समृद्धि और सुसम्पन्नता का मार्ग

January 1964

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शायद ही कोई व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति से संतुष्ट मिलेगा। कारण एक ही है कि धन के सम्बन्ध में हमारा दृष्टिकोण अनात्मकारी बना हुआ है। अध्यात्म सिद्धान्तों का यदि इस क्षेत्र में प्रवेश हो सके तो आज ही अर्थ-संकट का हल निकल सकता है और सर्वत्र सुसम्पन्नता एवं समृद्धि का वातावरण उत्पन्न हो सकता है। कौन खर्च जीवनोत्कर्ष के लिए और कौन विलासिता के लिए किया जा रहा है इसका उपयोगिता और अनुपयोगिता की कसौटी पर परखते हुए परीक्षण किया जाय जो प्रतीत होगा कि हमारा अधिकाँश धन निरर्थक कामों में खर्च होता है। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा जैसी आवश्यक बातों में जितना व्यय होना चाहिए उसकी अपेक्षा उन्हीं चीजों में विलासिता एवं आडम्बर जुड़ जाने से खर्चे की बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है। बीड़ी, पान, तमाखू, सिनेमा, शृंगार-प्रसाधन, कीमती पोशाकें, फैशन के उपकरण, सजावट, मनोरंजन, अन्ध-विश्वास, ढकोसले, मटरगस्ती, विवाह-शादी आदि के जंजालों में कितना खर्च बढ़ता है इसका हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि जीवनोपयोगी कार्यों की अपेक्षा इन बेकार बातों में पैसे की बर्बादी कहीं अधिक होती है। अध्यात्म का सिद्धान्त है कि पैसे को लक्ष्मी का प्रतीक मानकर उसे केवल जीवनोत्कर्ष के आवश्यक कामों में ही खर्च किया जाय। अपव्यय के नाम पर एक फटी-कौड़ी भी बर्बाद न होने दी जाय। यदि इस आदर्श के आधार पर अपव्यय को कठोरतापूर्वक रोका जा सके तो आधे से अधिक अर्थ-संकट देखते-देखते दूर हो सकता है। उचित आवश्यकताओं की पूर्ति भर के लिए आसानी से कमाया जा सकता है। तंगी तो अपव्यय के कारण ही पड़ती है। इसकी रोक-थाम तभी संभव है जब मनुष्य अपनी अर्थ-नीति को अध्यात्म तत्व-ज्ञान के आदर्शों के अनुरूप निर्धारित करते हुए उस पर चलने का प्रयत्न करें।

अपव्यय, अपनी हैसियत से अधिक खर्च करना एक ऐसी घृणित बुराई है जिससे अन्य अनेकों दोष, दुर्गुण पैदा होते हैं। अधिकाँश पाप प्रवृत्तियों का जन्म इसी अत्याचार के कारण होता है। जुआ, चोरी, ठगी, बेईमानी, व्यभिचार, अनीति, अपहरण, रिश्वत, लूट, हत्या आदि के कुकर्म बहुतों को अपव्यय की आदत के कारण उत्पन्न हुई तंगी को पूरा करने के लिए ही करने पड़ते हैं। यदि मनुष्य अपने खर्चे को सीमित रखे, अनावश्यक बातों में एक पाई भी नष्ट न होने दे, सादा सात्विक एवं सरल जीवन-क्रम बना कर रहे तो वह अर्थ-संकट जिसके कारण सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई है सहज ही दूर हो सकता है।

आलस्य और उपेक्षा वृत्ति छोड़कर यदि लोग परिपूर्ण श्रम एवं मनोयोगपूर्वक अपना कार्य सर्वोत्तम बनाने की भावना लेकर करें तो निश्चय ही उपार्जन की क्षमता भी बढ़ेगी। खरे काम का सर्वत्र स्वागत किया जाता है और उसका उचित मूल्य भी मिलता है। अपनी योग्यता एवं क्षमता बढ़ाते चलने के लिए जो भी प्रयत्न करेगा उसकी उपार्जन शक्ति भी निश्चित रूप से बढ़ेगी। उपार्जन बढ़ाने और अपव्यय रोकने का जिसे ध्यान है उसे आर्थिक तंगी अनुभव करने का कभी अवसर ही न आयेगा। ईमानदारी का पैसा फलता-फूलता है। वह चोरी, बीमारी, मुकदमेबाजी, ऐय्याशी एवं फिजूल-खर्ची में बर्बाद न होगा। पसीने की कमाई खर्च करते हुए दर्द लगता है। ईश्वर भी ऐसे पैसे में ‘बरकत’ देता है। यदि हम अपनी नीति को ईमानदारी और सादगी की बनाते हुए आर्थिक अध्यात्म को अपनाने का प्रयत्न करें तो आर्थिक तंगी जैसी कठिनाई का दुःख भुगतने का अवसर ही सामने न आवेगा।

