बाह्य जीवन में आदर्शवाद का प्रयोग

January 1964

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औषधि कैसी ही उत्तम क्यों न हो उसका समुचित लाभ तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि रोगी पथ्य, परिचर्या एवं आहार-विहार का समुचित ध्यान न रखे। साधना विधि का महत्व औषधि के समान माना जाये तो जीवन को सुव्यवस्थित एवं सन्तुलित बनाये रखने की सावधानी को पथ्य कहा जा सकता है। पथ्य से रहने वाला, आहार-विहार की सावधानी बरतने वाला बिना औषधि के भी प्राकृतिक प्रयत्नों के आधार पर रोगमुक्त हो सकता है। किन्तु बहुमूल्य औषधि लेते रहने पर भी यदि कुपथ्य से रहा जाय तो रोग घटेगा नहीं, औषधि का लाभ निष्फल चला जायगा और कुपथ्य के कारण रोग उलटा बढ़ता चलेगा। इसलिए चिकित्साशास्त्री सदा से यही कहते आये हैं कि पथ्य मुख्य और औषधि गौण है। कोई चमत्कारी औषधि तत्काल कुछ लाभ दिखा भी दे तो भी कुछ समय बाद वह असर समाप्त होते ही फिर रोग घेर लेंगे। कुपथ्य पर चलने वाला स्थायी रूप से रोग मुक्ति का लाभ न ले सकेगा।

भव-रोगों की निवृत्ति के लिये अध्यात्म मार्ग का अवलम्बन लेने वालों पर भी यही नियम काम करता है। व्यावहारिक जीवन की अव्यवस्था एवं अस्त-व्यस्तता अच्छी साधनाओं को भी निष्फल बना देती है। साधना के द्वारा आत्मबल प्राप्त करते हुए जीवन-लक्ष प्राप्त करने की स्थिति तक पहुँच सकना केवल उन्हीं के लिए सम्भव हो सकता है जिन्होंने उसकी प्रारम्भिक भूमिका के रूप में बाह्य जीवन को संतुलित बनाने में आवश्यक सफलता प्राप्त कर ली है। शरीर और मन को सुसंतुलित बना लेना, सूक्ष्म आध्यात्मिक शक्ति यों को जागृत करके अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त करने की अपेक्षा कहीं सरल है। सरल कार्य में सफलता प्राप्त करने के उपरान्त ही कठिन कार्यों का बोझ उठा सकना संभव होता है। प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं की पढ़ाई बिना कालेज में प्रवेश कैसे मिलेगा? कोई जबरदस्ती घुस भी पड़े तो उसे एम.ए. की परीक्षा देते समय अपनी अनधिकार चेष्टा पर पश्चाताप करना पड़ेगा। उच्चकोटि की आध्यात्मिक कक्षाओं में क्रमिक विकास करते हुए ही आगे बढ़ा जा सकता है। ऊँची छत पर चढ़ने के लिए नीचे की सीढ़ी पर पैर रखते हुए ऊपर चढ़ना होता है। कोई उतावला व्यक्ति जमीन से उछल कर तुर्त-फुर्त छत पर पहुँचने का प्रयत्न करेगा तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी। रक्त में पहुँचाने के लिये इंजेक्शन लगाने वाले डॉक्टर की सुई पहले चमड़ी और माँस में छेद करके तब रक्त स्तर तक पहुँचती है। कोई व्यक्ति यह चाहे कि रक्त माँस को छुए बिना सीधी रक्त में सुई पहुँचा दी जाय तो डॉक्टर के लिए उस माँग को पूरा कर सकना कठिन होगा। शरीर और मन का क्षेत्र जब तक अध्यात्म-साधन के अनुरूप सुधारा न जाय तब तक ईश्वर-दर्शन, आत्म-साक्षात्कार, समाधि, कुण्डलिनी जागरण यदि ऋद्धि-सिद्धियों की बात सोचना असंगत ही माना जायगा।

