अन्ध-विश्वास और ठगी की व्याधि

January 1964

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हमारा देश अन्ध-विश्वास के लिये बदनाम है। यों तो संसार में अभी तक सैकड़ों जंगली जातियाँ पाई जाती हैं जो अन्ध-विश्वास के नाम पर देवता के आगे नर-बलि देती हैं, अपनी ही संतान का बलिदान कर देती हैं तथा अन्य भी अनेक प्रकार के रोमाँचक कृत्य करती हैं। उनकी गिनती मनुष्यों में भी नहीं की जाती है, उनको बबंर या अर्द्ध-पशु की तरह माना जाता है। पर भारतवर्ष की बात निराली है। एक तरफ तो यह परमात्मा, ईश्वर और जीवात्मा के गूढ़ से गूढ़ रहस्यों को प्रकट करता है, अध्यात्म के ऊंचे से ऊँचे सिद्धान्तों की विवेचना करता है, जिससे पश्चिमी देशों के महान् विद्वान भी इसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं, और दूसरों तरफ यही भूत,प्रेत, बैताल, ब्रह्मराक्षस, जिन्द, दई-देवता, कुआँ वाला, जखैया आदि न जाने कितने ऐसे अन्ध-विश्वास फैले हुए हैं, जिनको जंगली लोगों के उपयुक्त ही कहा जा सकता है। इस अन्धविश्वास की इतिश्री इन प्रचलित काल्पनिक अदृश्य शक्तियों पर ही नहीं हो जाती, वरन् इनके अतिरिक्त प्रति वर्ष चाहे जहाँ कोई देवी प्रकट हो जाती है, कहीं किसी कुएं का जल सब रोगों की राम-बाण दवा बन जाता है, कहीं किसी सर्वरोग विनाशिनी जड़ी-बूटी के नाम पर हजारों लोग इकट्ठे हो जाते हैं, कहीं भगवान का साक्षात् अवतार ही उत्पन्न हो जाता है और लोग उसी की पूजा करने लग जाते हैं। ऐसी बातों में विश्वास रखने वाले और उनके पीछे दौड़ने वाले अशिक्षित, सभ्य, सुसंस्कृत समझने वाले भी इन कार्यों में भाग लेते हैं और उनके प्रसार में सहायक बनते हैं।

यहाँ हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते कि शास्त्रों में जिस भूत-योनि का जिक्र किया गया है उसकी वास्तविकता क्या है। अर्थात् वह कोई वायवीय अथवा सूक्ष्म देह धारिणी चैतन्य सत्ता है अथवा ‘भूत’ (गुजरी हुई घटना)में ही लोगों ने एक काल्पनिक प्राणी का रूप दे दिया है। हमारे देश में अगर कोई चाहे तो घर-घर और गली-गली में भूतों के किस्से सुन सकता है। जिसके ‘प्रत्यक्ष’ और ‘सर्वथा सत्य’ होने का लोग दावा करते हैं। पर जब कोई विचारशील व्यक्ति उनकी जाँच करने लगता है तो परिणाम शून्य ही निकलता है। उन लोगों की तो बात ही मत पूछिये जिनको पिछड़े हुए या छोटी जाति वाला कहा जाता है। उनमें तो सब प्रकार की विपत्तियां, रोग, बीमारी, हानि, लाभ तक का कर्ता-धर्ता भूतों को माना जाता है। किसी स्त्री, पुरुष, बालक को किसी तरह की तकलीफ हो गई और साधारण उपाय करने से दो-बार दिन में वह ठीक नहीं हो पाई तो फौरन उसका दोष भूत के सिर मढ़ दिया जाता है, और स्याने, ओझा, झाड़ने वाले के पास पहुँच कर रोग निवारण का उपाय पूछा जाता है। इन लोगों का तो व्यवसाय ही भूतों को भगाना ठहरा, जिस प्रकार कोई स्वस्थ व्यक्ति भी डॉक्टर के पास जाय तो वह उसे कोई न कोई रोग बतला देता हैं उसी प्रकार से ओझा और स्याने प्रत्येक आगंतुक की विपत्ति का कारण भूतों से जोड़ देते है और उसके लिये भेंट-पूजा लेकर कोई ने कोई उपाय भी बतला देते हैं। ऐसे लोग प्रायः देवता के आने का सप्ताह या महीने में कोई खास दिन नियत कर लेते हैं और उसी दिन तरह-तरह के रोगियों की भीड़ आटा, चावल, अनाज, घी, तेल, रुपया, पैसा लेकर उसके पास पहुँचती है। उस दिन उनके सिर पर देवता आता है, जो खूब झूम-झूम कर और विचित्र प्रकार की आकृति बनाकर लोगों के रोगों तथा गृह आपत्तियों का निदान करता है और भूत-प्रेतों तथा गृह देवताओं की पूजा दान या किसी को खिलाने-पिलाने के द्वारा सब रोगों का इलाज बतलाता चला जाता है । इस प्रकार भूत ने एक अच्छे रोजगार का रूप ग्रहण कर लिया है जिससे बहुसंख्यक लोग आराम के साथ जीवन निर्वाह कर लेते हैं।

