संतान पालन की शिक्षा भी चाहिये

January 1964

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मानव-जीवन के अनेक कर्त्तव्यों में संतान उत्पन्न करने और उसे यथायोग्य पालने का कार्य भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यद्यपि यह एक प्राकृतिक नियम है इसलिये अनेक व्यक्ति इसके विषय में अधिक सोच-विचार करना आवश्यक नहीं समझते पर यह उनकी बड़ी भूल है। मनुष्य इस समय प्रकृति नियमानुकूल नहीं रहता वरन् उसने अपनी बुद्धि से अनेक नये नियमों का आविष्कार किया है और उसका रहन-सहन प्राकृतिक के बजाय कृत्रिम ही अधिक कहा जा सकता है। इसलिये सन्तानोत्पत्ति और सन्तान-पालन को प्राकृतिक कार्य समझकर उपेक्षा करना किसी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। संसार के जीवन-क्षेत्र में जो दृढ़ता के साथ स्थिर रह सके और सफलता प्राप्त कर सके ऐसी सन्तान समाज को देना हमारा बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है।

पर आज अवस्था इसके प्रायः विपरीत दिखाई पड़ रही है। लोग सब से अधिक महत्व खाने कमाने की समस्या को देते हैं, इसके पश्चात तरह-तरह के शौकों को पूरा करने, समाज में प्रतिष्ठा और ऊँचा पद प्राप्त करने, भविष्य के लिये कुछ धन-सम्पत्ति जोड़ने आदि बातों की तरफ ध्यान जाता है। पर संतान पालन, जो समाज की प्रगति और उत्कर्ष का प्रधान साधन है, उस पर कोई ध्यान नहीं देता, छोटे और साधारण श्रेणी के लोगों में ही नहीं, बड़े-बड़े शिक्षित और बुद्धिमान लोगों में भी यही वृत्ति देखी जाती है। इसी को लक्ष्य करके इंग्लैंड के एक बहुत बड़े ज्ञानी व्यक्ति श्री हर्बर्ट स्पेन्सर ने अपने ‘शिक्षा’ नामक ग्रन्थ में कहा है—”वास्तव में बच्चों के पालन-पोषण के तरीके पर ही उनका जीना-मरना और उनका नैतिक उत्थान या पतन निर्भर करता है, पर उन लोगों को जो कुछ समय बाद माता-पिता बनने वाले हैं इस विषय का एक शब्द भी नहीं सिखाया जाता। क्या यह एक बड़ी भयंकर बात नहीं है कि एक नई पीढ़ी का भाग्य बुद्धिहीन प्रथाओं, रुचि, विचार आदि के भरोसे छोड़ दिया जाय या उसके सम्बन्ध में मूर्ख दाइयों या पुरानी बुढ़ियाओं की सलाहों पर ही भरोसा कर लिया जाय। अगर कोई व्यापारी बिना हिसाब-किताब सीखे व्यापार करना शुरू कर दे तो हम उसकी मूर्खता पर आश्चर्य करते हैं और शीघ्र उसका दिवाला निकलने का अनुमान लगाने लग जाते हैं। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति शरीर-शास्त्र का अध्ययन किये बिना ही डाक्टरी शुरू कर दें तो हम उसकी धृष्टता पर आश्चर्य करेंगे और उसके मरीजों पर तरस खायेंगे। पर माता-पिता संतान पालन की किसी प्रकार की शारीरिक, नैतिक और बौद्धिक शिक्षा प्राप्त किये बिना ही सन्तानोत्पादन के महत्वपूर्ण कार्य का भार उठा लेते हैं, तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं जान पड़ता।”

