मृदु चान्द्रायण की साधना विधि

January 1964

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मृदु चान्द्रायणव्रत सरल होते हुए भी परिणाम की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। शारीरिक कष्ट उतना ही उठाया जाना चाहिए जितने से स्वास्थ्य का सन्तुलन बिगड़ने की आशंका उत्पन्न न हो जाय। करना तो कठिन ही करना, न करना तो बिल्कुल छोड़ देना—यह नीति ठीक नहीं। औचित्य मध्यम मार्ग का ही है। बीच का काम चलाऊ मार्ग निकाल लेने से सत्कर्मों की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति बनी रहती है। बौद्धधर्म में मध्यम मार्ग की ही प्रतिष्ठा मानी गई है। साधारण जीवन का तारतम्य न बिगड़ने देते हुए जो शुभ कर्म बन पड़े वे उत्साहवर्धक रहते हैं और उस मार्ग पर चलने का साहस बना रहता है। चान्द्रायण व्रत के आशाजनक लाभों को देखते हुए मन उसे करना तो चाहता है पर विधान की कठोरता को देखते हुए वैसा साहस नहीं होता। ऐसी दशा में मृदु चान्द्रायणव्रत का मध्यम मार्ग अपनाना ही बुद्धिमत्तापूर्ण रहेगा।

मृदु चान्द्रायणव्रत किसी भी मास की पूर्णिमा से आरम्भ करके अगली पूर्णिमा को समाप्त करना चाहिए। यों जेष्ठ, श्रावण, आश्विन, मार्गशीर्ष और माघ इसके लिए विशेष शुभ माने गये हैं पर निषेध किसी भी महीने का नहीं है।

लिखा यह है कि मनुष्य का पूर्ण आहार जितना हो उसका एक आहार-पिण्ड बनाना चाहिए। पूर्णिमा के दिन वह पूरा पिण्ड खाया जाय। फिर कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा की एक-एक कला जिस प्रकार घटती है उसी प्रकार एक अंश घटाते चलना चाहिए। पूर्ण पिण्ड को तोलकर उसका चौदहवाँ अंश प्रतिदिन घटाते रहा जाय। इस प्रकार घटाते-घटाते कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को एक अंश मान लिया जाय और अमावस्या को पूर्ण निराहार रहा जाय।

शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, को भी निराहार रहना चाहिए। चन्द्रमा, अमावस्या और प्रतिपदा दो दिन दिखाई नहीं पड़ता इसलिए दोनों दिन आहार न लेने का विधान है। फिर जिस क्रम से एक-एक चौदहवाँ अंश कृष्णपक्ष में घटाया गया था, उसी प्रकार शुक्लपक्ष में चन्द्रमा की कलाओं की तरह भोजन भी बढ़ाते रहा जाये। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन जितना आहार लिया था उतना ही दौज को लिया जाय और जितना कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को लिया गया था उतना शुक्लपक्ष की तीज को। इस प्रकार पूर्णिमा को उतने ही पूरे अहार तक पहुँच जाना चाहिए जितना कि आरम्भ करते समय पिछले मास की पूर्णिमा को लिया गया था। किसी-किसी पक्ष में विधियाँ घट या बढ़ जाती हैं। पञ्चांग में देखकर उसी क्रम से आहार के अंशों को भी घटा या बढ़ा लेना चाहिए। यदि किसी पक्ष में एक तिथि बढ़े तो चौदह के स्थान पर पन्द्रहवें अंश को घटाने या बढ़ाने का क्रम रखना चाहिए और यदि एक तिथि घट जाय तो तेरह का क्रम घटाना या बढ़ाना उचित है। चन्द्रमा की कलाओं पर इस व्रत का आधार रहने से आहार के घटाने या बढ़ाने का क्रम भी उन्हीं के अनुसार बदलना पड़ता है।