पातंजलि योग के आठ अंगों में यम, नियम, आसन, प्राणायाम यह पूर्वार्द्ध शरीर और मन का शोधन करने के लिए है। तत्पश्चात प्रत्याहार धारणा, ध्यान, समाधि का उत्तरार्ध योग-साधन सम्भव होता है। हठयोग में भी नेति, धोति, वस्ति, न्यौलि, कपालभाति के षट्कर्म बाह्य-जीवन की परिशुद्धि के लिये आवश्यक माने गये हैं, उसके उपरान्त ही षट्चक्र वेधन और कुण्डलिनी जागरण का प्रकरण खुलता है। चार आश्रमों की व्यवस्था इसी दृष्टि से बनी है ब्रह्मचर्य में रहते हुए गृहस्थ का भार उठाने की तैयारी , गृहस्थ में रहकर वानप्रस्थ की क्षमता एवं वानप्रस्थ द्वारा संन्यास का अभ्यास करने का प्रयत्न करते हुए ही मनुष्य आगे बढ़ता है और क्रमशः पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचता है। कुछ अपवादों की बात अलग है, पर इस व्यवस्था को बिगाड़ कर जो छलाँग मारते हैं वह घाटे में ही रहते हैं। युवा संन्यासियों की अन्तः स्थिति कितनी घुटन भरी होती है उसका अनुभव उनके संपर्क में रहते हुए हमें भली प्रकार प्राप्त है। उस घुटन से बचने के लिए कई युवा साधुओं को हमने गृहस्थ धर्म अपनाने और क्रमिक विकास करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। व्यतिक्रम करने वाले अति उत्साही व्यक्ति आत्मिक प्रगति करना तो दूर उलटे अनाचार के चंगुल में फँसते देखे गए हैं।

जिस प्रकार उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रगति के साथ-साथ अलौकिक ऋद्धि-सिद्धियों की प्राप्ति होती है उसी प्रकार लौकिक जीवन में भी यदि अध्यात्म आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने की साधना की जाय तो उससे भी अनेक सुख सुविधाओं की प्राप्ति सम्भव हो सकती है। आरम्भ हमें इन्हीं साधनाओं से करना चाहिए। सामाजिक, शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में भी अध्यात्म का प्रयोग उसी प्रकार हो सकता है जैसे धर्म एवं उपासना के क्षेत्र में उस प्रयोग की प्रथा आजकल प्रचलित है। प्रकाश जिस चीज पर भी पड़ेगा वही चमकने लगेगी। आग के संपर्क में जो भी चीज आवेगी वही गरम हो जायगी। बर्फ का स्पर्श जिससे भी कराया जायगा वही ठण्डा होगा। रंग से जो भी चीज रंगी जायगी उसका वर्ण उसी प्रकार का दीखने लगेगा। ठीक उसी प्रकार अध्यात्म का स्पर्श जीवन के जिस पहलू से भी करेंगे वहीं आनन्द, सौंदर्य एवं प्रगति का प्रत्यक्ष दर्शन होने लगेगा। इत्र जहाँ भी लगा देंगे वहीं से सुगन्ध आने लगेगी। आदर्शवाद का स्पर्श करके कोई भी पदार्थ अपने निखरे हुए स्वरूप में ही प्रकट होता है।

शरीर के आहार-विहार, रहन-सहन, खान-पान, शयन, जागरण, श्रम, संयम, ब्रह्मचर्य, आदि का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाय, प्रकृति की मर्यादाओं का उल्लंघन न किया जाय, तो निरोगिता एवं दीर्घजीवन की सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो सकती हैं। जबकि सृष्टि का कोई भी प्राणी रोगों की पीड़ा सहते हुए कष्टमय जीवनयापन नहीं करता तो वह अभिशाप मनुष्य को ही क्यों भोगना चाहिए? अन्धकार कोई वस्तु नहीं, प्रकाश के अभाव का नाम ही अन्धकार है, इसी प्रकार इस संसार में रोग शोक जैसा कोई तत्व नहीं। हमारा असंयम ही फलित होकर रोग का रूप धारण करता है। जब बुद्धिहीन अन्य प्राणी अपना पूर्ण आयुष्य प्राप्त करते हैं, निर्धारित अवधि तक जीते हैं, तो मनुष्य को ही अकाल मृत्यु का ग्रास क्यों होना चाहिये? किसी आकस्मिक दुर्घटना या प्रारब्ध भोग की बात दूसरी है पर साधारणतया हम प्रकृति की मर्यादाओं का उल्लंघन करके ही, स्वेच्छाचारिता एवं भ्रष्ट गतिविधियों को अपना कर ही अपने आपको भीतर ही भीतर खोखला बनाते रहते हैं और प्रतिकूलता का जरा-सी आघात लगने पर औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। अकालमृत्यु हमें धर दबोचती है।

