परस्पर सहयोग से ही प्रगति होगी

January 1964

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सहयोग और सेवा का उच्च आदर्श

यदि इस पृथ्वी पर हमारा सामाजिक जीवन पारस्परिक प्रतियोगिता के स्थान में परस्पर सहायता के तत्व पर स्थापित हो जाय तो यही भूमण्डल स्वर्ग से भी उच्च कोटि का स्थान बन जाय। जब तक मानव-समाज में प्रतियोगिता तथा संघर्ष का सम्बन्ध है तब तक सामाजिक जीवन यथार्थ नरक ही तो है। इसमें निम्न स्वार्थ तथा मारधाड़ के सिवा और कुछ नहीं है। किन्तु पारस्परिक प्रतियोगिता के जंगली नियम को छोड़कर व्यक्ति तथा समाज परस्पर सहायता तथा सेवा को ही मानवीय जीवन का नियम मानकर जीना आरम्भ कर दें तो सर्वत्र मिलाप तथा सहकारिता ही दिखाई देंगे और तब यही दुःख तथा संकटपूर्ण संसार परम लोक बन जायगा।

मानवता का आविर्भाव ही पृथ्वी पर स्वर्ग के निर्माण तथा अवस्थिति के लिए हुआ है। स्वर्ग क्या है? आदर्श तथा नित्य प्रगतिशील जगत की मानवीय योजना ही स्वर्ग है। किन्तु धर्म के नाम पर दुकान खोलने वालों ने सर्वसाधारण को यह पट्टी पढ़ा रखी है कि इस संसार में दुःख तथा अमंगल के सिवा कुछ नहीं है। हाँ, यदि सुख प्राप्ति की आशा की जा सकती है तो मरणोपरान्त स्वर्ग जाने पर ही। यह आलोक सिद्धान्त प्राचीनकाल से मानव-सभ्यता तथा प्रगति में बाधक होता चला आता है। अब बहुत समय तक ठोकरें खाने के बाद मनुष्य समझने लगा है कि वह अन्ध तथा परम्परागत मिथ्या रूढ़ियों से मुक्त होकर अपने लिये एक नये संसार की रचना कर सकता है और सदाचार तथा प्रेम का आचरण करके यहीं पूर्ण शान्ति और आनन्द लाभ कर सकता है। —”चरित्र का विकास”

आप अनिवार्य रूप से एक सामाजिक प्राणी है

सामाजिक-चेतना जाग्रत होने की पहली शर्त यह है कि आप यह बात अच्छी तरह समझ लें कि आपके जीवन का प्रयोजन केवल अपने मनोरथों की सिद्धि करना है। आप अनिवार्य रूप से सामाजिक प्राणी है। दूसरा सुख-दुःख में भाग लेते हुए ही आपको जीना है। एक चेतना जाग्रत होने के बाद आपका दृष्टिकोण सर्वथा बढ़ जायगा। आपकी दिलचस्पी सार्वजनिक हित के काम में होगी। आप केवल मनोरञ्जक उपन्यासों में समय नष्ट न करके सामाजिक समस्याओं को सुलझाने के विषय पुस्तकें पढ़ना शुरू कर देंगे। आपको यह चिन्ता होने लगे कि अशिक्षितों को शिक्षित किस तरह बनाया जाय रोगियों की चिकित्सा का प्रबन्ध कैसे किया जाय? अभावग्रस्त लोगों का दुःख दारिद्रय दूर करने का सबसे अच्छा उपाय कौन-सा है?

इस चिन्ता के जागृत होते ही आपकी इच्छा होगी कि आप इन समस्याओं का स्वयं अध्ययन करें। अध्ययन बिना निरीक्षण के नहीं होता। निरीक्षण के लिए आपको गरीबों, अनपढ़ लोगों और बीमारों में जाना पड़ेगा। उनसे मिलकर आप उनको सांत्वना देंगे, उनके दुःख की वेदना सुनकर आँसू बहा देंगे। उन आँसुओं से आपकी आत्मा की मलिनता धुल जायगी। आपकी आँखों की दृष्टि विमलप हो जायगी।

अपने से गरीब लोगों में जाकर आपको अनुभव होगा कि ईश्वर के वरद पुत्रों को अधिक उदार होने की आवश्यकता है। लाखों का दुर्भाग्य थोड़े से लोगों की उदारता से सौभाग्य में बदल सकता है। आप देखेंगे कि किस तरह कुछ लोग चुपचाप जीवन की असह्य यंत्रणाओं को बर्दाश्त कर रहे हैं। बलिदान केवल ऊँचे ध्येय के लिये, बड़ी-बड़ी विज्ञप्तियों के साथ नहीं किया जाता; छोटी-छोटी बातों में भी मौन रहकर कितना ही समर्पण किया जा सकता है। तब आपको यह सोचकर पश्चाताप होगा कि जब आप बड़ी आसानी से किसी का भार हलका कर सकते थे, उस समय आप केवल अपने आँचल में मुँह छिपाये क्यों बैठे रहे? स्मरण रखिए कि उच्च कोटि का चरित्र पर्वत की गुफाओं में बैठकर प्राप्त नहीं किया जा सकता। सामाजिक चेतना से शून्य आत्मा हमारी प्रवृत्तियों का नेतृत्व कभी नहीं कर सकती।