आहार के लिए ‘पिण्ड’ शब्द प्रयोग होने से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में खिचड़ी, दलिया, सत्तू या ऐसी ही कोई चीज पकाकर उसका एक गोला बना लिया जाता होगा और उस गोले का भार प्रतिदिन घटाया बढ़ाया जाता रहता होगा। इससे यह भी प्रतीत होता है कि आहार में भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ न रहती होंगी। एक या कई वस्तुओं को मिलाकर एक ही जगह पका लिया जाता होगा। इस व्यवस्था में अनेक खाद्य पदार्थों के द्वारा अनेक स्वाद प्राप्त करने वाली स्वाद-लोलुपता का निषेध है। अनेक प्रकार की वस्तुएँ एक समय में खाना वैज्ञानिक दृष्टि से भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। यह प्रथा तो केवल जिह्वा की लोलुपता पूरी करने के लिए ही चली है। चूँकि चान्द्रायणव्रत में स्वास्थ्य सुधार और लोलुपता पर नियन्त्रण का इन्द्रियसंयम भी जुड़ा हुआ है इसलिए आहार-पिण्ड की व्यवस्था का महत्व भी सहज ही समझ में आ जाता है।

‘पिण्ड’ शब्द से एक और बात भी प्रकट होती है कि आहार एक बार ही लिया जाय। यदि दोनों समय लेने का विधान रहा होता तो चौदह के स्थान पर अट्ठाईस भागों में पूर्ण भोजन को विभाजित करने की व्यवस्था रही होती।

उपरोक्त व्यवस्था की भावना को ध्यान में रखते हुए आज की परिस्थितियों में कुछ ढील भी रखी जा सकती है। पिण्ड न बनाकर भले ही रोटी-शाक, दाल-भात, जैसी वस्तुएँ अलग-अलग बना ली जायें पर उनकी संख्या दो ही रहे तो उत्तम है। अधिक वस्तुओं का भोजन में होना आहार संबंधी विलासिता है, इसमें रजोगुण या तमोगुण की प्रधानता हो जाती है। आहार में खाद्य-पदार्थों की संख्या जितनी कम रहेगी उतना ही वह सात्विक माना जायगा। संयमी सन्त-महात्मा भिक्षा में कई प्रकार की वस्तुएँ भिन्न-भिन्न घरों से प्राप्त करते हैं तो उन्हें मिलाकर इकट्ठा कर लेते हैं ताकि जिह्वा की लोलुपता को पनपने का अवसर न मिले। चान्द्रायणव्रत करने वालों को इतना नियम रखना ही चाहिये कि आहार में दो प्रकार की वस्तुओं से अधिक संख्या न हो। मिर्च-मसाले छोड़ देने ही उचित हैं। अस्वाद-व्रत पालन करते हुए नमक और शक्कर छोड़कर अलौना भोजन बन पड़े तो सर्वोत्तम है, अन्यथा नमक काम में ले सकते हैं। सेंधा नमक सात्विक माना गया है। मिर्च के बिना काम न चले तो कालीमिर्च, अदरक, या सोंठ ली जा सकती है। आँवला या नींबू की खटाई ग्रहण की गई है। अन्य खटाई वर्जित हैं। हींग लाल मिर्च और गरम मसाले सर्वथा त्याज्य हैं। हल्दी, जीरा, धनिया इन तीन का निषेध नहीं है।

आरम्भ करते समय पूर्णिमा को लिए गये एक समय के भोजन का ही चौदहवाँ अंश घटाना पड़ता है। इस प्रकार दिनभर के भोजन का आधा अंश तो पहले ही कम हो जाता है और शेष आधे में भी प्रतिदिन कमी होती चलती है। इतना कठिन अल्पाहार एक महीने तक चलाने में दुर्बल स्वभाव या शरीर वाले व्यक्ति घबराते हैं। इसलिये मध्यम मार्ग यह हो सकता है कि सायंकाल को भी थोड़ा दूध, दही, शाक का रसा या फलों का रस-इनमें से कोई एक चीज ले ली जाया करे। इससे भूख भी असहनीय न रहेगी और शरीर भी अधिक दुर्बल न होगा। इसी प्रकार प्रातःकाल भी इन्हीं में से कोई पेय पदार्थ लिया जा सकता है। नींबू और शहद मिला हुआ पानी आवश्यकतानुसार दिन में कई बार भी लिया जा सकता है। अन्नाहार दोपहर को एक बार ही लेना चाहिये।

