भारतवर्ष के प्राचीन मनीषी चरित्र की महिमा को भली प्रकार समझते थे और इसलिये उन्होंने धन और बल के बजाय अधिकाँश में सदाचार, तप, त्याग, परोपकार आदि की ही महिमा गाई है, क्योंकि ये ही सब चरित्र के लक्षण हैं। इसीलिये यहाँ के राजा-महाराजा और धन, कुबेर लोग कुटियों में रहने वाले मुनियों के सामने नतमस्तक होते थे और किसी विषय में उनकी आज्ञा उल्लंघन करने का साहस नहीं करते थे।
यद्यपि चरित्र की व्याख्या बहुत विस्तृत है और सत्य, न्याय, क्षमा आदि अनेकों गुणों का उसमें समावेश होता है, पर ब्रह्मचर्य, पर-स्त्री का सर्वथा त्याग, नारी मात्र को पवित्र दृष्टि से देखने को उसका विशेष अंग माना गया है। इसका कारण यही है कि जिस व्यक्ति में इस प्रकार का दोष पाया जायगा, जो इन्द्रियलोलुप होगा, उसमें से अन्य गुणों का भी लोप हो जायगा। कामी और कुत्तों की तरह पर-स्त्रियों के पीछे दौड़ने वाले मनुष्य में आत्म-सम्मान, आत्म-शक्ति, आत्म-तेज आदि का रहना असम्भव है और इनके बिना त्याग, उदारता, परोपकार की भी सम्भावना नहीं की जा सकती। इतना ही क्यों कामासक्त पुरुषों का पूर्ण रूप से विश्वास भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसे लोगों को कोई भी सुन्दरी तथा हाव-भाव में निपुण रमणी अपने फन्दे में फँसाकर कर्तव्यच्युत कर सकती है। इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रखकर प्राचीन काल से ही बड़े-बड़े शासक और राष्ट्रों के सूत्रधार अपने गुप्तचर विभाग में सुन्दर और भ्रष्ट-चरित्र नारियों को भी सम्मिलित करते रहे हैं ताकि उनके द्वारा विपक्षी राष्ट्र के कामासक्त अधिकारियों को जाल में फँसाकर वहाँ का भेद हस्तगत किया जा सके। इसका आशय यही है कि कामुक व्यक्तियों का चरित्र निर्बल पड़ जाता है और वे किसी उच्च कार्य के योग्य नहीं रहते।
कामुकता और अश्लीलता का अर्थ इतना ही नहीं है कि मनुष्य प्रत्यक्ष रूप से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करे। मन के विचारों और भावना का भी महत्व कम नहीं है। जो लोग किसी कारण या अभाव-वश शारीरिक-सम्बन्ध से वंचित रहकर मन से विषयों का ध्यान किया करते हैं वे और भी दूषित होते हैं और गीता में ऐसे ही लोगों को ‘विमूढ़ात्मा’ कहकर पुकारा गया है और यह भी कहा गया है कि वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। कारण यही है कि विषय वासना के वेग की किसी रूप में पूर्ति कर लेने वाला तो कुछ समय के लिये शान्त हो जाता है और कुछ समय ऐसा जीवन व्यतीत करने के पश्चात् संयम का जीवन भी बिता सकता है, पर जो सदा मन से ही विषयों का चिन्तन करता रहता है और उनकी पूर्ति में असमर्थ रहता है उसकी विचारधारा दिन पर दिन भ्रष्ट और निकृष्ट होती जाती है और उसका पतन होना और भी अधिक संभव और सुगम होता है।