शरीर को भगवान का मन्दिर समझकर आत्मसंयम और नियमितता का यदि दृढ़तापूर्वक पालन करने के लिए कटिबद्ध हो जायं तो समझना चाहिए कि बीमारियों से छुटकारा मिल गया। मानना चाहिए कि अकालमृत्यु का खतरा टल गया। प्राचीन काल में स्वस्थ, सुडौल एवं परिपुष्ट शरीर लेकर हमारे पूर्वज दीर्घ जीवन का आनन्द भोगते थे इसका कारण किन्हीं पौष्टिक खाद्य पदार्थ का बाहुल्य नहीं वरन् संयम को ही समझना चाहिए। आज खाद्य पदार्थों के कारण नहीं असंयम के कारण लोगों के स्वास्थ्य चौपट पड़े हैं। इन्हें सुधारना निश्व्रत रूप से संभव है। अध्यात्म का दृष्टिकोण अपनाकर ही हम अपना शरीर सुन्दर, स्वस्थ, सुडौल, निरोग एवं चिरस्थायी बना सकते हैं। यदि रोगों ने घेर रखा होगा तो भी सुधरा हुआ दृष्टि-कोण अपनाकर उससे छुटकारा पाया जा सकता है। यह विभूति क्या कुछ कम आनन्ददायक होगी?

लोगों की मनोभूमियाँ आज कुचली-मसली पड़ी हैं। आधे से अधिक व्यक्ति ऐसे मिलेंगे जिन्हें अर्द्ध-विक्षिप्त कहा जा सकता है। सोचने का सही तरीका जिन्हें मालूम हो, विचारों पर जो नियन्त्रण कर सकें, आवेशों का परिष्कार करते हुए जो औचित्य एवं दूरदर्शिता के आधार पर ही दैनिक जीवन की समस्याओं को सुलझाया करें ऐसे व्यक्ति कितने हैं? तनिक-सा प्रलोभन सामने आते ही आदर्शों से विचलित हो जाने वाले, जरा-सा भय सामने आते ही कर्त्तव्यपथ को छोड़कर भाग खड़े होने वाले, पल-पल में मति बदलने वाले, अस्थिर चित्त लोगों का ही सर्वत्र बाहुल्य दीखता है। जीवन का कोई लक्ष्य बनाकर उस पर अविचल भाव से दृढ़ रहने वाले मनुष्य ढूंढ़े नहीं मिलते। जिन्हें अपना गौरव, धर्म और कर्त्तव्य प्राणों से प्यारा हो ऐसे लोग कहा है? नगण्य-सी प्रतिकूलताएँ, कठिनाइयाँ, असफलताएं सामने आते ही क्षोभ, आवेश, निराशा, शोक में उद्विग्न होकर मानसिक सन्तुलन खो बैठने वाले व्यक्ति यों की संख्या दिन-दिन बढ़ रही है। स्वार्थी, ईर्ष्यालु, लालची, कामुक, निष्ठुर, असहिष्णु, आलसी, प्रमादी, व्यसनी एवं अस्त-व्यस्त प्रकृति के लोग न सोचने योग्य सोचते हुए और न करने योग्य करते हुए सर्वत्र फैले पड़े दीखते हैं।

सिर दर्द, जुकाम, अनिद्रा, रक्त चाप,हृदय की धड़कन, स्मरण-शक्ति की कमी, सहनशीलता का अभाव अदूरदर्शिता, जल्दबाजी, अधीरता, चंचलता जैसे रोगों से अगणित व्यक्ति रुग्ण हो रहे हैं। चिन्ता, भय, निराशा और विक्षोभ की चिन्ता में जीते जी जलते रहने वाले लोग मरघटों में नहीं घरों में अपने अस्तित्व का अन्त करते देखे जा सकते हैं। कचहरी, जेल, अस्पताल और पागलखानों में यही वर्ग भरा पड़ा रहता है। जड़ता, मूढ़ता, दुराग्रह, दीनता, आशंका, अविश्वास, अन्धविश्वास जैसे मनोविकारों में ग्रस्त व्यक्ति अपने को बर्बादी की ओर निरन्तर धकेलते ले जाते हैं।

