इन्द्र का पुण्य घटने लगा तो उसका ऐश्वर्य भी क्षीण हो चला, इस पर वे चिन्तित होकर बृहस्पति के पास पहुँचे और पूछा-गुरु वर, ऐश्वर्य को क्षीण न होने देने का उपाय बताइए।
देवगुरु ने कहा-तुम राजर्षि प्रहलाद के पास जाओ और उनके पास ऐश्वर्य की प्राप्ति और रक्षा का उपाय सीखो। इन्द्र ने ब्राह्मण का वेष बनाया और प्रहलाद के पास पहुँचे और विनम्र जिज्ञासु की तरह पूछा-ऐश्वर्य की प्राप्ति का उपाय क्या है?
प्रहलाद ने कहा-”शीलवान व्यक्तित्व ही समस्त ऐश्वर्य का मूल है। चरित्रवान् का वैभव कभी क्षीण नहीं होता।” इन्द्र संतुष्ट हो गए। जब वे लौटने लगे तो प्रहलाद ने उचित आतिथ्य के साथ यह भी पूछा-मेरे योग्य कोई सेवा हो तो बताइए। लोलुप इन्द्र उनका शील ही माँग बैठे। प्रहलाद कुछ देर तो सोच में पड़े रहे फिर उनने उदारता को न छोड़ना ही उचित समझा और ब्राह्मण को अपना ‘शील’ दान कर दिया। जैसे ही शील दिया वैसे ही प्रहलाद के शरीर में से एक-एक करके चार तेज पुँज निकले और वे इन्द्र के शरीर में प्रवेश कर गए। प्रहलाद ने इन तेज पिण्डों से पूछा कि आप लोग कौन हैं और क्यों मेरे शरीर से निकल कर इनके शरीर में प्रवेश कर गये? उत्तर देते हुए एक तेज पुँज ने कहा-राजन् में शील हूँ। मेरे यह तीन साथी धर्म, सत्य और वैभव है। जहाँ मैं रहता हूँ वहीं यह तीन भी रहते हैं। इस ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने छल से आपका शील माँग लिया तो अब धर्म, सत्य और वैभव से भी आपको वंचित होना पड़ेगा। प्रहलाद ने दुःख नहीं माना। उनने शील संग्रह के लिए पुनः प्रयत्न आरम्भ किया ताकि जो कुछ गँवाया है वह फिर प्राप्त हो सके।