इस जल्दबाजी से क्या फायदा

January 1964

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आतुरता और अधीरता की बुराई मनुष्य को बुरी तरह परेशान करती है। प्रायः हमें हर बात में बहुत जल्दी रहती है, जिस कार्य में जितना समय एवं श्रम लगना आवश्यक है उतना नहीं लगाना चाहते, अभीष्ट आकाँशा की सफलता तुर्त−फुर्त देखना चाहते हैं। बरगद का पेड़ उगने से लेकर फलने-फूलने की स्थिति में पहुँचने के लिए कुछ समय चाहता है, पर हथेली पर सरसों जमी देखने वाले बालकों को इसके लिए धैर्य कहाँ? यह आतुरता की बीमारी जन-समाज के मस्तिष्कों में बुरी तरह प्रवेश कर गई है और लोग अपनी आकाँक्षाओं की पूर्ति के लिए ऐसा रास्ता ढूँढ़ना चाहते हैं जिसमें आवश्यक प्रयत्न न करना पड़े और जादू की तरह उनकी मनोकामना तुरन्त पूरी हो जाय।

राजमार्ग छोड़कर लोग पगडण्डी तलाश करते हैं, फलस्वरूप वे काँटों में भटक जाते हैं? हथेली पर सरसों जम तो जाती है पर उस सरसों का तेल डिब्बे में कोई नहीं भर पाया। बाजीगर रेत का रुपया बनाते हैं पर उन रुपयों से वे जायदाद नहीं खरीद पाते। कागज का महल खड़ा तो किया जा सकता है पर उसमें निवास करते हुए जिन्दगी काट लेने की इच्छा कौन पूरी कर पाता है? रेत की दीवार कितने दिन ठहरती है?

सुख-शान्ति के लक्ष्य तक धर्म और सदाचार के राजमार्ग पर चलते हुए पहुँच सकना ही सम्भव है। यह रास्ता इतना सीधा है कि इसमें शार्टकट की-पगडण्डी की गुंजाइश नहीं छोड़ी गई। हमारे तत्वदर्शी पूर्व पुरुषों ने मानव-जीवन को सफलता, समृद्धि, प्रगति और शान्ति से परिपूर्ण कर देने वाला जो मार्ग सबसे सरल पाया, उसी राज-पथ का नाम धर्म एवं सदाचार रखा। इस मार्ग के हर मील पर अधिकाधिक प्रफुल्लता भरा वातावरण मिलता जाता है।

सुख समृद्धि के लिए धैर्य-पूर्वक सदाचरण के मार्ग पर चलते रहना और अपने में जो दुर्बलताएँ हों उन्हें एक-एक करके हटाते चलना यही तरीका सही है। इस सुनिश्चित पद्धति को छोड़कर अधीर लोग बहुत जल्दी अत्यधिक प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं और जो कुछ उनके पास था उसे भी गँवा बैठते हैं। जल्दी ही बहुत धन कमा लेने और आर्थिक स्थिति सुधार लेने की कामना से प्रेरित होकर लोग चोरी, बेईमानी, ठगी, विश्वासघात, रिश्वत जैसे अनुपयुक्त मार्गों को अपनाते हैं। वे सोचते हैं सीधे मार्ग से बहुत जल्दी धन संचय करना सम्भव न होगा इसलिये अनीति के मार्ग पर चलते हुए जल्दी ही बहुत धन क्यों न कमा लिया जाय? ऐसा लगता है यह तर्क आज अधिकाँश लोगों को पसन्द आ गया है और वे किसी भी प्रकार जल्दी से जल्दी मनमाना धन प्राप्त करने के लिए धर्म और सदाचार के सारे आधारों को तिलाञ्जलि देकर अनीति की कमाई करने में लगे हुए हैं। व्यापार के बारे में यहाँ तक कहा जाने लगा है कि वह बिना झूठ और बेईमानी के चल ही नहीं सकता। रिश्वतखोरी एक आम बात बनी हुई है। मजदूर अपने कर्त्तव्य को पूरा न करके श्रम और समय की चोरी करते हैं। धर्म के नाम पर जो पाखण्ड और ठग विद्या चलती है उससे कौन अपरिचित है। इन दुष्प्रवृत्तियों के मूल में यही धारणा काम कर रही है कि सदाचार नहीं अनीति हमारे लिए अधिक लाभदायक है। उसी से जल्दी लाभ हो सकता है।

