना, उसे विकसित करना। संसार में सच्चे मित्रों की कमी नहीं किन्तु मित्रता को जीवित कैसे रखा जाय, उसे दिनों-दिन मधुर और गहरा कैसे बनाया जाय इस ज्ञान के अभाव में मिले हुये मित्र भी दूर हो जाते हैं। अपने भी पराये बन जाते हैं।

मैत्री सम्बन्धों में, संगी, साथी सहयोगियों के बीच में अभिमान के लिये कोई स्थान नहीं। दूसरे शब्दों में मित्रता, आत्मीय सम्बन्धों का प्रमुख शत्रु अहंकार है। अभिमानग्रस्त व्यक्ति सदैव अपनेपन को विजयी रखने का प्रयत्न करता है। ऐसी स्थिति में दूसरे के स्वाभिमान को नीचा होना पड़ेगा, जिसे कोई भी जीवन वाला, आत्मगौरव को समझने वाला व्यक्ति स्वीकार नहीं करेगा। वस्तुतः दो मित्रों में प्रत्येक का अपने-अपने स्थान पर एक सा स्थान है। उम्र में सम्पन्नता या ज्ञान में छोटे-बड़े होने पर भी मित्रता के नाते दोनों समान हैं। यह बात अलग है कि उनमें एक स्वेच्छा से दूसरे का सम्मान करता है उसे बड़ा समझता है। किन्तु अपने को बड़ा और दूसरे को छोटा समझना मित्रता के लिए घातक विष है। इस तरह की मित्रता अधिक दिन नहीं टिकती न उसमें असलियत ही रहती है। एक दूसरे को समान समझना, अपनेपन को प्रधानता न देना, मित्रता के लिये आवश्यक है। जो लोग अपनी ही बात को तरजीह देते हैं, अपने ही मत को यही मानते है उन्हें कभी सच्चे मित्र नहीं मिलते। ऐसे व्यक्ति यों के साथ स्वार्थलोलुप, चापलूस व्यक्ति ही मित्रता का स्वाँग रचकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। अभिमान घृणा को जन्म देता है। अभिमानी अपने को श्रेष्ठ समझता है, दूसरों को गिरा हुआ। इससे घृणा को प्रश्रय मिलता है और घृणा का तीव्र विष मित्रता को सदा के लिये नष्ट-भ्रष्ट कर देता है।

मित्रता, त्याग, बलिदान, और आत्मोत्सर्ग पर जीवित, रहती है। जहाँ स्वार्थ, लाभ की कामना रहती है वहाँ मित्रता टिक नहीं सकती। मनुष्य कितनी ही सावधानी बरते, किन्तु एक न एक दिन स्वार्थ की भाषा प्रकट हुए बिना नहीं रहती। साधारण से व्यवहार में भी स्वार्थपरता का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है।

आज-कल बाजार की मिलावट, सेल्समैनों की-सी हमदर्दी, व्यभिचारी के सेवा त्याग के स्वाँग की तरह ही मित्रता का भी रूप बन गया है। उपयोगी व्यक्ति , कुछ लाभ पहुँचाने वाले लोगों से ही मित्रता के झूँठे सम्बन्ध जोड़े जाते हैं—परस्पर बड़े-बड़े आदर्श, त्याग, सेवा, वायदों की लम्बी-लम्बी बातें की जाती हैं, किन्तु अफसोस है ऐसी मित्रता स्वार्थ की कठोर देहली से टकराकर कुछ ही समय में नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। ऐसे मित्र बाजार में मिल जाते हैं। दुनिया के बाजार में फैले हुए नकली माल की तरह ही आज-कल ऐसी नकली मित्रता का ही चारों ओर बोलबाला है। यदि कहीं सच्ची मित्रता है तो उसकी संख्या उसी तरह है जैसे कंकड़ों के पहाड़ में दो तीन हीरे के टुकड़े।

परस्पर निःस्वार्थ ही और इसके साथ ही एक-दूसरे की समस्याओं को समझते हुए बिना माँगे कहे स्वेच्छा से एक-दूसरे का उदारतापूर्वक सहयोग करना ही सच्ची मित्रता की परीक्षा होती है। मित्रता परस्पर एक आत्मिक समझौता है जिसमें एक की व्यथा दूसरे की व्यथा, एक-दुःख दूसरे का दुःख होता है।

मैत्री-सूत्रों से जहाँ तक हो किसी तरह की माँग-पेश न की जाय। स्पष्ट तौर पर तो माँगना सर्वथा वर्जित है। मित्रता के पीछे किसी तरह की आशा महत्वाकाँक्षायें नहीं रखनी चाहिये। क्योंकि सम्भव है वे पूर्ण न हों और फिर मनुष्य को निराशा का सामना करना पड़े। वैसे आशा-आकाँक्षा में सदैव स्वार्थ भाव निहित होता है। एक की पूर्ति हो जावे तो दूसरी उठ खड़ी होती है।

मित्रता आन्तरिक प्रसन्नता की वृद्धि, स्वान्तसुखाय मनोभूमि के लिये एक सामाजिक संयोग है। बाह्य लाभ, स्वार्थ, आशा, आकाँक्षाओं के लिये उसमें कोई गुंजाइश नहीं है। वस्तुतः मानसिक और नैतिक क्षेत्र में समानता, सामंजस्य, एकरसता का नाम ही मित्रता है। इनमें जितनी प्रगाढ़ स्थिति, और अनन्यता पैदा होगी उतना ही मित्रता का स्वरूप भी निखरता जायगा। बाह्य जीवन में ही नहीं अपितु मानसिक संयोग जितना अधिक होगा मित्रता भी उतनी ही सुखकर होगी।

