काना-कुरूप-सेम्युअल जॉनसन

January 1964

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सेम्युअल जॉनसन उस काले-कलूटे, भद्दे और बेढंगे, लड़के का नाम था जो इंग्लैंड के लिचफिल्ड गाँव में सन् 1709 में पैदा हुआ था। बचपन में चेचक निकली तो एक आँख फूट गई। फिर गण्डमाला की बीमारी ने घेर लिया। उसका बाप एक छोटा पुस्तक विक्रेता था। गरीबी में गुजर होती थी, रहने को घर भी न था सो उसकी माँ ने दुकान में ही प्रसव किया। जॉनसन किताबों के ढेर में जन्मा और अन्त भी कैसा विलक्षण कि वह पुस्तकों के ढेर में ही 77 वर्ष का होकर मर गया।

सेम्युअल जब तीन साल का था और बुरी तरह बीमारियों से घिरा हुआ था तो उसकी माता को किसी ने की दिया कि रानी का स्पर्श कराने से वह अच्छा हो सकता है। माँ की ममता देखिये—बेचारी चिथड़ों में लपेट कर अपने बच्चे को रानी के पास लंदन ले गई और किसी प्रकार स्पर्श कराने में सफल हो गई। इसका परिणाम तो क्या होना था पर माता की ममता की वह भी एक करुण कहानी थी जिसे जॉनसन जीवनभर नहीं भूला। उस उपचार में एक छोटी चाँदी की कटोरी तथा चम्मच खरीदा गया था उसे उस काने कुरूप लड़के ने अपनी माता की स्मृति में जीवनभर सँभालकर रखा।

बड़ा हुआ तो स्कूल में दाखिल किया गया। निर्धनता तो बाधक थी ही, कुरूपता ने भी उसे कम परेशान नहीं किया। स्कूल में लड़के उसे बुरी तरह चिढ़ाते, कभी-कभी मारपीट भी कर देते, बेचारा अपनी सुरक्षा के साधन भी घर से लेकर जाता। आखिर तंग आकर उसने स्कूल छोड़ दिया और अपने बाप की दुकान पर ही काम करने लगा। दुकान पर बैठे-बैठे ही उसने वहाँ जितनी भी किताबें थीं सब पढ़ डाली। उसके साथ ब्याह करने को भी कौन स्त्री तैयार होती? आखिर एक अधेड़ विधवा, जो जॉनसन से दूनी उम्र की थी, किसी प्रकार उससे शादी करने को तैयार हुई और उसकी गृहस्थी बसी।

साहित्य में उसे रुचि थी, लेख-लिखने का चस्का तो लगा, कुछ लिखा भी, पर उन रचनाओं का छपना मुश्किल था। उसने कुछ लेख और पुस्तकें लिखकर प्रकाशक के पास भेजे तो अस्वीकृत के उत्तर के साथ, एक सलाह भी मिली कि—”आप इस लेखन के झंझट में न पड़ें। इससे अच्छा तो कुली का काम रहेगा जिसमें कम-से-कम भर पेट रोटी तो मिल जाया करेगी।”

इन परिस्थितियों के बीच कोई साधारण युवक अपने जीवन को भार ही समझता, भाग्य को कोसता रहता और अपने मौत के दिन गिन-गिनकर पूरे करता रहता। सब ओर तिरस्कार लाँछना, असफलता और उपहास की ठोकरें लगने पर आमतौर से मनुष्य का दिल टूट जाता है, हिम्मत पस्त हो जाती है और आशा का दीपक बुझ जाता है। पर जॉनसन ने इस मानवीय दुर्बलता को पास भी न फटकने दिया। उसने कभी दिल छोटा न किया, कभी निराशा की बात न सोची, उसने अन्तर का आशा दीप जलाये रखा और इस विश्वास पर दृढ़ रहा कि वह अथक परिश्रम करेगा और कठिनाई के पहाड़ को काटकर भी आगे का रास्ता बनावेगा। अदम्य इच्छा शक्ति के बलबूते पर उसने जीवन के अन्त तक आगे बढ़ने की चेष्टा की। बार-बार ठोकरें लगीं, पर हर ठोकर के बाद वह और अधिक सावधानी के साथ—और अधिक दृढ़ता एवं उत्साह के साथ बढ़ा। पौरुष को चुनौती देने वाली हर बाधा का उसने हँसकर मुकाबला किया और अन्त में जीता भी वही।

सेम्युअल जॉनसन ने अंगरेजी भाषा का महान शब्दकोष बनाने का काम अपने हाथों में लिया और अधिक परिश्रम से सात वर्ष में उसे पूरा कर दिया। यह सात वर्ष उसने कितनी कठोर साधना के बिताये इसे कोई नहीं जानता। केवल लोग यह जानते हैं कि उसने शब्दकोष बनाकर बहुत बड़ा काम कर डाला। जब वह शब्दकोष प्रकाशित हुआ तो प्रकाशक ने उसका पारिश्रमिक बत्तीस हजार रुपया दिया जिसके उसकी आर्थिक स्थिति भी सुधरी और ख्याति भी प्राप्त हुई। सरकार ने भी उसके कार्य से प्रभावित होकर जीवन भर के लिए पेन्शन बाँध दी और रोटी की समस्या से छुटकारा मिल गया।