किन्तु यह बात सच कहाँ है ? अनीति की प्रवृत्ति के व्यापक रूप में फैल जाने पर प्रत्येक चोर भी अन्य चोरों द्वारा ठगा और सताया जाता है। एक व्यक्ति दूध में पानी मिलाकर अधिक पैसे कमा लेता है। जब उसका बच्चा बीमार पड़ता है तो उसकी मामूली-सी बीमारी को बहुत बड़ी बताकर डॉक्टर डराता है और इलाज में मनमाने पैसे वसूल करता है। फिर उस डॉक्टर को भी चैन कहाँ? बाजार में अपनी स्त्री के लिए जेवर खरीदने जाता है तो आधी पीतल मिला हुआ सोना उसके हाथ में थमा दिया जाता है। यह स्वर्णकार ‘इनकम टैक्स’ के अधिकारी द्वारा निचोड़ा जाता है और फिर “ऐन्टी करप्शन” वाले उस अधिकारी का भी तेल निकाल लेते हैं। यह सिलसिला चलते-चलते अंततः हर अनीति की कमाई करने वाला खाली हाथ रह जाता है। डाकू अक्सर बहुत धन लूटकर ले जाते हैं पर जहाँ वे चोरी का माल बेचते हैं वह आधे पैसे भी नहीं थमाता। कारतूस और बन्दूकें खरीदने में, लुके-छिपे खाद्य पदार्थ माँगने में कई गुने दाम उन्हें भी देने पड़ते हैं। इस प्रकार बहुत कमाई करने पर भी अन्ततः वे खाली हाथ ही रह जाते है। किसी चोर डाकू के महल बंगले खड़े होते कहाँ देखे जाते हैं?

शरीर को बलवान बनाने के लिए लोग आहार-विहार का संयम रखने, दिनचर्या और श्रमशीलता पर ध्यान देने ब्रह्मचर्य से रहने आदि आवश्यक नियमों का पालन करने के राजमार्ग पर चलने की अपेक्षा टानिक पीने, कुश्ते खाने और माँस, मछली, अण्डे निगलने की पगडण्डी ढूँढ़ते हैं। पर क्या किसी को इन खोटे रास्तों पर चलते हुए स्वास्थ्य सुधारने का अवसर मिला है? थोड़ी देर के लिये यह तरीके कुछ लाभ दिखा सकते हैं पर अंततः जीवनी शक्ति का नाश करने वाले इन टानिकों से अनेक बीमारियों के चंगुल में फँसना पड़ता है और अकाल मृत्यु असमय ही सामने आ खड़ी होती है।

मन की प्रसन्नता के लिए लोग विषय वासनाओं पर ऐसे टूटते हैं जैसे मछली-आटा लगे हुए काँटे की नोंक को निगलती है। कहा जाता है कि नशेबाजी इसलिए की जाती है कि उससे मन की प्रसन्नता और स्फूर्ति बढ़े। चाय सिगरेट, शराब, भाँग, गाँजा आदि पीने वाले अपनी आदत के समर्थन में यही बात कहते हैं। व्यभिचारी, वेश्यागामी और घृणित तरीकों से अपना जीवन-तत्व निचोड़ते रहने वाले व्यक्ति भी अपनी कुटेबों का समर्थन इसी आधार पर करते हैं। सिनेमा ताश, शतरंज आदि व्यसनों के बारे में भी ऐसा ही कुछ कहा जाता है। हो सकता है कि तत्काल कुछ देर के लिए इन कुटेबों-व्यसनों में फँसे हुए लोगों को कुछ प्रसन्नता मिलती हो। पर धीरे-धीरे उनका धन, समय, स्वास्थ्य और चरित्र गिरता ही जाता है। उनकी स्थिति दिन-दिन खोखली होती जाती है।

सम्मान प्राप्त करने के लिए लोग उद्धत तरीके काम में लाते हैं। विवाह-शादियों में गाढ़ी कमाई के महत्वपूर्ण पैसों की होली इसलिये जलाई जाती हैं कि देखने वाले हमें अमीर समझें और अमीरों को जो सम्मान मिलता है वह हमें भी मिले। दहेज की हत्यारी कुप्रथा के पीछे आर्थिक कमाई का भाव उतना नहीं होता जितना कि अपनी नाक ऊँची करने का। सोचा जाता है कि जिसे जितना अधिक दहेज मिलेगा वह उतना ही बड़ा आदमी समझा जायेगा। नेता बनने के लिए चुनाव में जीतने के लिए लोग कैसे-कैसे घृणित हथकण्डे काम में लाते है? इसके मूल में यही प्रवृत्ति काम कर रही होती है कि हमारा व्यक्तित्त्व लोगों की आँखों में चमके। अखबारों में झूठी नामवरी छपवाने के लिये लोग कितने आतुर रहते हैं। सोचने की बात है कि क्या कभी इन हथकंडों से किसी को स्थायी कीर्ति मिली है। भीतरी महानता को बढ़ाये बिना क्या कभी कोई व्यक्ति स्थाई सम्मान का अधिकारी बन सका है?

पर्चे नकल करके या अन्य बुरे तरीकों को अपनाकर कई लोग परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं, पर उन्हें विद्या से प्राप्त होने वाली योग्यता कहाँ मिलती है? स्त्री, बच्चों और कर्मचारियों को डरा धमकाकर या उनकी मजबूरियों से लाभ उठाकर उन्हें अपना वशवर्ती रखा जा सकता है पर हृदय को जीत सकना बिना आत्म त्याग के, बिना सच्चे प्रेम के एवं बिना सौजन्य के कहाँ उपलब्ध होता है? अनुचित सहायता से कई लोग उच्च पदों पर जा पहुँचते हैं पर उस पद की शोभा और सफलता उन कुपात्रों के द्वारा कहाँ बन पाती है? सत्पात्रता का ही सदा महत्व रहा है और आगे भी रहेगा। जालसाजी के आधार पर मिली हुई सफलतायें कितने दिन ठहरती हैं, और उनसे क्या कोई प्रयोजन सिद्ध होता है?