आहार को घटाने और बढ़ाने का यह क्रम मानसिक और आत्मिक पवित्रता की दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही पेट के पाचन यन्त्रों को विश्राम देकर उनकी नष्ट हुई शक्तियों को पुनः सजीव बनाने के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है। पर आहार की न्यूनाधिकता मात्र ही चान्द्रायण व्रत नहीं है। इसका मूल उद्देश्य अन्तःकरण पर चढ़े हुए मल-आवरण और विक्षेपों का समाधान तथा किये हुए पापों का प्रायश्चित करना भी है। आन्तरिक पवित्रता की अभिवृद्धि के लिए ही चान्द्रायण व्रत किये जाते हैं। शारीरिक लाभ तो एक गौण बात है।

इसलिए व्रतकाल के एक महीने में गायत्री उपासना का भी एक नियमित कार्यक्रम बना लेना चाहिये। तीस दिनों में सवालक्ष गायत्री का जप अनुष्ठान करने के लिए प्रतिदिन 42 माला जप करना पड़ता है। उसमें प्रायः 4 घण्टे लगते हैं। प्रातः ढाई-तीन घण्टे सायंकाल एक-डेढ़ घण्टा लगाने से यह उपासना आसानी से पूर्ण हो जाती है।

ब्रह्मचर्य, भूमि या तख्त पर सोना, अपने शरीर की सेवा स्वयं करना —हजामत, कपड़े धोना आदि कार्य स्वयं करने चाहिये। भोजन पकाने में अपना अभ्यास न हो तो माता या पत्नी से सहायता ली जा सकती है। पर चाहे जिसके हाथ का बना हुआ भोजन भी उन दिनों नहीं करना चाहिये। क्योंकि पकाने वाले व्यक्ति के संस्कार यदि अच्छे न हुये तो उसका प्रभाव अपनी मनोभूमि पर पड़ेगा और व्रत का जो लाभ मिलना चाहिये वह न मिलेगा। दूसरों की शारीरिक सेवा लेना तो वैसे भी उन दिनों वर्जित रहता है। चमड़े का उपयोग भी वर्जित है। क्योंकि आजकल 99 प्रतिशत चमड़ा हत्या करके ही उपलब्ध किया जाता है और उसका उपयोग करने वाले के सिर पर भी कुछ हत्या का आसुरी प्रभाव पड़ता है। लकड़ी, रबड़, या कपड़े के जूते इस व्रत काल में प्रयोग करने चाहिये।

अच्छा तो यह है कि घर के साधारण वातावरण को छोड़कर किसी साधना के उपयुक्त पवित्र स्थान में यह व्रत किया जाय। वह स्थान आध्यात्मिक भावनाओं से परिपूर्ण होना चाहिए। अपनी दिनचर्या उन दिनों मौन, आत्म-चिन्तन, मनन, ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग जैसे कार्यक्रमों में व्यस्त रहे। मनोभूमि पर विक्षोभजन्य प्रभाव उत्पन्न न हो तो ही व्रत का पूरा लाभ मिलता है। व्यवसायिक कार्यों में प्रायः झूठ, चोरी, कर्त्तव्य में ढील, राग-द्वेष, लोभ तृष्णा क्रोध-वासना जैसे दोषों का समावेश बना रहता है। इसलिये अच्छा यही है कि व्रत के उपयुक्त स्थान तलाश किया जाय और उन दिनों छुट्टी लेकर आध्यात्मिक जीवन का लाभ लिया जाय।

जिनके लिये यह संभव न हो वे साधारण कार्यक्रम चलाते हुए घर पर ही चान्द्रायण व्रत कर सकते हैं। पर प्रयत्न ऐसा ही करना चाहिए कि अपना मन अधिक समय सात्विक विचारधारा में ही व्यस्त रहे। पापकर्म कम-से-कम बन पड़ें। क्रोध और क्षोभ के अवसर कम-से-कम आवें। चित्त की शाँति और समस्वरता नष्ट न होने पावे। दैनिक जीवन में दान, सेवा, परोपकार, स्वाध्याय, मौन आदि शुभ कर्मों के लिए कुछ न कुछ अवसर साधारण दैनिक कार्यक्रम चलाते हुए भी निकाल ही लेना चाहिये।


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