—”चरित्र निर्माण”

समस्त संसार ही हमारा परिवार है

वास्तव में समस्त संसार एक परिवार है। जो मनुष्य जितना बड़ा है उसका परिवार भी उतना ही बड़ा होगा और जो मनुष्य जितना छोटा है उसका परिवार भी उतना ही छोटा होता है। जिसके जीवन का जितना अधिक विकास होता है उसका परिवार उतना ही विशाल होता चला जाता है। इस परिवार की कोई सीमा नहीं है। किसी का परिवार दस-बीस व्यक्ति यों का होता है, किसी का परिवार सौ, दो सौ से बनता है और किसी के परिवार की संख्या लाखों-करोड़ों तक पहुँच जाती है। इसीलिए परिवार की कोई सीमा नहीं हो सकती। संसार में छोटे-से-छोटे परिवार भी हैं और बड़े-से-बड़े परिवार भी हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जो मनुष्य जितना ही बड़ा है उसका उतना ही बड़ा परिवार है। ईसा, बुद्ध और गाँधी के परिवार की सीमा विस्तृत होकर सम्पूर्ण संसार तक पहुँच गई थी।

जिसके निकट सारा संसार एक परिवार बन जाता है उसके निकट अपने और पराये में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं रह जाता। वह सभी को अपना समझता है, सभी के साथ स्नेह को संसार के महान पुरुषों ने अधिक-से-अधिक महत्व दिया है। इनका महत्व बढ़ाने के लिए ही उन महापुरुषों ने इन्हें विश्वबन्धुत्व का नाम दिया है। इस नाम में बहुत अधिक मधुरता और स्नेह है। हम समस्त संसार के मनुष्यों के साथ भ्रातृ-स्नेह का अनुभव करें और उनके दुःख को अपना दुःख एवं उनके सुख को अपना सुख समझें, यह एक बहुत ऊँची भावना है। संसार के सभी स्त्री-पुरुष एक ही परिवार के सदस्य हैं। संसार के किसी भी बच्चे को हम अपने परिवार का एक बच्चा समझें और संसार के किसी भी मनुष्य के साथ हम वही स्नेह करें जो अपने किसी निजी सम्बन्धी से किया करते हैं, तो यह एक बहुत बड़े कर्त्तव्य-धर्म का पालन करना समझा जायगा।

—”विचार और विज्ञान”

मनुष्यों का हित अन्योन्याश्रित है।

जीवन की सबसे बड़ी श्रेष्ठता इसी में है कि एक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपना समझे और उनके काम आवे। इस प्रकार दूसरों को प्रसन्न बनाने की भावना में वह स्वयं अधिक प्रसन्न और सुखी हो सकेगा। यही भावना प्रकृति का आदेश है। इस प्रकृति के द्वारा न जाने कितने पुरुष दूसरों की सेवा और सहायता करके महापुरुष बन गये। परन्तु जिन लोगों ने दूसरों के साथ घृणा करना सीखा उनका भयानक पतन हुआ। मालूम नहीं कि मनुष्य जाति में परस्पर द्वेष की भावना किस आधार पर उत्पन्न की गई? विश्व की सम्पूर्ण मनुष्य जाति एक शरीर के रूप में है और अगणित व्यक्ति उसके संख्यातीत अंग-प्रत्यंग हैं। ये छोटे भी हैं और बड़े भी परन्तु उनमें किसी की आवश्यकता कम और किसी की अधिक नहीं है। सम्पूर्ण शरीर की रक्षा के लिए सब की आवश्यकता समान रूप से है। इस सत्य को अनुभव करके मनुष्य मात्र के शुभ-चिन्तक, सेवक और सहायक महात्मा पाल ने कहा है—

“आँखें हाथों से नहीं कह सकती कि हमको तुम्हारी आवश्यकता नहीं और न मस्तक पैरों से कह सकता है कि हमको तुम्हारी जरूरत नहीं है। यदि शरीर का एक अंग पीड़ित होता है तो सम्पूर्ण शरीर पीड़ित और अस्त-व्यस्त हो जाता है। यही मानव प्रकृति है और यदि उसका कोई एक अंग स्वास्थ्य प्राप्त करता है तो उसका लाभ सम्पूर्ण शरीर को मिलता है।” महात्मा पाल के कथनानुसार “एक मनुष्य दूसरे को उसी दशा में हानि और पीड़ा पहुँचा सकता है जब वह स्वयं पीड़ित होता है और हानि उठाता है; और कोई एक देश अथवा राष्ट्र किसी दूसरे देश अथवा राष्ट्र को उसी दशा में क्षति पहुँचा सकता है, जब वह स्वयं क्षति उठाता है।” जब यह सत्य है कि एक मनुष्य दूसरे को हानि पहुँचाने के साथ-साथ स्वयं भी हानि उठाता है तो यह भी निश्चय है कि एक मनुष्य दूसरे को उन्नत बनाकर स्वयं भी उन्नति करता है। अब यह समझना हमारा काम है कि हम उन्नत होना चाहते हैं अथवा पतित, लाभ उठाना चाहते हैं या हानि?

—”सादगी से श्रेष्ठता”


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