इस प्रकार के ओझा, स्याने आदि चरित्र की दृष्टि से भी प्रायः हीन कोटि के होते हैं और उनके पास अधिकाँश अशिक्षित मूढ़ स्त्रियाँ ही जाती हैं। इसलिये वे उनको सहज ही बहका कर, भ्रम में डाल कर पतन के रास्ते पर ले आते हैं। इस तरह हमारा अन्ध-विश्वास धन, धर्म और इज्जत तीनों को नष्ट करने वाला सिद्ध हो रहा है। इस प्रकार की बहुसंख्यक घटनायें प्रकाश में आती रहती हैं और अनेकों बार झगड़ा पैदा हो जाने से मुकदमे भी चल जाते हैं। वहाँ इस भूत-विद्या की कलई भली प्रकार खुल जाती है। पर अन्ध-विश्वास की यही महिमा है कि फिर भी लोगों की आँखें नहीं खुलती और वे घूम फिर कर पुनः इन्हीं लोगों के पास जा पहुँचते हैं।

किसी प्रकार की बीमारी के लिये भूत को दोष देना और उसके निवारण के लिये स्थानों की शरण लेना ऐसी मूर्खता की बात है कि इसके सम्बन्ध में अधिक प्रमाण देना या बहस करना असंगत जान पड़ता है। बीमारी तो प्रायः असंयम या किसी प्रकार की गलती, आकस्मिक घटना-वश होती है। उसका निवारण उस गलती का सुधार करने से ही हो सकता है। इसीलिये अधिकाँश समझदार लोग बीमार होने पर असंयम का त्याग कर संयम पालन करते हैं और किसी अच्छे चिकित्सक की दवा का सेवन करते हैं। इसी से समयानुसार उनका रोग दूर हो जाता है। इसमें ‘भूत’ कहाँ से आ गया और उसकी क्या आवश्यकता है, यह हमारी समझ में नहीं आया। बहुत सी बीमारियाँ कठिन और पेचीदा भी होती हैं और सहज ही वश में नहीं आतीं। ऐसी हालत में दवा या उपाय को असर न करते देखकर यह ख्याल कर लेना कि इसका कारण कोई भूत-प्रेत होगा कहाँ की बुद्धिमत्ता है। योरोप, अमरीका के लोग इस प्रकार किसी रोग को भूत से उत्पन्न नहीं मानते और न किसी स्याने-दिवाने के पास जाते हैं, तो क्या उनके रोग अच्छे नहीं होते ? हम तो देखते हैं कि वे हमसे कहीं अधिक शीघ्र रोगमुक्त हो जाते हैं और उनका स्वास्थ्य भी फिर से जल्दी ही सुधर जाता है। पर भूत से बीमारी मानने वालों का रोग अनेक बार आजन्म वैसे ही बना रहता है।

भूतों के सम्बन्ध में शंका पैदा होने का दूसरा कारण कभी-कभी किसी घर में गुप्त रूप से उपद्रव होना होता है, जैसे ईंट-पत्थर फेंके जाना, कपड़ों का जल जाना, भोजन में गन्दगी पैदा हो जाना आदि। यद्यपि प्रत्यक्ष प्रमाणों के अभाव में हम प्रत्येक घटना को तो झूँठी नहीं कह सकते, पर इतना हम जानते हैं कि ऐसे सुने जाने वाले भौतिक-काण्डों में से अनेक काल्पनिक होते हैं, बहुत बढ़ा-चढ़ा कर कहे जाते हैं और बहुत सों की तह में किसी प्रकार का षड़यन्त्र, दुरभिसन्धि होती है। पर चूँकि जिन लोगों के दिमाग में पहले से ही भूत की धारणा, उसका भय बद्धमूल रहता है, वे किसी प्रकार की जाँच पड़ताल तो कर नहीं सकते बस तुरन्त भयाक्रान्त होकर किसी भूत विद्या विशारद की शरण लेते हैं। उनका काम तो इस तरह के दस किस्से और सुनाकर उनके विश्वास पर मुहर लगा देना होता ही है। बस इस प्रकार यह अन्ध-विश्वास अपने नये-नये शिकार ढूंढ़ता रहता है और उसकी जड़ जमती जाती है।


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