जॉनसन जब शब्दकोष तैयार करने में लगे हुए थे तब उन्हें पैसे की बहुत तंगी थी। उसने सुन रखा था कि अर्लचेस्टर फील्ड अपनी विशाल सम्पत्ति में से कला प्रेमियों की भी कुछ सहायता किया करते हैं। इसलिए वे भी उनके यहाँ जा पहुँचे। जॉनसन के दुर्भाग्य ने वहाँ भी उसका पीछा न छोड़ा। सहायता मिलना तो दूर—बेचारे को कमरे में से धक्के देकर बाहर निकाल दिया गया। बहुत वर्षों के बाद जब वह कोष छप गया और उसकी कीर्ति चारों ओर फैल गई तो अर्लचेस्टर फील्ड ने उन्हें कुछ पुरस्कार देना चाहा। इस पर जॉनसन ने उत्तर दिया—”आपकी उदारता प्रकट होने में कुछ देर हो गई। अब मैं इस योग्य हूँ कि अपने पैरों पर स्वयं खड़ा हो सकूँ। ऐसी दशा में सहायता मेरे लिए निरर्थक है।”

जॉनसन की आर्थिक स्थिति सुधरी तो उसने मौज-मजा करने की बात न सोची, वरन् उसे जिन परिस्थितियों में होकर गुजरना पड़ा था, उन्हीं परिस्थितियों में पड़े हुए व्यक्तियों की सहायता में अपने धन का उपयोग करता रहा और अपना जीवन गरीबी में ही काटा। उसके घर में कई पागल, मूर्ख, झगड़ालू, फूहड़, बेवकूफ , कहलाने वाले लोग पड़े रहते थे और आश्रय पाते थे। लोग कहते थे कि ये सब बेकार हैं इन्हें क्यों पाल रखा है? तो भी वह यही कहता—आपकी दृष्टि में आज जो बेवकूफ है, हो सकता है वह वस्तुतः वैसा न हो। मैंने भी बहुत दिनों बेवकूफों की श्रेणी में रहकर दिन काटे हैं यदि जीवन के अन्तिम दिनों में अपनी इस बिरादरी की कुछ सेवा कर सकूँ तो इसमें बुरा भी क्या है?

यह ठीक है कि कठिनाइयाँ मनुष्य की प्रगति का रास्ता कुण्ठित करती हैं और सुविधाएँ मिलने से आगे बढ़ना सरल हो जाता है। पर यह भी ठीक है कि वे दोनों ही व्यक्ति के आत्मविश्वास के आगे तुच्छ हैं। यदि आत्म-विश्वास न हो, दिल छोटा हो, और जरा-सी कठिनाई को देखकर हिम्मत हार जाय तो फिर अनेक सुविधाएँ होते हुए भी उसकी गाड़ी रुकी ही पड़ी रहेगी। आशंकाओं, भयों और दुश्चिन्ताओं से ही उसका मन काँपता रहेगा और हर छोटी-बड़ी कठिनाई उसके उत्साह को ठण्डा करती रहेगी। ऐसी दशा में अच्छी परिस्थितियों के बीच रहकर भी कोई व्यक्ति अपने जीवन में कहने लायक सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। किन्तु यदि अपना मनोबल स्थिर है, कठिनाई को देखकर विचलित न होने और उसका मुकाबला करने के लिए साहस के साथ अड़ जाने का स्वभाव है तो बाधाओं को झक-मारकर रास्ता छोड़ना पड़ेगा। अदम्य उत्साह और प्रबल पुरुषार्थ को कुण्ठित कर सके ऐसी कोई शक्ति इस संसार में नहीं है।

काना, रोगी, गरीब, कुरूप जॉनसन की कब्र वेस्ट-मिनिस्टर एवे में बनी है, जहाँ इंग्लैंड के प्रतिष्ठा प्राप्त महापुरुष दफनाए जाते हैं। यह कब्र उस जगह से पास ही है जहाँ उसकी माँ रानी का स्पर्श कराने ले पहुँची थी। सेम्युअल अब नहीं रहे पर उसके जीवन से अनुभवसिद्ध शिक्षा अभी भी मौजूद है कि—यदि व्यक्ति में आत्मविश्वास, धैर्य और पुरुषार्थ समुचित मात्रा में हों तो बड़ी से बड़ी कठिनाइयाँ भी किसी की प्रगति का मार्ग अवरुद्ध नहीं कर सकतीं।


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