गृहस्थ की दुर्दशा का महत्वपूर्ण कारण

January 1964

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बच्चों के बढ़ने के साथ ही माँ बाप के हृदय में उनका विवाह करके घर बसाने की, सुखी समृद्ध बनाने की बड़ी-बड़ी कल्पनायें उठने लगती हैं। माँ सोचती है “ नयी बहू का मुँह देखकर कब सौभाग्यवान बनूँगी।” उधर पिता भी सोचते हैं “नयी बहू आकर घर को स्वर्ग बनायेगी।” घर का प्रत्येक सदस्य नयी बहू के लिए किसी न किसी सुखद कल्पना में अवश्य खोया रहता है। स्वयं लड़के-लड़कियाँ भी संसार के अनुभवों से शून्य अपनी मधुर कल्पनाओं में कुछ कम खोये-खोये नहीं रहते। कई तो इस सम्बन्ध में अनजान भी रहते हैं। माँ-बाप की लालसा तीव्र हुई कि झट से सम्बन्ध तय हो जाते हैं। बाज-बजते हैं। उत्सव मनाया जाता है। शहनाइयाँ गूँजती हैं और धूमधाम के साथ विवाह आयोजन सम्पन्न होते हैं। नयी बहू घर में आती है।

समय के बीतने के साथ ही नयी बहू का आकर्षण भी कम होने लगता है। कुछ ही समय बीतता है कि कई बातें ऐसी पैदा हो जाती हैं जिनसे सास-बहू में खटकने लगती है। परस्पर ताने, फटकारें, दुर्वचनों का व्यवहार होने लगता है। घर की बेटी भी अपनी माँ का पक्ष लेकर भावज पर बरसती है।

रात दिन घर में होने वाली चख-चख जो पहले नहीं होती थी, उसका कारण बहू को समझकर कुल-पति श्वसुर भी बहू और उसके कुल की बुराइयाँ बखानने लगते हैं। स्त्री और बेटी द्वारा कान भर देने पर तो उनकी स्थिति और भी असन्तुलित हो जाती है!

गृह कलह, माँ बाप द्वारा आरोप-प्रत्यारोप, उधर बहू द्वारा अपने कष्टों की शिकायत सुन कर युवक भी परेशान हो जाता है। वह दोनों ही पक्षों से अनन्यता के नाते कुछ कह नहीं सकता। समय के बीतने के साथ ही रात दिन की अशान्ति से वह और भी अधिक असन्तुलित हो जाता है। माँ-बाप अथवा बहू पर अपनी अशान्ति प्रकट करता है।

उधर बहू भी जो अपने माता-पिता, भाई, बहन, घर वालों से बिछुड़ कर पति गृह में सुख के स्वर्णिम स्वप्न लेकर आई थी वह यह सब देखकर घबड़ा जाती है। पति- गृह में चारों ओर से बरसने वाली गालियाँ, तिरस्कार, आरोप, प्रत्यारोप, आलोचनायें आदि उसके धैर्य को विचलित कर देते है। संसार की कठोरता से अनजान, अज्ञ, कोमल, भावनाशील युवती इन परिस्थितियों में अधिक दिन सन्तुलित नहीं रह पाती और एक ना एक दिन उसका मानस उद्वेलित हो उठता है। अपने स्वतंत्र, मौलिक अधिकार, माँ-बाप के गौरव, स्वाभिमान पर चोट पड़ने से उसकी कोमल भावनायें कठोर और विद्रोही बन जाती हैं और फिर उसका उद्वेलित मानस गृह कलह की आग में घी का काम देता है। कई तेज मिज़ाज बहुएं तो बड़ी लड़ाका और रौद्र रूप बन जाती हैं। सारे घर की शान्ति काफूर हो जाती है। जो बहुएं बहुत ही संकोची और सुशीला होती हैं वे चिन्ता, क्लेश, अवसाद मानसिक घुटन में घुल-घुल कर अपना जीवन नष्ट कर लेती हैं। कई विक्षिप्त हो जाती हैं तो कई अन्य माध्यमों से अपने जीवन की इतिश्री तक कर लेती हैं। इन सभी परिस्थितियों में हमारे गृहस्थ जीवन की दुर्दशा, पतन, विनाश निश्चित है। अनेकों गृहस्थियाँ इसी कारणवश उजड़ती नष्ट भ्रष्ट होती देखी जा सकती हैं।

गृहस्थ जीवन की इस दुर्दशा से अधिकाँश परिवार ग्रस्त हैं। परस्पर कलह, लड़ाई-झगड़े, मनमुटाव, परस्पर आरोप-प्रत्यारोप, दोषारोपण, मतभेद आदि की विष-बेल ने परिवार के सभी सदस्यों को जकड़ लिया है। जिससे हमारे पारिवारिक जीवन की सुख समृद्धि उन्नति, प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। गृहस्थ जीवन की इस दुर्दशा ने व्यक्ति की शक्तियों को नष्ट कर उसे पंगु बना दिया है। जीवित होते हुए भी वह गृह कलह के विष-दंश से पीड़ित होकर निर्जीव-सा बनता जा रहा है। निराशा, उदासी, मानसिक घुटन में घुल-घुल कर उसका जीवन सत्व नष्ट होता जा रहा है।

व्यक्ति से ही समाज और समाज से ही राष्ट्र बनते हैं। ऐसा व्यक्ति समाज और राष्ट्र के निर्माण में क्या योग दे सकता है? गृहस्थ जीवन, जिसके ऊपर व्यक्ति समाज और राष्ट्र की स्थिति निर्भर है उसकी इस दुर्दशा का समाधान किए बिना सुख शान्ति उत्पत्ति विकास की कल्पना करना एक विडम्बना होगी। जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन की दुर्घटना ग्रस्त गाड़ी के मलबे में दबा हुआ सिसक रहा है, वेदना से छटपटा रहा है वह समाज अथवा राष्ट्र के कल्याण के लिए सोच ही क्या सकता है? और क्या कर सकता है?

