प्रभावशाली साधना की पृष्ठभूमि

January 1964

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साधना क्षेत्र में प्रगति करने की वास्तविक इच्छा करने वालों के लिए शरीर और मन का शोधन आवश्यक है। धुले कपड़े पर ही ठीक तरह रंग चढ़ता है। तेल से चिकना, कालिख से गन्दा बना हुआ वस्त्र कीमती रंगों से भी ठीक तरह रंगा न जा सकेगा। यही नियम अध्यात्म मार्ग में भी चरितार्थ होता है। अन्नमयकोश, मनोमयकोश, विज्ञानमयकोश, आनन्दमयकोश के अनावरण की पञ्चकोशी उच्चस्तरीय गायत्री उपासना का प्रशिक्षण गत तीन वर्षों से किया जा रहा है। इस आधार पर अनेकों साधकों ने आशाजनक प्रगति की है। उन्हें घर में रहते हुए एक-दो घण्टा नित्य लगाकर की जा सकने वाली इस साधना से ऐसे उत्साहवर्धक अनुभव हुए हैं जैसे गिरि गुफाओं में दीर्घकाल से रहने वाले योगीजनों को भी नहीं हो पाते। किन्तु साथ ही ऐसे भी अनेक साधक हैं जिन्हें मन को एकाग्र करने की समस्या का हल भी अभी तक नहीं मिला है। लकीर पीटने की तरह वे कुछ करते तो रहते हैं पर न तो उन्हें प्रकाश मिलता है और न आनन्द ही आता है।

एक ही विधि विधान को अपनाने वाले साधकों की प्रगति में इस प्रकार का आकाश-पाताल का अन्तर होने का कारण उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति ही होती है। एक ही रोग के कई रोगियों को एक ही दवा दी जाय तो सब पर समान असर नहीं होता। रोगियों की शारीरिक स्थिति, पथ्य-कुपथ्य, रहन-सहन, संकल्प-विकल्प के आधार पर रोग के अच्छे होने न होने में बहुत अन्तर बना रहता है यही बात साधना क्षेत्र में भी लागू होती है। उपासना विधि एक-सी रहने पर भी प्रगति में बहुत भारी अन्तर पाया जाता है।

अस्वस्थता, आध्यात्मिक प्रगति में एक भारी बाधा है। रोगी शरीर में रहने वाला मन भी रोगी हो जाता है। रोग के कारण शरीर में होते रहने वाले कष्टों की तरह विक्षुब्ध मन में भी अनेक प्रकार के उद्वेग उठते रहते हैं। उछलते हुए पानी में सूर्य का प्रतिबिम्ब दीख नहीं पाता, उसी प्रकार अशान्त मन में स्थिरता, एकाग्रता और स्थिरता नहीं रह पाती। ऐसी दशा में साधनात्मक आनन्द एवं प्रगति से वञ्चित रहना पड़े तो इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं है।

शरीर के समस्त रोगों की जड़ अपच है। पाचन तन्त्र में गड़बड़ी आने से पेट में सड़न उत्पन्न होती, वायु का प्रकोप बढ़ता है और रक्त में अशुद्धता भर जाती है। यह अशुद्धता जिस अंग में जड़ जमा लेती है वहीं रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। बीमारी किसी भी अंग में क्यों न हो, उसका नाम रूप कुछ भी क्यों न हो वस्तुतः वह अपच की ही प्रतिक्रिया होती है। बिगड़े हुए पाचन तन्त्र का सुधार करने में संसार की समस्त चिकित्सा-प्रणालियों की अपेक्षा प्राकृतिक चिकित्सा सिद्धान्त का अत्यन्त उत्कृष्ट स्वरूप है। उसमें मनोविज्ञान और अध्यात्म का भी समावेश होने से न केवल शरीर का वरन् मन एवं अन्तःकरण का भी परिशोधन होता है।

चान्द्रायण व्रत की पद्धति को हम और भी अधिक वैज्ञानिक बना रहे हैं। उपवास के साथ-साथ ऐनेमा, मिट्टी की पट्टी, वाष्प-स्नान, कटि-स्नान, सूर्य किरण-चिकित्सा, मृतिका-लेपन आदि पञ्चकर्मों द्वारा पेट ही नहीं वरन् शरीर के अन्य अंगों का भी शोधन होता है और देखा यह गया है कि एक वर्ष तक किसी सुयोग्य चिकित्सक की औषधि चिकित्सा करने की अपेक्षा एक महीने के चांद्रायणव्रत से कहीं अधिक लाभ होता है। गायत्री तपोभूमि में गत दो वर्षों से यह प्रयोग चल रहा है। दो-सौ से अधिक व्यक्ति वैज्ञानिक पद्धति का चान्द्रायण कर चुके हैं, उन्हें जितना लाभ हुआ है उसे देखते हुए इसे आरोग्य की दृष्टि से एक जादू ही कहा जा सकता है।

