निर्विकल्प समाधि की साधना में जब सफलता न मिली तो महर्षि उद्दालक ने सोचा- असफल होकर जीना क्या? निराहार रहकर मृत्यु का वरण करना चाहिए। उन्होंने अन्न-जल त्याग कर मरण की साधना आरम्भ कर दी।
जिस वट-वृक्ष के नीचे महर्षि का अनशन व्रत चल रहा था उसके कोटर में वीरुध नामक एक बूढ़ा तोता रहता था। उसने ऋषि को सन्तप्त दृष्टि से देखा और सजल नेत्रों से कहा- वाचालता क्षमा करें तो एक बात पूछूँ? उद्दालक ने आँखें खोली और तोते से बोले-कहो क्या कहना है। वीरुध बोला-शरीर तो मरणधर्मा है ही उसकी मृत्यु-योजना करने में क्या पुरुषार्थ हुआ? मृत्यु को अमरता में बदलने के लिए ऐसा ही दृढ़ निश्चय किया जाये और इतना ही त्याग किया जाये तो क्या अमृत की प्राप्ति न होगी?
उद्दालक देर तक सोचते रहे। शुक की वाणी उनके अन्तस्तल तक प्रवेश करती गई। अनशन त्यागकर ऋषि ने अमृत की प्राप्ति के लिए प्रबल पुरुषार्थ आरम्भ किया तो निर्विकल्प समाधि भी उनके सामने आ उपस्थित हुई।