गृहस्थ जीवन की इस दुर्दशा के लिए प्रायः परिवार के सभी सदस्य किसी न किसी रूप में जिम्मेदार होते हैं। कोई कम कोई अधिक। बहू के घर में आ जाने पर दरअसल सास के व्यक्तित्व और अधिकारों में कुछ कमी अवश्य हो जाती है। पहले अकेली सास ही घर की मालकिन कर्ता-धर्ता थी अब उसमें बहू का व्यक्तित्व भी हिस्सेदार बन गया। घर के सदस्यों का, खासकर लड़का जिसका स्नेह केन्द्र माँ ही थी अब उसका ध्यान पत्नी की ओर भी बटने लग जाता है। घर के अन्य लोगों का भी आकर्षण केन्द्र नयी बहू बन जाती है। इस तरह अपने अधिकार और व्यक्तित्व का क्षेत्र घट जाने का कारण बहू को समझ कर सास उसे विभिन्न तौर तरीकों से तंग करने लगती है। बात-बात में जबरन अपना अधिकार जताने लगती है। ताने, फटकार, अपमान करके अपना असन्तोष कई बहानों से प्रकट करने लगती है। सब जगह बहू की बुराई शिकायत करती है। उधर माँ-बाप के घर में लाड़ प्यार स्वतन्त्रता का मधुर जीवन बिता कर आयी हुई बहू को यह सब असह्य होने लगता है और परस्पर संघर्ष की जड़ें और गहरी होने लगती हैं।

कई घरों में जहाँ बहू को बच्चे नहीं होते तो उसे तिरस्कार अपमान का भागी बनना पड़ता है। उसे बाँझ कहकर अपमानित किया जाता है। गालियाँ दी जाती है। इतना ही नहीं लड़के का दूसरा विवाह करने की तैयारी तक भी की जाती है। ऐसी स्थिति में उस बहू का क्या हाल होगा जो बेचारी अपने माँ बाप, भाई बहन, को छोड़ कर पति गृह में आई है? बहुएं भी कोई दूध की धुली नहीं होती। बहुओं में बढ़ता हुआ स्वच्छन्दतावाद, अनुशासनहीनता, मनमर्जी, बड़ों के प्रति आदर भाव में कमी लापरवाही, नारी सुलभ लज्जा शील का त्याग जो भारतीय परिवार के प्रतिकूल हैं, गृह कलह के लिए बहुत कुछ जिम्मेदार हैं। आज पारिवारिक जीवन की विशृंखलता और टूटने का एक कारण यह भी है। जो बहू अपनी सहन-शीलता, सेवा त्याग से सारे परिवार को स्नेह सूत्रों में बाँधे रहती थी वह परिवार का तनिक भी बोझ उठाने को तैयार नहीं होती, आने के साथ ही पति को बहका कर अपना न्यारा घर बसाने की योजना बनाती है।

पारिवारिक जीवन की गाड़ी सदस्यों के त्याग, प्रेम, स्नेह, उदारता, सेवा, सहिष्णुता और परस्पर आदर भाव पर चलती है। परिवार सहअस्तित्व, सामूहिक जीवन, सेवा और सहिष्णुता की पाठशाला मानी गई है। किन्तु परस्पर के सम्बन्ध स्वार्थपूर्ण-आपापूती, संकीर्णता, असहिष्णुता से भर जाते हैं तो परिवार नरक की साक्षात् अभिव्यक्ति के रूप में परिणित हो जाते हैं।

देखा जाता है बहू-बेटे के योग्य और वयस्क हो जाने पर भी बहुत से घरों में उन्हें परतन्त्र की तरह रखी जाता है, अभिभावक गण जिन्हें गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ युवा वर्गों को सौंपकर उच्च आदर्शों के लिए अपने आपको लगाना चाहिए वे अन्त तक भी घर के वातावरण में स्थित रहते हैं। युवा बहू बेटों को परतन्त्रता का जीवन अच्छा नहीं लगता। इससे पुरानी पीढ़ी में परस्पर मनोमालिन्य, अनादर के भाव पैदा हो जाते हैं।

पारिवारिक जीवन की दुर्दशा का मुख्य कारण है व्यावहारिक जीवन की शिक्षा का अभाव। लड़के और लड़कियों को अनुभवी वृद्ध गुरुजनों के संपर्क में रहकर व्यावहारिक जीवन में जीने की जो शिक्षा मिलनी चाहिए उसका आज कल सर्वथा अभाव है। विवाह से पहले कन्या को यह शिक्षा नहीं मिलती कि उसे पति-गृह में जाकर कैसे जीवनयापन करना है? उसका कर्त्तव्य उत्तरदायित्व क्या है? उसे किन-किन सद्गुणों के द्वारा परिवार की गाड़ी को चलना है? यही बात लड़कों के सम्बन्ध में भी है। पारिवारिक जीवन की शिक्षा का अभाव, गृहस्थ जीवन की दुर्दशा का मूल कारण है।


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