दिव्य आलोक -सा प्राण में भर गई—
यह अयाचित तुम्हारी कृपा की किरण!
गीत की टेक को अन्तरा मिल गये—
टूटते कंठ को कुछ सहारा मिला।
भाव भीनी तरी को लहर की शरण—
सुप्त मझधार को था किनारा मिला ॥
पग स्वयं राह अपनी समझने लगे
लक्ष्य की ओर उन्मुख प्रगति के चरण।
कामना बेलि पर आश की पंखुरी—
भावना वृत पर कुछ विहंसते सुमन।
मौनता ही स्वयं अब मुखर हो गयी—
गुञ्जरित मोद से मुग्ध वातावरण ॥
व्योम की कालिमा ज्योति की रेख बन
कर रही है तिमिर सिन्धु का संचरण!
एक आवेश नूतन हृदय में जगा —
कर्म के प्रति सबल चेतना मिल गयी।
मैं जिसे खोजती थी मिला वह नहीं—
खोजने को नयी प्रेरणा मिल गयी॥
प्राप्तिमय तुष्टि की अब नहीं चाहु है—
तुष्टिमय प्यास का कर चुकी है वरण!
विद्यावती मिश्र
*समाप्त*