आत्म कल्याण के लिए स्वर्ग और मुक्ति की प्राप्ति के लिए यह अनिवार्य है कि हम अपने कुविचारों और कुकर्मों को समाप्त करें, सहृदयता, प्रेम, सेवा और उदारता की भावनाओं का विकास करें। पर सस्ते तरीके ढूँढ़ने वाले इस झंझट में न पड़कर किन्हीं तीर्थ यात्रा, देव दर्शन, ब्रह्मभोज कथा वार्ता या ऐसे ही किन्हीं छोटे-मोटे कर्मकाण्डों को पर्याप्त मान बैठते हैं। उनकी वह आत्म वंचना कभी सार्थक भी हो सकेगी इसमें पूरा-पूरा सन्देह है। मुक्ति का सीधा रास्ता है वासनाओं और तृष्णाओं के बन्धनों से छुटकारा प्राप्त करना। आत्म-चिन्तन, आत्म-मनन, आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म-विकास की सीढ़ियों पर चढ़े बिना ही क्या किसी का आत्म-कल्याण के लक्ष्य तक पहुँच सकना संभव है? पर जल्दबाज लोग कुछ थोड़ा-सा पूजा, पाठ, दर्शन, झाँकी, दान, दक्षिणा मात्र का सस्ता आधार लेकर जल्दी ही स्वर्ग मुक्ति प्राप्त कर लेना चाहते हैं। इन बेचारों को भला क्या कुछ हाथ लगता होगा?

उन्नति और सफलता के लिए हर व्यक्ति बुरी तरह लालायित रहता है उसको अभीष्ट मात्रा में इच्छित सफलता तुर्त-फुर्त नहीं मिल जाती तो अत्यन्त निराश भी हो जाता है। लोग अनेक काम आरम्भ करते हैं और सफलता में देर लगती देखकर उसे छोड़ बैठते हैं और फिर नया काम शुरू करते हैं। इस प्रकार अपना धन, समय और श्रम बर्बाद करते रहते हैं। आतुर लोगों में आरम्भिक जोश बहुत होता है पर वे निराश भी उतनी ही जल्दी हो जाते हैं। जन्त्र-मन्त्र की, साधु-सन्तों के आशीर्वाद की, देवताओं के वरदान की भी ऐसे ही लोग बहुत तलाश करते हैं ताकि जल्द-से-जल्द उनका मनोरथ पूरा हो जाये।

हमें जानना चाहिये कि हर वस्तु समयसाध्य है और श्रमसाध्य भी। कोई मार्ग ऐसा नहीं जिसमें रुकावटें और बाधायें न हों। उन्हें हटाने के लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा भी। आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, परिश्रमी और पुरुषार्थी को तो सफलता मिलती ही है। और यदि न भी मिले तो उसकी प्रतिभा और क्षमता तो बढ़ती रहती है। प्रयत्नशीलता से, पुरुषार्थ से, अध्यवसाय से, व्यक्तित्व निखरता है और उसके आधार पर प्रगति की ऊँची मंजिल पर चढ़ सकना सम्भव हो जाता है।

धैर्य और दूरदर्शिता हमें अपनानी चाहिए। सफलता और प्रगति के पथ पर बढ़ते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा पूरा ध्यान अपने पुरुषार्थ पर रहे। फल कब मिलेगा? कितना मिलेगा? कैसा मिलेगा? इसका कुछ निश्चय नहीं। यह सब परिस्थितियों पर निर्भर है। और बड़े काम भी संयोगवश जल्दी हो सकते हैं। मनुष्य के हाथ में उसका प्रयत्न ही ईश्वर ने दिया है और फल का विधान अपने हाथ में रखा है। हमें अपना काम करना चाहिए और ईश्वर का काम उसे करना चाहिये। ईश्वर के काम पर हम कब्जा करें और अपना कर्त्तव्य ईश्वर से पालन कराने की इच्छा करें तो यह अनधिकार चेष्टा ही होगी।

फल की आतुरता, प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। धैर्य और साहसपूर्वक अपना कर्त्तव्य-पालन करते रहना और उचित मार्ग पर चलते रहना ही हमारे लिये श्रेयस्कर है। जल्दबाजी में लाभ तो कुछ नहीं होता, उल्टे सफलता का लक्ष्य दूर हट जाता है। साथ ही ऐसे उल्टे काम भी बन पड़ते हैं जो असफलता से भी अधिक कष्टकारक परिणाम उत्पन्न करने वाले सिद्ध होते हैं।


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