कर्म का ब्रह्मार्पण

January 1964

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केनोपनिषद् में एक उपाख्यान है। उसमें बताया गया है कि जल, वायु, अग्नि आदि देवता अपने-अपने बल का बड़ा अभिमान करते थे। एक दिन इन्द्र सभा में सभी देवता अपनी शक्ति को बड़ा बताते हुए शेखी बघार रहे थे। इतने में ही एक देवी प्रकट हुई और उसने एक तिनका रखकर प्रत्येक देवता से उसे नष्ट करने के लिए कहा। बड़े-बड़े पहाड़ों को उड़ा देने वाले, प्रलयंकारी तूफान पैदा करने वाले पवन ने बड़े दर्प और उपेक्षा के साथ उस तिनके को उड़ाना चाहा जैसे वह उसके लिए सामान्य चीज हो। उसने धीरे-धीरे पूरी शक्ति लगा दी किन्तु तिनका टस से मस नहीं हुआ। अग्नि जो समस्त ब्रह्माण्ड को भस्म करने का गर्व करता था वह उस छोटे से तिनके को जला न सका। वरुण उसे बहा नहीं सका। इस तरह उस तिनके को नष्ट करने में सभी देवता असफल रहे। इतने में वह देवी अन्तर्ध्यान हो गई। सभी देवता बड़े असमंजस में थे। इन्द्र ने वस्तु-स्थिति के मर्म को समझते हुए कहा—”देवताओं ! तुम अपने कार्यों और बल का व्यर्थ ही अभिमान करते हो। यह बल तुम्हारा नहीं वरन् उस देवी का ही है। ब्रह्म ही उस देवी के रूप में आपकी परीक्षा लेने आये थे। संसार में जो कुछ भी हो रहा है उस ब्रह्म की प्रेरणा से ही हो रहा है। हम सब तो केवल माध्यम मात्र हैं।” इन्द्र की बात सुनकर देवताओं को अपनी-अपनी असलियत का पता चला।

मनुष्य की शक्ति सत्ता और सामर्थ्य सीमित है। वह विश्व-ब्रह्माण्ड की एक सामान्य इकाई है। मनुष्य जो सोचता है उसके विपरीत भी परिणाम मिल सकते हैं। जो कुछ मनुष्य करता है उसका अच्छा या बुरा परिणाम क्या-क्या होगा इसका सही-सही निर्णय वह नहीं कर पाता। विश्व नियम के अंतर्गत ही मनुष्य के जीवन का संचालन और नियमन होता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निष्काम कर्मयोग, कर्म फल में अनासक्ति का उपदेश देते हुए विराट स्वरूप का दर्शन कराते हुए बताया है कि—समस्त संसार के कर्मों का कारण विराट् स्वरूप परमात्मा ही है, तू नहीं।” आगे अर्जुन को केवल एक माध्यम, यन्त्र रूप में रह कर काम करने की शिक्षा दी है।

संसार के सभी धर्मों ने कर्मफल और कर्म के अभिमान के त्याग की शिक्षा दी है। अपने कर्म और कर्मफल ईश्वर को समर्पण करने, उस पर छोड़ने का आदेश दिया है।

उपनिषद् के ऋषि ने कहा है—

“यद्यत् कर्म प्रकुर्वीत तद् ब्रह्माँणि समर्पयेत।”

“जो जो कर्म करें वह सब ब्रह्म को समर्पित कर दें।”

कर्मफल को और अपने कर्म को ईश्वरीय सत्ता पर छोड़ देना जीवन का एक बहुत बड़ा समाधान है। अपने कर्म और उसके अच्छे, बुरे, अनुकूल, प्रतिकूल परिणामों का बोझा उठाये रखने वाला आदमी चैन, सुख, शान्ति, सन्तोष अनुभव नहीं कर सकता। उसकी स्थिति समुद्री लहर में पड़े उस दुर्बल मनुष्य जैसी हो जाती है जो कभी इधर कभी उधर थपेड़े खाता रहता है और हाँफता रहता है। कर्म और कर्मफल का ईश्वर को समर्पण कर देने पर मनुष्य एक बहुत बड़े बोझ से मुक्त हो जाता है।

डेल कार्नेगी ने अपना एक संस्मरण लिखा है कि “हेनरी फोर्ड के पास मैंने जाकर पूछा कि इतना कार्य-भार होते हुए भी आप स्वस्थ कैसे रहते हैं?” इस पर उन्होंने कहा, “मैं ईश्वर को अपने कार्यों का प्रबन्धक, स्वामी मानता हूँ और अपने आपको काम करने वाला श्रमिक। ईश्वर को अपने कार्यों का प्रबन्धक और स्वामी मानने से फिर मुझे कोई चिन्ता नहीं रहती और इसी निश्चिन्तता से मैं अधिक स्वस्थ और सन्तुष्ट रहता हूँ।”

