सन् 1905 में लोकमान्य तिलक का विचार विदेश जाने को हो रहा था। उन दिनों समुद्र यात्रा करना धर्म विरुद्ध माना जाता था और जो ऐसा करते थे जाति से निकाल दिये जाते थे। तिलक ने सोचा कि पण्डितों से व्यवस्था मिल जाय तो फिर अड़चन न रहेगी।
तिलक काशी पहुँचे और वहाँ के प्रमुख महामहोपाध्याय से प्रार्थना की कि समुद्र यात्रा से धर्म हानि न होने की व्यवस्था वे दे दें तो बड़ा अच्छा हो।
पण्डित जी ने कहा—”काम कठिन है। पर यदि आप पाँच हजार रुपया खर्च करें तो व्यवस्था मिल सकती है।” रिश्वत देकर धर्म को अपने पक्ष में करना लोकमान्य को उचित प्रतीत न हुआ। अधर्म से धर्म खरीदा जाय तो फिर उसका महत्व ही क्या रह जायगा। वे उल्टे पैरों वापिस लौट आये और बिना व्यवस्था के ही अपना काम चलाया।