कामुकता के विचारों और निरन्तर उनका चिन्तन करते रहने से मनुष्य का मानसिक तथा आत्मिक बल खोखला हो जाता है। शारीरिक दृष्टि से चाहे वह बलवान और आकर्षक जान पड़े, पर नैतिकता, साहस, धैर्य आदि का सर्वथा अभाव हो जाता है। ब्रह्मचर्य और संयम के द्वारा मनुष्य के भीतर से एक प्रकार की शक्ति विद्युत या चुम्बक की-सी पैदा होती है वह इस प्रकार के निकृष्ट विचारों तथा आचार द्वारा जाती रहती है। ऐसे व्यक्ति अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ नहीं रह सकते और न किसी कठिन परिस्थिति में धैर्यपूर्वक उसका मुकाबला कर सकते हैं। चिन्ता, निराशा, आशंका, अविश्वास आदि की भावनायें सदैव उनमें उत्पन्न हुआ करती हैं।
वर्तमान समय में मनुष्यों का दृष्टिकोण बहुत बदल गया है और बहुसंख्यक साधारण मनुष्य ही नहीं अनेकों विद्वान और चतुर व्यक्ति भी ऐसी बातों को निजी या ‘प्राइवेट’ कह कर उन पर आचरण करना आवश्यक नहीं समझते। निम्न कोटि के लोग तो इसको फैशन का एक अंग समझ बैठे हैं। पुराने ढंग के लोग भी इसको मर्दानगी का चिह्न बतलाते हैं। इस प्रकार आज कल नैतिकता तथा चरित्र की लगाम बहुत कुछ ढीली हो गई है और लोगों के आचरणों में बहुत शिथिलता आ गई है। इसके फलस्वरूप जाति की जीवनी शक्ति का ह्रास हो रहा है और लोगों की आन्तरिक शक्ति तेजी से विनष्ट होती जाती है। यों ऊपर से वे चमक-दमक के कपड़े पहिन कर और पौडर, क्रीम, साबुन, तेल आदि से चिकने-चुपड़े बन कर अपना काम चलाते रहते हैं, पर जिसको मनुष्यत्व कहा जाता है, उससे वे प्रायः रिक्त हो जाते हैं।
लोगों की इस हीन मनोवृत्ति के कारण आज कल गन्दे साहित्य और अश्लीलतापूर्ण चित्रों की बाढ़-सी आ गई है। सामान्य श्रेणी के युवक प्रायः ऐसी ही कहानियाँ और उपन्यास पढ़ना पसन्द करते हैं, जिनमें यौन-विषयों की गन्दी चर्चा पाई जाती है। उनको कोई सुरुचिपूर्ण नैतिक, सामाजिक या देशभक्ति का उपन्यास दे दीजिये तो वे दस-पाँच पन्ने पढ़ कर ही उसे अलग रख देंगे, पर कामुकता की बातों से भरे उपन्यासों को ढूंढ़-ढूँढ़ कर और माँग कर भी पढ़ते हैं। इसी प्रकार कितने ही लोग बहुत ही गन्दे चित्रों की पुस्तकें भी प्रकाशित करते रहते हैं। कानून के भय से इनकी गुप्त रूप से ही छापना पड़ता है, पर बड़े-बड़े नगरों में अनेक व्यक्ति इनको खुले तौर पर बेचते देखे जाते हैं।
सिनेमा तो इस घृणित मनोवृत्ति का सबसे बड़ा पृष्ठपोषक है। सच पूछा जाय तो गन्दे साहित्य और चित्रों की जो बढ़ोतरी इन दिनों हुई है उसका मूल यह सिनेमा ही है। वर्षों से यह प्रेम (शारीरिक) के गीत गा रहा है और कामुकता को भड़काने वाले दृश्य दिखला रहा है। धीरे-धीरे इन बातों ने समाज के एक बड़े भाग के दिमाग को प्रभावित कर दिया है और आज युवक ही नहीं छह और आठ वर्ष के बच्चे सिनेमा के शृंगार-रस के गाने गाते दिखाई पड़ते हैं। बहुत थोड़े घर ऐसे हैं जो सत्यानाशी लहर के प्रभाव से बचे हैं। नहीं तो क्या जवान स्त्री-पुरुष और क्या लड़के और बूढ़े सब सिनेमा के दीवाने हो रहे हैं। यह स्थिति देश तथा समाज के कल्याण की दृष्टि से अत्यन्त घातक और अहितकर है और राष्ट्र के कर्णधारों तथा शुभाकाँक्षियों को इसके निराकरण का प्रयत्न अवश्यमेव करना कर्त्तव्य है।