आनन्द का अनुपम अवसर

January 1964

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‘अखण्ड-ज्योति’ की रजत-जयन्ती का शुभ अवसर उसके प्रत्येक पाठक के लिये हर्ष, गर्व, और गौरव का दिन हैं। जिस प्रकाश प्रेरणा को पाकर हम में से हजारों लाखों ने अपनी जीवन दिशायें निर्माण की हैं, अस्त-व्यस्त गतिविधियों को छोड़ कर महापुरुषों के पद-चिन्हों पर चल सकने का बल प्राप्त किया है वह अवलम्बन दैवी वरदान की तरह ही हमारे लिये उपयोगी सिद्ध हुआ है।

इस पुण्य प्रकाश का पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश करना मानवता को गौरवान्वित करने वाला एक शुभ अवसर ही माना जा सकता है। इस पर्व का धर्म, संस्कृति, एवं मानवता के भविष्य निर्माण की दृष्टि से भारी महत्व है। फिर ‘अखण्ड-ज्योति’ के पाठकों के लिये तो वह व्यक्तिगत आनंद का सबसे अधिक महत्वपूर्ण अवसर है। पच्चीस वर्ष की रजत-जयंती पर जो हम लोग मौजूद हैं, उनमें से आधे भी स्वर्ण जयंती मनाने के लिये जीवित न रहेंगे। इस प्रकार हम में से अधिकाँश के जीवन में ऐसा अवसर दुबारा आने वाला नहीं है। इस अनुपम आनन्द के अवसर पर अपनी कृतज्ञता, श्रद्धा, आत्मीयता एवं सद्भावना प्रकट करने का जो अवसर आया है उसकी उपेक्षा कोई भी भावनाशील व्यक्ति नहीं कर सकता।

वसन्त-पंचमी का शुभ-मुहूर्त स्वतः ही इतना मंगलमय है कि मनुष्य ही नहीं अन्य जीव-जन्तुओं एवं वृक्ष वनस्पतियों तक में प्रकृति की प्रेरणा से नव-जीवन संचार होता है। प्रकृति अपनी विशेष चेतना एवं प्रेरणा धरती के कण-कण में संचारित करती हैं जिसका प्रत्यक्ष परिचय जड़-चेतन वसन्त-ऋतु का आरम्भ होते हो वृक्षों में नये कोंपल फूटते हैं, पुष्प खिलते है। हरियाली आती है, कोकिल, भ्रमर सरीखे पक्षी मधुर गुँजार करते हैं। प्रत्येक मनुष्य के मन में एक नव-यौवन जैसा उत्साह उमड़ने लगता है। प्रकृति के इस संकेत को समझते हुये मनीषियों ने वसन्त का स्वागत पर्व वसन्त-पंचमी का बनाया है।

भगवती सरस्वती का जन्म-दिन वसन्त-पंचमी है। मनुष्य जीवन की सर्वोत्कृष्ट सम्पदा ज्ञान है। ज्ञान का इस सृष्टि में जिस दिन उदय हुआ उसे बसन्त-पंचमी माना गया। प्रज्ञा-पूजन एवं सरस्वती जयन्ती के रूप में इस पर्व को मनाने की परम्परा चिरकाल से चली आ रही है।

‘अखण्ड-ज्योति’ की आचार्य जी की, साधना के अखण्ड घृत-दीप की प्रतीक पूजा इसी दिन स्थापित हुई थी। ‘अखण्ड-ज्योति’ पत्रिका भी उन्होंने इसी दिन निकाली।

गायत्री तपोभूमि का शिलान्यास इसी दिन हुआ। शत कुण्डी गायत्री महायज्ञ के लिए एक वर्ष का अनेक यज्ञ शृंखला वाला कार्यक्रम भी इसी दिन प्रारंभ हुआ। और भी अनेकों महत्वपूर्ण प्रसंग ऐसे हैं जो आचार्य जी ने इसी दिन आरंभ किये हैं। इस प्रकार उनके जीवन में प्रत्येक महत्वपूर्ण शुभ कार्य आरम्भ करने का दिन वसन्त-पंचमी ही है। अब की बार रजत-जयन्ती मनाये जाने का ऐतिहासिक सुअवसर भी इसी तिथि को मनाया जा रहा है यह कितने आनन्द की बात है। हमारे नगर में लगभग 50 ‘अखण्ड-ज्योति’ के सदस्य हैं। दिसम्बर के अंक में जब रजत-जयन्ती मनाने का पंचसूत्री कार्यक्रम छपा तो सभी का मन-मयूर नाचने लगा। यों एक व्यक्ति को पचासों के नाम और स्थान मालूम न थे पर एक ने दूसरे से पता लगा कर लगभग सभी को तलाश कर लिया और ता.10 दिसम्बर को एक मीटिंग विल्वेश्वर महादेव के मन्दिर पर बुलाई गई। एक दो को छोड़ कर प्रायः सभी सदस्य इकट्ठे हुये। वसन्त-पंचमी के दिन जयन्ती मनाने का प्रभावशाली कार्यक्रम बनाया गया। आवश्यक खर्च के लिए सदस्यों ने उसी स्थान पर करीब तीन सौ रुपये इकट्ठे कर लिए। पाँचों कार्यक्रमों को कार्यान्वित करने के लिये हममें से प्रत्येक क्या-क्या करेगा इसकी संक्षिप्त रूप-रेखा उस मीटिंग में ही बन गई और निश्चय किया गया कि इस पुण्य पर्व को केवल साधारण हर्षोत्सव न रहने देकर युग-निर्माण की वृत्तियों को व्यापक बनाने का माध्यम बनाया जाय।

मीटिंग में जो रूप-रेखा बनी थी उसे कार्यान्वित करने में हम सभी जुट गये हैं। वसन्त-पंचमी के अवसर पर हम लोगों का आन्तरिक आनन्द और उत्साह जो सम्मिलित रूप से प्रकट होगा, तो उस समय मात्र से चित्त पुलकित हो उठता है। रजत-जयन्ती कैसी मनी यह तो समय पर ही विदित होगा पर उसकी तैयारी में ही अभी से हमें जो आनन्द मिल रहा है उसे जीवन के अनुपम अवसर रूप में ही अनुभव करते हैं।

गुरु शरणदत्त, होशियारपुर


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