कर्म और कर्मफल में आसक्ति रहने से मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों से गुजरना पड़ता है और इसी के अनुसार आशा-निराशा का भी सामना करना पड़ता है और इससे मनुष्य की शक्ति यों का काफी क्षय होता है। अपने कर्म और कर्मफल को ईश्वर पर छोड़ देने से निराशा, चिन्ता, असन्तोष का कोई स्थान नहीं रह जाता, मनुष्य का आशावाद ही एकमेव अजर-अमर रहता है । तत्ववेत्ता अरस्तू ने लिखा है—”अपने कर्मों और उसके फल को ईश्वर पर छोड़ देने से आशावाद अजर-अमर बनता है। ईश्वर सभी तरह आशावाद का केन्द्र है। आशावाद और ईश्वरवाद एक ही है।” ईश्वर का अवलम्बन लेने पर, अपने कर्म और कर्मफल का समर्पण ईश्वर को कर देने से सफलता, असफलता मनुष्य को प्रभावित नहीं करती। अजर-अमर आशावाद के सहारे वह दोनों में सन्तुलित रहकर कर्म पथ पर अग्रसर होता रहता है।

स्वार्थ में ही नहीं वरन् परोपकार, रचनात्मक भले कामों में लगने पर भी यदि मनुष्य इनमें कर्तापन का अभिमान और फलासक्ति से ग्रस्त रहता है तो वे भी मनुष्य के बन्धन का कारण बन जायेंगे और बन्धन ही अशान्ति, क्लेश, असन्तोष का कारण बनता है। अच्छे काम करते हुए प्रतिकूल परिणाम, असफलता आदि मिलने पर ऐसा व्यक्ति पतित हो सकता है। अपने नैतिक बल को खोकर पुनः अनैतिक हो सकता है। फलासक्ति के कारण मनुष्य सुधार पथ पर बहुत दूर आगे बढ़कर भी फिर से लौट सकता है। ऐसी स्थिति में कोई विशेष सफलता, महानता विकास की आशा नहीं की जा सकती। जिनकी बड़ी-बड़ी आशायें, आकाँक्षायें थीं, कुछ अच्छे कार्य कर गुजरने की अभिलाषायें थीं, उन्होंने कार्य की प्रारम्भिक कठोरता या असफलताओं से निराश होकर सब कुछ छोड़ दिया। अतः फलासक्ति , कर्तापन का अभिमान एक बहुत बड़ी फिसलन है, जिससे गिरते चले जाते हैं।

प्रत्येक मनुष्य का आत्म-तत्व अनन्त विश्व-चेतना से जुड़ा हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन सार्वभौमिक विश्व नियम की प्रेरणा से चलता है। आत्मचेतना और विश्वचेतना की एकता, आत्मा और परमात्मा की एकात्मकता होने पर सामान्य व्यक्ति भी असाधारण अनन्त शक्तियों का केन्द्र बन जाता है। पानी की बूँद अपने आप में कुछ नहीं, यदि वह अपने रूप का अपनी संकीर्ण दुनिया का अस्तित्व ध्यान में रखकर विच्युत रहेगी तो उसकी कोई शक्ति सामर्थ्य नहीं रहेगी। किसी भी क्षण उसके अस्तित्व का ही लोप हो जायेगा। किन्तु यही बूँद विशाल महासागर के साथ एक रूप हो कर उतनी ही शक्ति सामर्थ्य सम्पन्न बन जायगी। मनुष्य की भी विश्व विराट् में यही स्थिति है। जब वह अपने अभिमान और कर्तापन, कर्मफल के अस्तित्व को लेकर चलेगा तो उसकी शक्ति सीमित क्षुद्र, संकीर्ण, नाशवान होगी। उसकी शक्ति सामर्थ्य बाह्य सफलता, असफलताओं से टकराकर ही नष्ट हो जायगी। किन्तु यही मानवीय शक्ति सामर्थ्य का सम्बन्ध विश्व विराट् के साथ हो जाय तो वह असीम और महान् बन जायगी। इसका मार्ग है- अपने समस्त जीवन, कर्म, कर्तापन, कर्म फलों का समर्पण उस विश्वात्मा को परब्रह्म परमात्मा को किया जाय। यही सच्ची पूजा, उपासना, अर्चना है। “यद्यत् कर्म प्रकुर्वीत तद् ब्रह्माँणि समर्पयेत्।” हम जो कुछ भी करें, हमारा जो कुछ भी है, सब कुछ परमात्मा को, परम प्रभु को समर्पण करें। विश्व भुवन की समस्त चेष्टाओं के प्रेरक परम प्रभु को अपनी सकल चेष्टाओं का समर्पण करके स्वयं को मुक्त बन्धनरहित, आनन्दमय बना सकेंगे तभी जीवन की चिरसाध पूरी होगी?


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