सामाजिक दृष्टि से देखें तो व्यक्तिगत धन-संग्रह एवं विलास करने की प्रवृत्ति ने समाज में गरीबी, बेकारी, तंगी, अपव्यय की प्रवृत्ति, ईर्ष्या एवं अनाचार को जन्म दिया है। यदि समानता और सदुपयोग का आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखते हुए संचय के स्थान पर वितरण की, संविभाजन की भावना काम करे तो जितनी वस्तुएं आज संसार में मौजूद हैं उन्हीं से सबका गुजारा आनन्दपूर्वक हो सकता है। संचय, स्वामित्व एवं अपव्यय की बुराइयों ने धन को एक समस्या बना रखा है। अर्थ-तंत्र को आत्मिक दृष्टिकोण से जब तक चलाया न जायगा तब तक उसकी उलझन सुलझेगी भी नहीं। कोई थोड़ा अधिक भी कमाने लगा या कुछ आकस्मिक लाभ हो गया तो उससे भी क्या बनने वाला है? व्यक्ति एवं संसार की निजी तथा सामूहिक समस्या का हल अध्यात्म सिद्धान्तों के अनुसार ही होगा। कम आमदनी में भी स्वर्गीय आनन्द जैसा सुख प्राप्त करते हुए जी सकने का प्रत्यक्ष उदाहरण ऋषियों ने अपनी जीवन-चर्या के रूप में प्रस्तुत किया था। वह मार्ग हम सब के लिए आज भी खुला पड़ा है। अध्यात्म हमें आर्थिक तंगी से छुड़ा सकता है और कम आमदनी होते हुए भी धनकुबेरों से बढ़ी-चढ़ी प्रसन्नता का रसास्वादन दे सकने में समर्थ हो सकता है।

स्वजन-परिजनों का सहयोग भी हमारी सज्जनता पर निर्भर है। सद्गुणों के आकर्षण से दूसरों को अपने वशवर्ती बना सकने से बढ़ा-चढ़ा वशीकरण मन्त्र इस संसार में और कोई नहीं है। मिठाई को बच्चों से लेकर बूढ़े तक सभी पसन्द करते हैं। मधुरता, प्रेम, नम्रता, सज्जनता एवं उदारता का व्यवहार करना जिसे आता है उसे सहयोग देने के लिए अपने-पराये सभी तत्पर रहेंगे। सज्जनता मिठाई से अधिक मीठी होती है और उसकी सुगंध प्राप्त करने के लिए हर मनुष्य लालायित फिरता रहता है। यह मिठास यदि हम अपने स्वभाव में सम्मिलित कर लें तो यह शिकायत करने का कोई कारण न रह जायगा कि दूसरे लोग हमें सहयोग नहीं देते या हमें दूसरों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। माना कि संसार में बुरे लोग बहुत हैं फिर भी सज्जनता के आगे बुराई को भी नरम बनना पड़ता है। प्रकाश की शक्ति अंधकार से अधिक है। बुराई को परास्त करने की परिपूर्ण सामर्थ्य भलाई में मौजूद है। यदि अपने गुण, कर्म और स्वभाव में अध्यात्म का, सज्जनता का —समुचित अंश विद्यमान रहे तो दूसरों का विरोध असहयोग एवं दुर्भाव अपने लिए तो कम हो ही सकता है। प्रेम की प्रतिक्रिया अन्ततः सुखद परिणाम साथ लेकर ही वापिस लौटती है।

हम अपने आपको सुधारकर अपनी समस्त अस्त-व्यस्तताओं को सुव्यवस्था एवं सुसम्पन्नता में बदल सकते हैं। यह कैसे संभव होगा उसकी विस्तृत विवेचना इसी स्तंभ के अंतर्गत अगले महीनों में प्रस्तुत की जाती रहेगी। अभी तो हमें इतना ही समझ लेना पर्याप्त है कि हमारे सूक्ष्म एवं स्थूल शरीर में अगणित शुभ संभावनाएं ओत-प्रोत हैं। पर वे प्रसुप्त पड़ी हैं। अध्यात्म का प्रकाश पड़ने से वे जागृत हो सकती हैं और हमें नर से नारायण बना सकती हैं।

गायत्री की उच्चस्तरीय साधना


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