मित्रता कोई सौदा अथवा जुए का दाव नहीं है जिसमें तकाजे किए जायें, हठ किया जाय। यह तो स्वेच्छा प्रेरित एक दूसरे से मानसिक सान्निध्य, अनन्यता, प्राप्त करने का आधार है। जब किसी बात के तकाजे किए जाते हैं, कोई बोझ डाला जाता है तो लोग ऐसी मित्रता से पीछा ही छुड़ाना चाहेंगे। एक दूसरे के मनोभावों का ध्यान रखते हुये यह प्रयत्न किया जाय जिससे एक दूसरे को इन्कार करने का कभी अवसर ही न आये। कभी इन्कार भी करना पड़े तो वह भी हार्दिक सचाई के साथ अपनी परिस्थिति बताते हुए। अवहेलना, घृणा, उकताहट का भाव न हो। इससे मित्रता में फर्क नहीं पड़ेगा।

बुरे स्वार्थों को रखकर की जाने वाली सन्धिबद्ध मित्रता एक बुरा व्यापार सिद्ध होती है। पृथ्वीराज चौहान से बदला लेने को जयचन्द ने मुहम्मदगौरी से मित्रता की, किन्तु वह भी अंत में पकड़ कर मार डाला गया। किसी भी पाप-कर्म, दुष्कर्म, अनीति के लिये होने वाली मैत्री मित्रता नहीं। डकैत, चोर, गुण्डे, शराबी, जुआरियों कि मित्रताएं प्रायः नष्ट-भ्रष्ट होती देखी जाती है। इस तरह के मित्र परस्पर एक दूसरे की जान ले बैठने पर भी उतारू हो जाते हैं।

मित्रता का अर्थ है पूरा भरोसा, पूर्ण विश्वास जिसने अंतर्गत एक दूसरे की गुप्त भावनायें विचार परस्पर मन में उतने ही रहें जितनी उनके स्वयं के मन में रहती हैं जब कोई व्यक्ति अपने मित्र की गुप्त बातें दूसरों से कहते फिरेगा तो वह उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन जायगा। मित्रता दुश्मनी में बदल जाती है। अतः जब तक एक-दूसरे पर पूर्ण विश्वास न हो एक दूसरे से अभिन्न रूप में घुल न जायँ, दो हृदय मिलकर एक न बन जायँ तब तक अपने गुप्त भेद किसी को न बतायें जायें। रहस्यपूर्ण जीवन की बातें तो अक्सर छिपाकर ही रखी जायं। क्योंकि मनुष्य कमजोरियों का पुतला है। कभी न कभी भूल हो सकती है, उन्हें प्रकट किया जा सकता है कि जिन बातों को अपने मित्रों से छिपाकर रखना पड़े, उन्हें सर्वथा छोड़ ही देना चाहिये।

त्रुटियाँ सभी में होती हैं। सभी कुछ न कुछ भूल भी कर बैठते हैं। ऐसी स्थिति में अपनी ही भूल गल्ती मानकर उदारता क्षमा का परिचय देकर मित्र के लिये मार्गदर्शन देना चाहिए। शिकायत करना, रूठना, मनाना, आक्षेप करना मित्रता के लिये घातक विष है।

कभी-कभी गलतफहमी से कदाचित कुछ विरोध द्वेष की भावना पैदा भी हो जाय तो उससे विचलित नहीं होना चाहिये। न अपने को सही सिद्ध करने के लिए अन्य उपाय ही करने चाहिये। वरन् निश्छलता के साथ अपने स्थान पर स्थिर रहकर अपना भाव, दृष्टिकोण ठीक बनाए रखा जाय। स्वयं प्रभावित न हो हृदय से दूसरे पक्ष के प्रति हमदर्दी, सद्भावना, क्षमा, उदारता का व्यवहार किया जाय। इससे गलतफहमी भी जल्दी ही दूर होगी। भूलों को सुधारने, उन पर विचार करने को समय मिलेगा और मित्रता अपने वास्तविक रूप में फिर निखर उठेगी।

मित्रता के लिये एक महत्वपूर्ण गुण है हृदय की विशालता, उदारता और महानता। इसके कारण विपत्ति और गरीबी में भी मनुष्य को मित्रों की कमी नहीं रहती। हृदय की इस विकसित अवस्था से जंगल में भी मित्र मिल जाते हैं। पशु-पक्षी भी मित्र बन जाते हैं। राम वन में गये तो भील, बन्दर, भालू गिद्ध आदि पशु-पक्षी भी उनके अभिन्न मित्र बन गये। इसका मुख्य कारण उनके हृदय की महानता थी जिससे वे सभी को आत्मवत् मानकर निःस्वार्थ भाव से प्रेम करते थे।

उदारतापूर्वक एक दूसरे की सराहना, प्रोत्साहन मित्रता को सजीव और दृढ़ बनाता है। साथ ही इससे गिरे हुये उठते हैं और सफलता प्राप्त करते है। व्यंग विषभरे बाण की तरह हैं जो मनुष्य के हृदय के बीच की ठोस मित्रता को काट देते हैं। इनसे सदा दूर रहा जाय। सुकोमल व्यवहार उदारता आदरभाव मित्रता को चिरस्थायी बनाने के लिये आवश्यक है।


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