लोपामुद्रा ने अपने पति अगस्त्य से कुछ आभूषणों की प्रार्थना की। ऋषि असमंजस में पड़े, पर अपनी पत्नी की कामना पूर्ण करने लिए उन्होंने अपने शिष्यों के पास जाने में हर्ज न समझा और दूसरे दिन कुछ शिष्यों के साथ लेकर श्रुतर्वा राजा के पास चल दिये।
राजा ने उसका समुचित सत्कार करके पधारने का कारण पूछा तो ऋषि ने अपना अभिप्राय सुनाया। साथ ही यह भी कहा कि जो धन धर्मपूर्वक कमाया है और उचित कर्मों के खर्च करने से बचा हो उसी को मैं लूँगा।
श्रुतर्वा ने महर्षि को कोषाध्यक्ष के पास भेज दिया ताकि वे हिसाब जाँच कर देख सकें कि उनका इच्छित धन है या नहीं?
अगस्त्य ने हिसाब जाँचा तो समस्त राज्य-कोष धर्म उपार्जित कमाई का ही पाया पर साथ ही उचित कार्यों का खर्च भी इतना रहा कि उसमें बचत कुछ भी न रही। जमा खर्च बराबर था।
ऋषि वहाँ से चल दिये और राजा धनस्व के यहाँ पहुँचे और उसी प्रकार अपना अभिप्राय कह सुनाया। उसने भी श्रुतर्वा की तरह हिसाब जाँचने की प्रार्थना की। जाँचा गया तो वहाँ भी सन्तुलन ही पाया गया। अगस्त्य वहाँ से भी बिना कुछ लिये ही चल दिये। इसी प्रकार वे अपने कई अन्य धनी समझे जाने वाले शिष्यों के यहाँ गये पर वे सभी धन की पवित्रता पर ध्यान रखने वाले निकले और उनके कोष में बचत कुछ भी न निकली।
अगस्त्य वापिस लौट रहे थे कि रास्ते में इल्वण नामक दैत्य मिला। उसने महर्षि का अभिप्राय जाना तो अनुरोध पूर्वक प्रार्थना की कि मेरे पास विपुल सम्पत्ति जमा है, आप जितनी चाहें प्रसन्नता पूर्वक ले जा सकते हैं।
ऋषि इल्वण के महल में पहुँचे और हिसाब जाँचना शुरू किया तो वहाँ सभी कुछ अनीति से उपार्जित पाया। उचित कार्यों में खर्च न करने की कंजूसी से ही वह धन जमा भी हो सका था। अगस्त्य ने पाप-संचय लेने में पत्नी का अहित ही देखा और वे वहाँ से भी खाली हाथ लौट आये।
प्रतीक्षा में बैठी हुई लोपामुद्रा को सांत्वना देते हुए महर्षि ने कहा—भद्रे, धर्म से कमाई करने और उदारता पूर्वक उचित खर्च करने वालो के पास कुछ बचता नहीं। अनीति से कमाने वाले कृपण लोगों के पास ही धन पाया जाता है, सो उसके लेने से हमारे ऋषि जीवन में बाधा ही पड़ेगी। अपवित्र धन से शोभायमान होने की अपेक्षा तुम्हारे लिए पवित्रता की रक्षा करते हुए अभावग्रस्त रहना ही उचित है।
लोपामुद्रा ने पति की शिक्षा का औचित्य समझा और शोभा सौंदर्य की कामना छोड़, सादगी के साथ सुख-पूर्वक रहने लगी।