मानसिक रुग्णता एवं दुर्बलता बाहर से दिखाई नहीं पड़ती पर यदि उसका विधिवत् परीक्षण किया जाय तो वे शारीरिक रोगों से भी अधिक मानसिक रोग फैले हुए हैं और बीमारियों के कारण जितनी क्षति मनुष्य को उठानी पड़ती है उससे अनेक गुनी इन मनोविकारों के कारण उठानी पड़ती है। शारीरिक रोगों से घिरे रहकर भी मनस्वी व्यक्ति जीवन लाभ लेता रह सकता है पर जिसका मानसिक स्तर नष्ट हो गया, वह शरीर से निरोग रहने पर भी पशु से अधिक अच्छी जिन्दगी व्यतीत न कर सकेगा। अन्य बातों में पशुओं से गया गुजरा मानव प्राणी अपनी मानसिक विशेषताओं के कारण ही उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचा है। यदि उस महानता को वह खो बैठे और खाने-पहनने से अधिक आगे उसकी समझ लड़खड़ाने लगे तो यही कहा जायगा कि उसने मनुष्य जीवन जैसे सौभाग्य का कोई लाभ प्राप्त नहीं किया।

मन एक अत्यन्त सामर्थ्यवान उपकरण है। शरीर को विधिवत् काम में लाने की तरह मन का ठीक उपयोग भी हमें आना चाहिए। जिसे मोटर चलाना नहीं आता ऐसा अनाड़ी व्यक्ति यदि ड्राइवर बन बैठे तो वह दुर्घटनाएँ ही करेगा। हमारे जीवन आज पग-पग पर दुर्घटना ग्रस्त हो रहे हैं। जिस मानव-जीवन को आनन्द और सफलताओं के लिए ही परमात्मा ने बनाया है उसमें पग-पग पर असन्तोष और विक्षोभ ही अनुभव हों तो समझना चाहिए हमें जीवन जीना नहीं आता। शरीर को ठीक तरह काम में लेने की विधि जो जानता होगा उसे बीमार क्यों पड़ना पड़ेगा? जिसे मन का स्वरूप, उसके संचालन का विज्ञान एवं विधान मालूम है उसे मनोविकारों से ग्रस्त होकर रोते कलपते हुए, पतन का एवं दुर्दशाग्रस्त जीवन क्यों जीना पड़ेगा?

अपने दोष दूसरों पर थोपने से कुछ काम न चलेगा। हमारी शारीरिक एवं मानसिक दुर्दशाओं के लिए दूसरे उत्तरदायी नहीं, वरन् हम स्वयं ही है। दूसरे व्यक्ति यों, परिस्थितियों एवं प्रारब्ध योगों का भी कुछ प्रभाव होता है पर तीन चौथाई जीवन तो हमारे आज के दृष्टिकोण एवं कर्त्तव्य का ही प्रतिफल होता है। अपने को सुधारने का काम हाथ में लेकर हम अपनी शारीरिक और मानसिक परेशानियों को आसानी से हल कर सकते हैं।

अध्यात्म के आदर्शों को अपनाकर यदि हम अपना शरीर और मन निरोग बना लेते हैं और उन दोनों यंत्रों में छिपी हुई शक्ति यों का सदुपयोग रचनात्मक दिशा में करने लगते हैं, तो ऐतिहासिक महापुरुषों की तरह अभीष्ट लक्ष्य की ओर निरन्तर प्रगति करते हुए जीवन का सच्चा लाभ प्राप्त कर सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं हो सकता। इन लौकिक विभूतियों को व्यवहारिक जीवन में अध्यात्म का समावेश करते हुए यदि हम प्राप्त कर सकें तो यह एक बड़ी बात होगी। अध्यात्म के प्रति हमारी श्रद्धा बढ़ेगी और इस सफलता से प्राप्त साहस के बल पर उच्च-कोटि की आध्यात्मिक सफलताएँ प्राप्त कर सकना भी सम्भव बन सकेगा।


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