इन्द्रियों पर संयम चान्द्रायण-व्रत में अनिवार्य है। आस्वादन, ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करने से मन की चञ्चलता दूर होती है। आत्म-निरीक्षण करते हुए अपने गुण-कर्म-स्वभाव में घुसी हुई त्रुटियों को देखना-समझना, भूलों पर पछताना, उनके लिए आत्म-प्रताड़ना एवं प्रायश्चित करना मन की शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय है। चान्द्रायण व्रत में पूरे एक महीने यही मानसिक क्रिया करनी पड़ती है। जो पाप बने हैं उनसे हुई सामाजिक क्षति पूर्ति के लिए कोई पुण्य प्रयत्न सोचना पड़ता है, जिससे उत्साह एवं सन्तोष से पाप का दुख एवं असन्तोष दूर हो सकें। इस प्रक्रिया को अपनाने से मनोभूमि की शुद्धि अवश्यंभावी है। चान्द्रायण व्रत करने वाले का मन भी शरीर की भाँति ही निरोग बनता है। अशुद्ध मन में अनेकों मानसिक बीमारियाँ एवं विकृतियाँ भरी रहती हैं जिनके कारण लोग प्रायः मूर्खतापूर्ण कार्य करते हैं और आधे पागल जैसे बने रहते हैं। चान्द्रायणव्रत करने के उपरान्त प्राप्त होने वाली मानसिक निरोगिता से अनेक व्यक्ति यों के स्वभाव एवं दृष्टिकोण बदलते देखे गये हैं। सिरदर्द, जुकाम, अनिद्रा, दुःस्वप्न, चिड़चिड़ापन, आवेश, उत्तेजना, चिन्ता, भय, निराशा, घबराहट आदि अनेक

मानसिक रोगों की सरल प्रभावशाली चिकित्सा चान्द्रायण व्रत के अतिरिक्त दूसरी हो नहीं सकती। विशेष प्रकार की मानसिक दुर्बलताओं का निवारण करने के लिए मनोविज्ञान चिकित्सा के सिद्धान्तों का आश्रय लेकर हम चान्द्रायण व्रत की अवधि में दूसरी प्रकार के उपचारों का भी समावेश करते रहते हैं। इसलिए वह न केवल एक आध्यात्मिक तप मात्र रहता है वरन् शरीर-शोधन के साथ-साथ मनोविकारों के समाधान का एक श्रेष्ठ उपचार भी बन जाता है। पिछले दिनों इस प्रकार के सैकड़ों प्रयोगों में सफलता प्राप्त करने के उपरान्त हमारा सुनिश्चित विश्वास यह हो गया है कि आत्मिक प्रगति के लिए, आन्तरिक भूमिका की आवश्यक तैयारी के लिए चान्द्रायणव्रत जितना आवश्यक है उतना ही वह शारीरिक और मानसिक दोषों को सुधारने हुए लौकिक-जीवन में सुख-शान्ति का मार्ग प्रशस्त करने की दृष्टि से भी उपयोगी है।

उच्चस्तरीय गायत्री उपासना का आवश्यक लाभ उठाने के लिये अधिक नहीं तो एक चान्द्रायण व्रत करने का अवसर निकालना चाहिए। यों उसे पूरी जानकारी के उपरान्त अपने घरों पर भी किया जा सकता है। पर अच्छा यही है कि अपने स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की समग्र परिशुद्धि की दृष्टि से किसी अनुभवी व्यक्ति के सान्निध्य में ही उसे किया जाय। अखण्ड-ज्योति के अगले अंकों में चान्द्रायणव्रत सम्बन्धी पेचीदगियों का वर्णन किया जायगा जिसे पूरी तरह समझ लेने के उपरान्त ही किसी को अपने आप करने की बात सोचनी चाहिए। लाभ की बात सोचकर अविधिपूर्वक कदम उठाने लगने की जल्दबाजी कई बार अहितकर भी सिद्ध होती है। चान्द्रायण व्रत के साथ-साथ किया गया गायत्री अनुष्ठान सोने में सुगन्ध का काम करता है।


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