इस महान दार्शनिक ने जो बातें अब से काफी समय पहले लिखी थीं वे आज हमारे देश पर पूरी तरह लागू हो रही हैं। यहाँ के अधिकाँश माता-पिता संतान-पालन के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं और फिर भी छोटी अवस्था से एक सन्तान पर दूसरी सन्तान उत्पन्न करते चले जाते हैं। उनको न संतानोत्पत्ति के पूर्व की जाने वाले तैयारी का कुछ पता होता है और न वे जरा भी उसके पालन पोषण की ठीक विधि को जानते हैं। इस प्रकार यहाँ के 95 प्रतिशत बच्चों का निर्माण संयोग पर निर्भर रहता है। अधिकाँश मातायें आरम्भ से बच्चों की नियमित आदतें डालने का प्रयत्न नहीं करतीं और नतीजा यह होता है कि थोड़े समय बाद ही बच्चा बार-बार रोने और समय कुसमय खाने को माँगने लग जाता है। माता भी बिना यह विचार किये कि वह भूख से रो रहा है या प्यास से या किसी प्रकार की शारीरिक अस्वस्थता के कारण, झट से उसके मुँह में स्तन या दूध की शीशी दे देती है। इससे बच्चे का उस समय का रोना तो बन्द हो जाता है, पर आगे चलकर यह आदत और भी बढ़ने लगती है। ऐसे बालक की पाचन शक्ति शीघ्र ही खराब हो जाती है और बड़ा होने पर वह कब्ज जैसे रोग का शिकार हो जाता है, जिससे सदैव नये-नये रोगों का जन्म होता रहता है। इसी प्रकार जिस बच्चे को बचपन में मुँह ढक कर सुलाया जाता है और खुली हवा से सदैव पृथक रखा जाता है उसे आगे चलकर खाँसी, दमा आदि दुखदायी रोगों को सहन करना पड़ता है। ऐसे अभागे बालक अपने घर वालों के लिये ही भार स्वरूप नहीं बन जाते पर निःसत्व और शक्तिहीन बनकर वे बड़े होने पर समाज और देश के प्रति भी अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं कर सकते। इस प्रकार अज्ञानी माता-पिता अपने लिये तरह-तरह के कष्टों की जड़ जमाकर देश और जाति के प्रति भी शत्रुता का आचरण करते हैं।

भारतीय स्त्रियाँ सन्तान पालन में जो सफल नहीं हो पातीं उसका एक कारण यह भी है कि यहाँ बालिकाओं का विवाह प्रायः अपरिपक्व अवस्था में ही कर दिया जाता है और उस स्थिति में सन्तानोत्पत्ति होने से उनको जननेन्द्रिय सम्बन्धी अनेक शिकायतें उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे उनका स्वास्थ्य गिर जाता है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और वे कोई परिश्रम साध्य कार्य करने के अयोग्य हो जाती हैं। फिर उनकी सन्तान भी प्रायः चिर रोगी ही बनी रहती है। बड़े खेद का विषय है कि हमारी स्त्रियों को नये-नये फैशनों और विदेशी शृंगार सामग्री की रुचि तो शीघ्र ही लग जाती है, उनके पति भी मेमों की तरह स्वतन्त्रता पूर्वक संग घुमाने में गौरव और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, पर संतान पालन जैसी गृहस्थी को सफल बनाने वाली बात का ज्ञान भी उसे प्राप्त कराया जाय इसका किसी को स्वप्न में भी विचार नहीं आता। यह बात नहीं कि उनको अपने बच्चों से प्रेम नहीं होता, अथवा वे उनके लिये हर तरह का स्वार्थ त्याग नहीं करते, पर अज्ञानवश वे मोह के नाम पर स्वयं अपने बच्चों का अहित करने वाले बन जाते हैं। इसलिये हमारे देश की शिक्षा में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये कि लड़के-लड़कियों को आरम्भ से ही इस आवश्यक विषय का महत्व प्रतीत होने लगे और विवाह होने के पहले तो उनको निजी तौर पर या तत्सम्बन्धी ग्रन्थों द्वारा इसका ठीक ज्ञान करा ही देना चाहिये। यह राष्ट्र के उत्थान-पतन से सम्बन्ध रखने वाली बात है और इसकी अवहेलना स्वयं अपना ही अनिष्ट करना कहा जायगा—


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