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January 1964

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करिप्यामि कयिष्यामि करिष्यामीति चिन्तया।

मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामिति विस्मृताम्॥

करूंगा, करूंगा, करूंगा इस चिन्ता में मनुष्य

यह भूल जाता है कि मरूंगा, मरूंगा, मरूंगा।

सहस्रमपि चेद् वाचो अनर्थ पद संहिताः।

एकमर्थ पदं श्रेयो यच्छ त्वोप शाम्यति॥

बकवाद भरे बहुत भाषण प्रवचन व्यर्थ हैं। वह एक ही शब्द पर्याप्त हैं जिससे किसी को शान्ति प्राप्त हो।

बहुत से लोग तो जान बूझकर ऐसे जाल और ढोंग रचते हैं और सर्व-साधारण को उसमें फँसा लेते हैं। उदाहरणार्थ अनेक व्यक्ति घोषणा कर देते हैं कि हमको अमुक देवता ने स्वप्न दिया है कि —”मैं फलाँ स्थान पर गड़ा हूँ, तुम मुझे बाहर निकाल कर मेरी पूजा करो। अगर इस कार्य की उपेक्षा की जायगी तो बड़ी आपत्ति आयेगी, गाँव भर का नाश हो जायगा।” ऐसी बातें सुनकर लोग खोदते हैं तो वहाँ पहले से ही रखी हुई मूर्ति निकल आती है। यह देख कर लोगों की श्रद्धा-भक्ति उमड़ पड़ती है, खूब भेंट-पूजा आती है और देवता का मन्दिर बन जाता है। बस, स्वप्न देखने वाले को एक रोजगार मिल जाता है, जिससे आजन्म भरण-पोषण हो सकता है।

अनेक साधू महात्मा और फकीर अपने कुछ एजेन्ट इधर-उधर के गाँवों में भेज कर प्रचार कराते हैं कि अमुक साधू बाबा बड़े पहुँचे हुए और सब प्रकार के रोगों को एक चुटकी भभूत या किसी जड़ी बूटी से अच्छा कर देते हैं। ये एजेन्ट दूर-दूर के लोगों के अच्छे होने के किस्से भी गढ़ कर सुनाते रहते हैं। परिणाम यह होता है कि रोग दूर कराने वालों या पुत्र, धन आदि की अभिलाषा रखने वालों की भीड़ साधू बाबा के पास इकट्ठा होने लगती है और वे काफी धन इकट्ठा कर लेते हैं। यह सच है कि ऐसी जालसाजी ज्यादा दिन नहीं चलती। दो-चार महीने में उसका भण्डाफोड़ हो जाता है। पर तब तक वे दो-चार हजार रुपया इकट्ठा करके फिर किसी दूरवर्ती स्थान में जा बैठते हैं और फिर कोई नया जाल फैलाने लग जाते हैं।

इस तरह की वहम, मूर्खता, ठगी की बातों से धन तो लूटा ही जाता है, पर इससे भी एक बड़ी बुराई यह होती है कि इससे देश-समाज का नैतिक पतन भी होता है और विदेशों में हमारे देश की बदनामी होती है। जब बाहर के लोग यहाँ के बहुसंख्यक लोगों को ऐसी मूढ़ता की बातों में फँसे हुये और बिना जड़-मूल की बातों पर विश्वास करते हुये देखते हैं तो उनको यहाँ की संस्कृति के प्रति जो सम्मान और श्रद्धा होती है उसमें कमी आ जाती है। वे समझने लगते है कि इनकी आध्यात्मिक बातें कहने-सुनने तक की हैं, पर उन्होंने इनके भीतर प्रवेश नहीं किया है, वास्तव में ये अर्ध-सभ्य जातियों की तरह ही कुसंस्काराछन्न हैं।

दूसरी बड़ी हानि यह भी है कि ऐसे ठगों के कारण सच्चे लोगों पर से भी विश्वास हट जाता है और उनकी उपेक्षा होने लगती है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ साधू सच्चे त्यागी, सदाशय भी होते हैं और परोपकार की इच्छा भी रखते हैं। पर ठगों की करतूतें और धूर्तता देखकर लोग उनको भी ठग और जालसाज समझ कर पास से हटा देते हैं। इस प्रकार ढोंगी और ठग भिखारियों के कारण हम अनेक बार उन लोगों की सहायता से भी विमुख हो जाते हैं, जो वास्तव में संकट में पड़े होते हैं और जिनकी सहायता करना एक मनुष्य का कर्त्तव्य है। इस प्रकार अन्ध-विश्वास और ठगी की प्रवृत्ति समाज के लिये कई प्रकार से घातक सिद्ध होती है, जिसका निराकरण प्रत्येक समाज हितैषी का कर्त्तव्य है।


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